(न.

(| ८८८८ ८८०५८०८

~.

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2.2. शु

जेन पाठरालारोमा नणएवाना उपयोग |

भास्तर उमेदचद रायचद खन्नात निवासी

सयव्‌ १९६८ वीर सवत्‌ पि

शरी लक्ष्मी प्रि पेसमां शा मगीशाक उगम्चदे छाष्यु

०.

न्राङनादधनर्ार नान आदर

1 1 1. 1.1.

श्री -&. मं थं थ. &- ग्रथम नाम

छपावी भ्रसिदध करनार,

श्री जेन प्वानववेकशालना धापिक शिक्षक अमदावाद [>

| षै,

| क, 4

नर अन्द मनना न्द ष्ट

~ 1

सर्वं दक स्वाधिन ^

तरण द्राना-अमदावाद्‌

किंमत रस्य

44 ्टजष्टनदः

६.

प्रस्तावना,

श्या कर्ममथ पुस्तकनो प्रथम जाम सुङ्घ पुरपोनी छपाथी संपूरणं करी कंक अथ भरयोजन स्वी लखाण करवाने आप साद्वे। पासेषी आङ्ञा मायु

सर्वं जीवो कर्मवदथका संसार समुडने विपे अनादि काठथी जन्म मरणना खो नोगवे ठे, ज्या सुधी सदुष्यने कानना अनावे कर्मचु स्वरूप जाणवामा शरावतु नयी, त्या सु. धी क्म निर्जरा थाय नदीं अने स्या सुधी श्रीदीतराग भरणित धर्मन रदस्य स्पष्ट जाणएयु ठे एम कदी श्षकाय नदी

मदन्‌ पूर्वीचार्योए आपणा उपर उपकार करी यनेक भरथो रच्या ठे वचसा काठना मादासम्यथी तेमज प्रमादथी ते भरो थप तेमज नषटमाय थद्टं गया इता पतु याजका लो- कोने करान उपर रुचि दोवाथी अने विद्र करता विषान सा- धुखोना उपदेशवमे मारमा रदा पुरातन पुस्तकोना रोधथी छनेक थथो प्रकादामां खाव्या ठ.

श्भा कर्सयथ मध्ये, कर्म पटले शयुं ? तेनी मूत तथा उत्तर भ्रकृतिशरो केटलता प्रकारनी ठे ? तेना नाम तथा स्वरूप विस्तारे समजावेलां 2, तथा वली कर्म श्रङृति सधे जीव केवी रते चधाय ठे अमे पाठो केवीरति वरे तेतु यथार्थं स्वरूप समः जाववामा अविघ्ु ठे तथा सिद्धमतिए्‌ चटवानी भ्रेषीना पम- यीथारूप चौद युणगणालु सविस्तर वर्णन करवामा खा्युंठे वटी केटघ्लाक नास्तिक लोरो कदे ठे के ध्म नथी अधर्मं नथी, पुण्य नथी, पाप नथी, कर्मनो चध नथी, नादा नथी, देव

नथ), नरक नथ, एवं वोलनारा नास्तिको खमन करनार मा कमंर्थथो ठे.

कमभंयनी टीका श्रो ेदैखसूरि मदाराजे करेली 3 अने तेनो वालाववोध श्री जवसोम सदारा करेल 3े,तेवा- व्ाववोध नीरसी माणेके पकरण रलनाकरना चोधा नागमं उपावेलो ठ, ते घणो लंबा होवाथौ तथा तेनौ कीमत वधार द्ौवाथ घणालरा लोको तेनो उपयोग करी रकता नथ तेधी अमोषए ठपावेला पंचप्रतिक्रमणनी पद्धतिए. उपाववा केटल्लाएक कानरुच -सद्गृदस्थोन) सूचना वाथ खा पुस्तक ठपाववानो मे प्रथम प्रयास कर्यो ठे, कर्ममय सं्व॑धी अनुव में पण-तेज पुस्तकमांबी मेकव्यो इतो. यने मरो धंधो पण धर्म संवंध्री कण आपवानो होवाथी ते विधार्थीमोने कवी रीति शिखवुं सुगम्‌ पमशे तेनो अनुव थवाथी ते पुस्तकनी, तथा केटलतेक ठकाणे जीवविजयजीक्ृत .चालावबोधन) भदद्‌ लद कर्म थनुं पुस्तक चनाववामां आनु >. |

अमोने आशा के अमां पंचपरतिक्रमण जम लोकप्रिय य्‌ तेन) उपरा उपरी पांच वृत्ति्ो काढवान जरर पमी तेम पुस्तक पए लोकिय यष्‌ पसल.

या युस्तकमां सारी मति दोषथी, इटि दोषथी, तथा म्‌- छित दोपथं जे कांड जिनाज्ञा विस लखायुं होय तेने मारे र्मा माम विनंति करटं के तेमां रहेली खामीयो लखी मो- कलव्रा तस्दी लेशो के जेयी वीनी आवृत्तिम ते सुधारी चकाय,

ली. भसिद्ध कर्ता.

शु्िपत्रक. शुः, रीस + अवदः) थद्‌ #\ १३ म्पजना व॒ग्रद स्वव्य,टहातथी यतादी श्रफाय नई परह ~ भपारफोमे समनावता साद स्प्शरि वतान्या दे

~^

(4 षे ~ (यरनेता पयय, - -व्थस्स्याता पर्याय, ११ -पट्च }, ° -~ } प्रषटव्व १९ पष्च-पाये, - पएडव्व-पायनी नेम ४२, १२ अयधिह्वानाबरणीप अने अवधिन्ानायरणीयः मन पर्यवक्ञानावरणीयअने ९. ४१, सञ्यरन यनत्तानुरषी ०४ २१ पया , पररहनना० २८ ०३ पदर प्रङृति ओटी प्राप बीस प्रक्रति जोषी थाय ३२ चीना थया यीजाग्रण प्यातयातेने तेनी साये जोरतां भ्रण थयां ष्वेएषने ध्वे ्रणनं ३३ २१ यज-वर्जोनि वज~वज्ने तिण्दर~रप्र (टतो) सिणिदर-षीफणो २७ दुप्कार्‌ दुप्कर्‌ ३७ ४६ बादर अप्याह यादेर्‌ पया ३० २२ बद्र पृथ्वीफाप यादर पर्य्नपृश्यीफाम ५४ ओीदारिष्‌ पन नार अदाकि ओदराग्कि "यधन ना०। ४८ १६ सक्नां « सप्ता ४९ र्द्ध रद्र र्‌ २४ भय र्थि मप रदिभो ५४ ये अनेय अन्रघ्न ६९ ५. धरक्रिय यने आदारखकिना भङ्रिय यमे माद्र ७३ २१ यमाप अयद माम श्प १६ मतम्‌ नर ८४ उरिर्णायन्रमा ६८-६३-६७ ६९-६३-५ॐ १०५ १२ सान्यए्मेन साम्याश्ने नने १०४ ०४ 3.7. ५७४

२५४ प्व संम्दकनरं ७७

१९० ११० ११४

१९१८

११९ १२८

२२९

१३५

१४२

१५० १६० १६२ १६२ १६२ १६.७५ १६७ १७५

१७द्‌ १७४

4 ८9 @ १८०

१०

(चततंविनाभावं ्त्तिविनाभाष पिध्यात्वे १०१ मिथ्यात्वे १०७

, अणाहारी मार्मेणाए जीजा गुणगणे ७५ ते चोथामां समजवुं अने तरमा गुणटाणे नोप १६ इटा श्न्द्रना अ्थमां-कम्पुरल-ओदारिक कामण

२९ २२

१६

नि री © „~

1 ~> „९4 „©

२३ ६३ मीगाथा

तथा-मीस-ओदारिक मिश्रे, ते वेने वदठेकम्परल्पीस- कामण अने ओदारिक मिश्र समज. ओदार्कि कामण कामण भदेशवेदे पदेश तथा रसवेदे परचैद्रियप्याप्रो संद्गी पंचद्रिय पयपतो अपर्याप्त सहित अपयोप्ता सहित चणमेद मतिज्ञान मार्मणाने विषे मतिज्ञान तथा युतक्गान

मार्गणाने विपे असल्यापूषा मनोयेग असल्यामृषा मनोयोग सत्य वचन योग असंख्य संख्याता कामण कामण ओदारिकि पे धार्‌ जलाई छे ते सुधारने वांच एक प्रमत्त एक अप्रमत्त योगं चण योग तरी एकनरीस, एकु कर्मनी प्रमत्त, तथा प्रमत्त, अप्रमत्त तथा

अटउसंते-आठ तथा सातनी अहृउसंते-आशतत्तानेविषे

ना इरा भयां संतदणए-सत्ता तथा उदय संतुदए-सात उदयने विषे

२१ १६

०3 रभम ^) 6४ नद

उदीरणा होय उदीरण देय सयोगी गुणाणे अनुदीरकदोय सयोगी युणटाणे बे # कर्मनी अने अयोगी

गुणगणे अचुदीरक होय तेने अथवा क्षायक्ने बदटे तेने पच चतुः अने पंचरसयोगीओ काढी नांखवुं एके वालाग्र , वाखग्र

उत्कृष्ट संख्यातु उत्क असंख्या संख्यातु

(^

गण्य ~

# र्कम) एि।

अथ श्रोकमविपाकनामा प्रभमकमंग्रंयप्रारन.

रि ) मगलाचरण

दिनेगव-यानवरप्रतपे, रनेतकालम्रचित्तंसमंतात्‌ योऽशोषयकर्मविपाकपंकं देवो मुदे वोऽस्तु वर्दमानभ२।

अर्थं -यनत कानो सचय करेलो जे कर्म विपाकरूप पक एटते काठवं तेन उग्र भ्यानरूप तापवमे शोपण करवाने जे सूथना जवाठे एवा श्री वद्ध॑मान देव मने दपं करनारा याशो ॥२॥ ज्ञानादिगुणगुरूणा, धमेगुरूणा प्रणम्य पदकमलं कम॑ विपाके विवृत्ति, स्मृतिवीजविट.ये विदधे १॥

अर्थं -ज्ञान ठर्नन चारित्रस्य जे सर्वोत्तम युण ते घरमे कर मदृत्ताने पामेला अथवा तेओनी प्राप्ति करावनारा एवा धर्म युर तेमना चरण कमखने परणाम करीने स्मरणसप शङ्क रनी वृद्धि करवाने रथे कर्मविपाक नाभना प्रथम कर्म॑ ग्रथनी वृत्ति करु २॥

1 वे कर्म्रय फोने कहीएते केके

जीवे मिध्यासव श्यादि देत॒ए करीने जे आत्मा साये पु- गलं वांधीए तेने कमे कदीए. ते कर्मसु मूलोत्तर भरकृतिए करी तथा प्रङरति स्थिति रस अने भ्रदेदा आदि वध ननेदेकरी

तथा वंध, उदय, उदीरणा अने सत्तादि मेदे कर अयनं रच तेने कमंयंथ कदीए,

र. रै £ ¢ £.

तेमां भरथम कर्मविपाक नामा प्रथम कमंग्र॑घ-ते कमना पुद्गल अजन चृशेथी नरेला दाचमान पेठे सवै लोकाकाद्ामां निरंतर व्यापी रहेलाे तेनो द्र नीरनी पेरे तथा अभि अने लोहनी पेरे आत्मान साथे संवंध तेनो अनुव जणएावनारं जे शाख तेने कर्मविपाक कदीषए.

सिरि वीरजिणं वंदिय, कम्मविवागं समासञ्पो वुत्तं

कीरं नएण देख; जेणंतो चन्नरए कम्मं सिरि-भी, रक्षी

बुच्छं-कटीक्च | नेणे-ने मादे रनौ -महावोरस्वामी | कीरई -कराय | तो-ते मादे बाद्य-बाद्‌नि [, (० =, समासओ-कषप्थी | देररदि-देहए कम्म-कर्म

अथः-केवलज्ञान रूप लद्मीए करी सदिति एवा श्री वोरषन्नुने वांदीने कर्मनो जे विपाक एटले कमेत स्वरूप जणा वनारो जे भ॑य तेने संदे करीने कीच जे मारे जीवे देतुये करी करायते मादे ते कर्म कटेवाय २॥ पय विर्‌ रस प्रसा, तं चञ्हा मोखगस्स दिषटता मूलपगई्‌ उत्तर, पग अम्वन्न सय चेखं

पय्‌-मकृति ते-ते मूरपगइह-मूरम्रकृति आं टिद्-स्थित्ति चउ्हा-चारमंकरे उत्तरपगड्‌-उत्तरमङ्ृाति रस~रस मोअगस्प~मोद कना | अडवनसय-एकसोअद्वावनं

पएसा~प्देश दिटैत(-दृएति | मेअं-मेदे

, शछर्थः-श्रकृति घध, स्थिति वध, रस वेध खने भ्रदेदा वंध एम ते कर्म चार प्रकारे मोदकना ( वाना ) दते ्ाचघु तेनी मूल प्रकृति आठ छने उत्तर प्रकृति एकसो अहावन मेदे टय २१ 1 मोद्रकना दाते कर्मना चार भेद समने छे परकृतिपथ-नेम तरिफड ( सुठ, परी, पीपर )नो खाद्‌ वनाव्यो लोपतेनो छ. भाय वायु दरयानो देय तेम फोई कर्पनो सभाव ज्ञानने आरण करै, पोर दर्शनम आप्ररण फरे ते स्थिपिपथ,-नेम कोड खाड्‌ बे द्विसः, फोई दश्च दिवस सुधी वगर नरी (नश्च पामे नरह ) तेम फोट कर्म अयुक युदत सुधी रदे ते स्थितिवथ फदेवाय मव ~नेभ कोई लाइनो रस मीभे, कयो हेय तेम कमे वांयती वसे कयाय सेत्रो तित, मद्‌) शुभ, अगुभे, होय तेवो तेनो रस पथ फदीषए प्रद्र -जेम फोड्‌ सादमा प्रेक्ष (कण) थोडा हेय फोडमा पधारे टो तेम फोड फेना पुदटृगल बधार दोय फोऽना ओखा होय ते परदेश यर केवाय 1 छे कर्मनी एकस अहायन प्रकृति गणपते ठे श्टनाए दं सणावर, वेखमोहाठनामगोखाणि विग्धंचपणनवख, एवीसचउतिसयदुपणविदं ॥३॥

इह-भर् आडइ-आयु दु-पे

माण-द्रान नाम-नाम अद्वीस-अदावीस दसण-दर्शन मोभाणि-गोव चउ-चार्‌ आवरण-आवेरण दिम्य-अतयय तिमय~एकसो प्रण वेअ~बेदनी पण-पाच दुपण-े तपा पंच मोर-मोदनीय नेय-नय षिदह-भेद

सरथं -खदी खा पेदेट्ु काना वरणोय, वीज ददनावरणीय, त्री वेदनीय, चो मोद्नीय, पाचमु णु क्म ठडु नामकर,

| सातं गो्रकर्म अमे आदम्‌ अंतराय कमना श्रा मख नरेद कट्या, आदे कर्मना अनुक्रमे पांच, नव, वे यष्ठावीसः चार, एकसो अण, वे अने पांच एम कमम एकसोने अद्यवन उत्तर पङ्ति वे. कञानावरणीयः-जे ज्ञानने आवरण करे पट्टे ज्ञान धवादरे ते. 0 © ¢ (न्‌ 9 दशनावरणीयः-जे कर्म दरशन (देखघु ते) आवरण करे ते. वेदनीयः-जे कम॑थी सुख दुःख भोगाय ते. मोहनीयः-जे कमथ मोटे करी पोताना हति आहितनी विचारणा करी घक्राय, आयुःकर्मः-जे कम वीजा भवने तरि उदय आवे एटले व्रीजां कर्प पण वीना भवभां उदय अवरे खरां अने कोड पण अगे परंतु आयुःकमं तो अवदय पगे वीज। भवमां उदय आष, एट्टे जे कर्मना उदयौ आवता भवमां अयुक युदत सधी रदी शरकायते. नामक५ः-जे कर्मना उद्टययी जीद जे गति के जातिपां दोय तेने ओग्खप्रे ते. गोतरकर्मः-जे कर्मना उदयथी जीव पोत्ताना णवे उच्च नीचपणुं प्राप्न फरी शे अतर।यकरमः-जे कर्मना उद्ययी जीव दानादिक आसानी छचन्धिभो प्राप्न करी शके नहीं ते. हे ते दरेक कमनी जी जदी उत्तर प्रकृतिभो कदे ठे, मरसुञ्रस्प्रोह्‌। मण के, वल्ालिनाणाणितच्नम्नाए

वजएवग्गद्‌ चञ्हा, मणनयणएविरिंदियचडक्षा॥ ४॥ इ-मरातङ्गान नणााण-ज्ञान

मण-पन

तथ्थ-त्यां

ओहि अव्रधित्रान मडनाण-पतिज्ञानना यिण--प

मण-पनः पयवज्ञान वजणवगगह-~व्यजनावग्रह केवलाणे-केवलन्ञान चउदहा-चारमेदे इदियचडउका -रद्ियचतुष्क

अथेः-मतिक्ञान, श्रुतङ्ान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवल्षङ्गान पाच कान ढे त्यां मथम्‌ मतिज्ञानना ख-

छाधीस मेद जणावे ठे चार पकारे व्यंजनावय्द्ठे, मन ने

चु विना चार ध्ञिंना अवयरद्‌ चार भकार भ्यजनाव

दृना ठे ॥४॥

मतिक्नान"-पाच दृद्रिय अने खदु नोरदरिय मन वदे वस्तु -सामान्प घरि- भेष नाणु

शयतक्षानः-जे यस्तु जाणी तेना जुदा जूटा पपि जे हान तते

अवधिक्षानः-दप्रियादिकनी अपेक्षाविना द्व्य, पेन, काल अने भावषएु चार्नी मर्यादाए जे रुपी दरव्यम ज्ञान धायते

मन पर्यवङगानः-पननि पचद्विना मनोगत माव जाणबु ते

फेबरक्तान.-लोकारोकने विपे रदेढा रूपी अस्पी स्यं पदार्थो ने पूर्णं शनि थायते,

तेपा प्रथम मतिनानना अहार्य मेद फे ठे

व्यजनावग्र-स्पशचनादिके फरी वस्तुनो जे अध्यत अव्यक्त बोध ते जेम फोर वस्तु दायमा खेवाथी दादी, उनी, टलकी, भरे लगेतेघजेश्तान युते स्पफ्िनो अवग्रह फडवो तीखो खाद जीमना स्प्ीयी जाण्यो ते रते द्रिनो अग्रह, तया घगप धरणि्रिना सपर्श्यी नाण्यो ते पराणेप्रितो अग्रह, फोईप साद्‌ कर्यो तेना मुद्गर फानने फरस्या तेथी शब्द जाणपणु यु ते श्रोतप्निनो अवग्रह एम चार उद्विमोनो न्यननागग्रद दोपे, परदु मन तथा चमुदद्रिनो व्यजनायग्रहे नयी ऊारग-जेप फो शीपसानी अदुर्‌ प्राणी भ्य होय सो ते जागयाने स्प फरयो पडतो नयी. परतु मन अनि चक्षुयीते लाणी व्रफायदडि तेथीतेवे इषरिनो प्यजनावग्रद नथी महि मनम्‌ जने चश्रुषिना चाणद्रिमनो य्पजनायग्रहदे

खअभ्युग्गददावा, यधारणाकरण माणसे घा

छम ष्टवीसनेखे, चञ दसदहावीसदाचुख ५॥ '

अथ्पूमाई-अरयाप्रह | छाउ मकारे चडटसदा-चच्दमेन इभ~एष बीसदा-वीसमेन पारणा-पारणा अवासी = | च-अयत्रा

करण-प्रिपो भेभ~मेद भुभ-दतन्नानना

& यर्थः-एक ऋअथवग्रह्‌, वीजी दा, त्रीजो अपाय यने

चोथी धारणा एः चार मेद, पांच दंडं यने मन षएठनावे. एटवे चोवीस चरेद व्यंजनावय्रद्ना चार नेद साथे मेल- वतां कुल अष्टावीतसत मेद मतिङानना चया अने चोद्‌ तथा बीस प्रकारे श्रुतङ्ान दोय ॥५॥ अथौवप्रह-वस्तूना अर्तं प्रग करतुं ते अथाविग्रह. जेम कोई वर्त आपणा

शरीरे अडकी तेथी जाण्यु जे कोक वस्तुनो स्पद्चं थयो एवं जे सामान्य

अब्यक्तन्नान ते अधौवग्रह. इदा-ने वस्तुनो अथग थयो ते अयुक गे एवं जे जाणवुं ते. अपाय-ते इहित वस्तुने निथय करयो के फलाणीज वस्तृखेते धारणा-जे वस्त॒ निश्चय करी तेने दृदयने क्रिवि पाय राखवी ते. उपरना मेद्‌ दृषएटत आपो समने ठे.

भेम आपये कोई वस्तु मोमां शुकी तेनो स्यश्च जीभने ययो तेथी रसने यने अति अव्यक्तपणे रसं जे ज्ञान थयते रसनेंश्रियनो व्यंजनाबग्रह, स्यार पी जाणवामां आग्युं जे जा कारक स्वाद्‌ जणायदछे, ते अवग्रह्‌, त्यारपदी प्म लम्धुं के तीसु छागे छे मरे मरी के पीपर दशे, ते इदा. त्यारपडी एम नकी कयु पपरन छे ते अपाय, पडी तेने धारी राख्युं के पपरनो स्वाद एषोज होय छे ते धारणा, ममागे बीजी ईमरियोना मेद पण जाणी ठेवा,

व्यंजनावग्रहनो कारू अंतभहूतं भमाग होय छ. अर्थावग्रनो काठ एक समय परमाण दोय छे. इदा अने अपायनो काठ पण अंतशहूर्च भमाण दोय ठे, अने

धारणानौ असंख्यात कार प्रमाण दोय ॐ, रीत मतिक्चानना अष्टावीस भेद फएरीथी जणाबे छे.

फरसदटृद्विना-ग्यजना वग्रह-अयावि्रह, इहा, अपाय, अने धारणा ^

रसेद्रिना- 49 4) ११ 39 ` 29 प्राणाद्रना- | 29 | > , श्रोतेद्रिना- ॐ) 3 | 2 | ५. चक्ुद्रिना- 9१ 39 १9 29 - मनना~ , . ,, #* _

9१ , 39

पुं £ चार परकरिव्यनना बग्रद, उपकारे अय्विप्रह, ६७ पकारे इहा, ६, प्रकरि अपाय, उदि पृषे धाएषए, हवे शुत क्षानना चौद मेद दखाडे चे अखरसन्नीसम्मं. साह्यंखल्ुसपञ्जवसि खच ग्निखखगपविषठ, सत्तवीर सपस्विका

0 सपञ्जवतिभ-~सपर्यव | अगपवि-अगमविष््ुत -सद्ीशुत

सम्प-दम्यकत तित्त्ुत | सत्तबिपए-परात साईइभ-सादिशत एर्‌

खद~-निधय गमिञ-गमिकधुत सप्डेवस्प। प्रतिपक्षस्िति

अ्थै-खङ्रशुत, सङ्षिश्रुत, सम्यक्‌श्रुत, सादिश्रुतः सप- यवत्ितश्चुत, गन्निकश्चुत, अग्रविषटशरुत, सातने भ्रत्तिपक् सदिति करीए एटले अनकरश्रुत, यसङ्कीश्चुत मिध्यासवश्रुत, सनादिश्ुते, रपर्यवततितश्चत. अगमि्कश्चुत, चने धरंगवाद्य्ुत, चेद नेद थया ॥३॥

भक्षस्धुत्तः-तेना प्रणयेद्‌ > सहाक्तरते अदर परकारनी हिरि भुल कषु ते, > ग्यजनाक्षर्‌ ते अकारादि उल्यारथी ने अक्षर बोखाय पे, रुग्य्षर ते सापछगयी तपरा नोवधयी तून जे शिप क्ञान यायते

अनक्षर्धुत्‌ ~स तथा श्राप आदि क्रियापदे पुस्पाद्रिफचु जे क्रनिथायते

सत्त सक्छ (१) देह पदेशीफी एटठे ईष्ट अनिष्ट पस्तु जाणीनि प्ति निदेतति ते (२) दीर्पकाटिफी अटने अतित अनागत्त घगा फा- छी विता रवी (३) दषटिवारोपददिको षएटरठे ने क्षयोपक्ठम प्राने करी सम्पद द्रिपण दोयतेप तणस्क्ठा प्येपी अदी दीर्ध काः रिका सनाते सहीश्रुत

अंसहीथतः-रीषकालिशी सङा रहित मनविना पद्िययी जे द्गान थापने,

-सम्यङ्श्चतः-भागम अयुंसारे खोगने खोट अने खराने खरं जाणे ते, मिथ्याखश्वुतः~मिध्य्रटिए करीं खोधने खर अने खराने- खेदं जाणे ते. आद्िश्ुत-मरत तथा अंरवतप्षन आश्री -ज्यारेतपरथम - तौयमरवत्तं ते बखते श्रुतनी आदि यायते, सति 7 अनादिश्ुत-महाविदेह केतने विपे सदाकार रतीथिनो विच्छेदन टो तेथी स्यां श्ुतनी पण आदि तथा विच्छेद थाय तेथी त्यां अनादिश्चुत -सपयवसितश्ुत-मरत अंर्रत केने विपे तीर्थनो विच्छेद थाय त्यरि ्रुतनो पण अत अवि ते आश्रीनि सपर्थवस्ितशरुत. + १० अपर्यव्तितश्ुत-पहा विदेह सेने विपे ती्थनो विच्छेद थाय तेथी स्यां श्रतनो पण अंत अवि नदी माटे ते स्त्र आश्रीने अपर्यवसितश्रत ११ गमिकश्चुत-दष्टिवाद्‌ प्रयु ने सरखा पाट अने आरावायी बधं जे श्चुत १२ अगमिकश्ुत-कालिकश्चुतनी पेठे जेमा पाठ सरखा होय. १३ अंगम्रविष्टश्चुत-अंग केदेतां जे बार अंगर्ं ज्ञान थायते १४ अंगवाहयश्चुत-वार अंग सिवाय उपागांदिक्ं जे ज्ञान थायते, सिवाय द्रव्य, कित्र, कार अने भाव चार भेदे श्चुतज्ञान छे द्रव्यथी श्र तक्गानी उपयोगवेत यको उक्कृष्टथी सवं द्ुभ्यने जागे, प्ेत्रथी खोकाखोकने जागे,

कठ्य( सव करन जाण; भावय सवं मात्रन्‌ जण, एट्के सपृणश्चुत ज्ञाना कवर सरसा जाणकवा,

रवे श्ुतज्ञानना वीजा बीसमेदं कटेञे, ` `“ पञ्जय खखर पय सं, घाया पभ्वित्तितहयञमएुड्गो

पाहुम्पाहुन पाडूड,-वथ्थू पुञ्वाय समासा ७॥

पञ्ज ~पयायर्ध्ुत

अरुलर-अक्षरशुत तहय-तमन पाहड-प्राभतश्चत पय-पदश्चुत अणुओ्गो-अलुयो गत्‌ | वध्थु-वस्तुश्चत सेाय-तेयातश्ुत- . | पादुडपाडद-पाश्तमा्- || पुव्वाय-ूर्वश्चुत = ° पडिवत्ति-मतिपततिश्ुत तश्चत | ससमासा-समासक्ित

अथः-पयायंश्रुत, -अक्रेश्चत, परदश्चुत, संधातश्चुत भति पत्तश्चत तेमज वक) - अनुयोगश्चत, प्रानतप्रा्रेतश्ुत, ` ्रा-

(4

तथत, वस्तुत श्यने पूर्थतत दस नेद तथाते ठरेकनी

साथे स्मास शव्द जागपाथी वीजा दन चेद थया. जेम

पर्यायतमालश्रुत, खक्रसमासलश्चत रीतेव्शे नेद जाणी तेवा.

एम सर्य वीत जड श्रुतङ्तानना 2. ५9

परयायशरत -घाननो पुर पोदा्मायेदये भागते पटे गृ्मनिगोनीभा रमि अपरया जीयमे पथप समये नेद नय दृशु तेी वीजे समये नेरगो छाननो णक अविभाग परिच्टेद अन थये ते पर्यायथुत

पर्याप सपाप्तयुन -तेवापरे चार पर्पीपते

अप्तरयुनः-भफागदरि सर यक्त अनेक व्पमन पर्पीय सधि नाणरोते,

अप्त रमाएथतः-तेवा मे चार अक्षरन शरान ते,

पदेव -अश्राटि स्वर तथा फ्कागुटि पर पमरप पन (वरप) धाय तेनुजप्रानतते

पदपमाषपुत -तेयं अनेफ पृद्रानु सान,

सभातधत -मा्गणाद्रार मपेयी गयादरिरे परर पा्गणाना एक गना नौव मेनन क्नन,

सथान सपापषन तेवा पर परमां थार मिना नीरत प्रान ते,

परतिप्रलिृत -गति परादि माेणोद्रारपापो पष गनिम। सपार जीर्ना भेद दलाग्रं प्ामे

परमिप मपामसून -उपर फा नेवा एर फा उपारे गनिम] मापे जीवना भेर भराग्दत्र शान अतुयाणधुश-मपद पदा पादिक भदुपेम श्तीक) तपदिना पणत दानत अनरदाग ममापधम तेषा पएकपौ दपा भनुपोतनर तापने ते, मारण परासुः -पात पवष दृषठिरदेना णक भपिकार (भागव नामत्त नेग रक मागत रान समिन पादक मपातपुत -कदाद चार एदु दादश एनम मापलपुर तना दादुद पाद परदारद्पायप्त, तवा पर्प शनन मारन मपापरपुड ~ पड यर्म पपे पाए ( अष्पदयत्र जपने पर्दा -पवा दाष पर पष्प पापरेवा पुष भदन षयम, ;

१०

वस्त समासश्ुतः-एवा पे चार अध्ययनं ज्ञान ते,

र्वश्चतः-उत्पाद पूवादिमांथी जे एक पूर्वं ज्ञान ते, शा

पुवंसमासश्चुतः-एबा -एक करतां वधर पूवं अथवा संपुणं चोद पूर्वयुं जे ज्ञान ते,

हवे अवधिज्ञानना भद्‌ कटे ठे,

प्रणुगामि वहमाणय, पमिवाश््यर विदा ग्हा उह -रिजमर्‌ विखलमद्मण, नाणं केवल मिगविहाणं ५॥

अणुगामि-साथेचाछनारं | इयरव्रेहा-विपरित मेदे | भिउलमई-विपुखमाति

0 0 वदृमाणय-वद्धमान(वधतु)| ददहा-छ प्रकारे म्रणनाण-पनःपयवन्नान पडिवाई-प्रतिपाति (आ- | ओरी-अवधिङ्गान केवरं-केवख

वीने पां नाय ते ) | रिउमई-ऋजुपाति इगविदहाण-एक़र भेदं

अ्थः-अनुगामि, वर्धमान, अने प्रतपाति चरण तथा तेथी उत्तर पटले अनानुगामि, हियमान, तथा अप्रतिपाति भ्रकारे अवधिज्ञान 3. अने कुलुमति तथा विपुल्लमति वे प्रकारे मनःपर्यवज्ञान ठे. तथा केवलज्ञान एक प्रकारे ८॥

अवधिज्ञान वे प्रकारं छे, एक गुणमरस्ययिक अने वीजं भवप्त्ययिक, णद्रसययिक मतुप्य तया तिैचने हेये. अने भवरभत्ययिक ते नारी तथा देवताने होय छे अलुगामि-ने कषेबमां अवधिङ्नान उपनय होय अने ते चारे दिशाभो तरफ जेर्ला ननं थयुं होय तेदलु ते क्षेत्र छोडीने वीजे गमे ते ठेकाणे जाय तोपण ` चारे दिशाए तेश्छं देखे, एटठे ज्यां जायां चश्षुनी पेडे साये आवे. अनावुगामि-ज क्षेमां जेट मर्यादा चुधीतरं अवधिज्ञान थयुं होय ते मर्यादा ओग थी वीने कषे नाय तो देसी शके नही स्थिर दीपकनी पेठ, पद्धमानः-जे दिवसे दिवसे वधतुं जाय, हीयमानः-जे दिवसे दिवसे घय्तुं जाय, पतिपातिः-जे अवयिज्ञान यूने पां जतु रहे ते, ते उत््रष्टयी सकर चौद्‌ राज्य रोकने देखी शके अने दीवा ओख्रायानी पेठे एक कामां नतं रहै. भमतिपातिः-ने ज्ञान आन्यं जाय नदीं ते सकन चोद्‌ राज्य रोकने देखे अने

1

१९

अरोकना एण एक परदेशी माड़ी असस्यातो अखोक देखे

रीते अवपिष्ठानना ¬ मेद्‌ ठे, अने द्रव्य, पत्र फार अने भावयी तेना अस्तस्य मेद्‌ पण थर्‌ मे छे, अवयिह्ठानद्यि जवन्यपी अनता स्पीद्रयने नागे देखे थने ष्छएयी स्म स्वीद्रयने नागे देखे, केजरथी जषन्यपणे अगुनने असल्यातमो भाग अने उक्ृषटी अप्तरयात रोकाराछने नाणी देसी छदे, फाठयी आदिना असरफातमा भाग जेटलु अपिते अनारत फाल नय~ न्पधी अने उक्छृषएपणे असण्याता फारयक्र अतति अनागत फाठना भावने जाणे देखे भावयी जयन्य तथा उक्कृषएपणे अनत भावने नाणे,

पिमगक्षान ते अद्धिप्नाननी जातिखेपणते मिप्याीभाधरी हेवायी- मीन छे तेयी यीपरित जाणे,

ह्ये मन.पयवत्नानना मेद्‌ फे (9) परुरमति-सनी परदे्रिना मनोगतं भाप सामान्यपणे नाणेते, पव्ठेते माणसे अपुर वस्तु मनां तयी रे, २) विषुपति-ने वस्तु चितवेली 2, ते अघर जग्पाण अपक पाणसे मना- वेी छठे, बगेर घणा प्रीये सलि भागे,

एथे प्रफारे मन पर्वदध्रान पिरतिनेन होय द्रव्यय परपति अमत परदे स्थ तेने नाणे टेखे अने व्रिषुलमति तेदीन स्फपो भ्िशृदपणे नाणे देखे पेपी शसति तिरी दिम अदी दीप घपी उदु ज्पोतिपीना शपएना भरतेर्‌ घुपी) भमे नीच रन्तममां पष्यीना भुके पनर च्णी अदारकहे योजन छषीना सन्निरचद्रियना मनोगत म्र नाणे अने विदु तेषी अदी अभून पपार जणे करपी कुमति अनिन अनागत मनोगत भाग प्रपोपमना भप्त रपातमा भाग मुभी नाणे अने विपुलमति तेयी फार पपार नाणे भारी

परयुपति जित्य द्रव्यना अनतता पर्याय जाणे अने व्रति वेषौ कोक सथारे नाणे दद

पेषर्दान-मनिद अनागत भे वर्चभान्‌ एर स्व्रपो महर लोागोकना द्र्य क्षय एाय मने भावने नाणे देसे रीत नना ( २८-१८-६-२-१ ) इख पादन येद यपा, प्पे तेना आद्ये

6,

एति जं खवरण, पमुच्च चश्ययुस्स तं तयावरणं

१२ दंस चडउ पण निदा, वित्तिसमं दंसवरणं ४॥

पसिज-ए ब्नानक्चं जे | चख्तुस्प-आंखनो चउ-चार

अवरणं-भाच्छदन तं-ते पणनिदहा-पांच निद्रा करनारं | तयाबरणं -ते्ुआवरण | षिततिपम॑-पोगीञ जें

पडच्च -पायो दंसण-दशननां दंसणावरणे-द्थनाव्रर्णीःय

अर्थः-ए पांच ज्ञानने जे वरण करे तेने क्ानावरणी कर्मं के ठे, जेम आंखना प्रकादयतुं आवरण पाटो वांधवाथ थाय ठे, तेम क्ाननुं आवरण क्ानावरणीय क्म॑थी थाय ठे. दशन चारनां खवरण चार, अने पांच चेदे निलय एम नव सेद्‌ दर्शानना ठे; ते द्हनावरणी कमं पोटीश्राना जेवंडे.

ज्ञानावरणीय कमं पांच भकारे छे. मतिज्ञानने आवरण करे ते मतिज्ञानाव- रणीय तेमज श्तङ्ञानावरणीय, अघधिज्ञानावरणीय अने केवलङ्ञानावरणीय, तथा दशेन एटठे सामान्यरूपे वस्तुनो अववोध ( देख ) तेतं जे आवरण करे ते ददौनावरणीय कमं कटेवाय, दरैन चार भकारे चक्षु, अचक्षु, अवधि अने केवख्दशेन तेसु जे आवरण करे तेने अनुक्रम चशुद्नावरणीय, अचश्ुदशना वरणीय अवधिददोनावरणीय अने केवलदरनावरणीय करीए चार तथा (१) निद्रा (र) निद्रा निद्रा, (र) प्रचट (४) प्रचरा भचखा, अने (५) थीणद्धी, पांच निद्रा मखी दशेनाबरणीयना नव सेद थया, ते दश्चनावरणीय कर्म पोढीभा जेठु छे, जेम कोडने राजा पासे मन्वा जवं होय पण पोढीभो नवा दे नही तेम द्नावरणीय कर्मथी देखी शकाय नक्ष,

चख्खु दि अचख्ख्‌, सेसिदिय उदि केवतेदिं दंसणएमिह सामन्न, तस्सावरणं तयं चज २०

चरलु दिषि-चश्ुदशेन | ओदि-अवधिदर्न

तस्सावरण-तेनां आवरण अचरूल्‌-अचशुदशेन | केवरेर्दिच-केवल्दर्शन +. सेस-वाकीनी(आंखविना) दंसणमिद-ए दर्शन 0. ईदिय-इद्वियाथो , सामन्न-सामाभ्यं अववोध | चञदा-चार भद्‌

१३ अर्थं -चह्कददीन ( श्यांखवमे टेखवुं ते ), अचछ्छददीन

( शंख विना वीजी एदधियोथी यछ ते, ) वधिदर्ख॑न अने केवलदर्मन तेना आवरण पण तेज नामना चार मेदे दोय \२०

आंघवटे देख ते चकषुदर्धन, आंख विना वाङीनी चार तथा मनवडे जे बस्तु नाणबु थाय ते अचनुदर्धन जेप आनो माणत् हयाय फवीने नाणे डे कषे फलाणी वस्तु ठे अथवा हए्धीषी जाणेके मोषसे छे अथवा एना फे) प्रीजु अवधिदश्चनते द्रव्य) घेत, कार अने भाव चार मर्थादामां देल स्पीद्र्यत्र देख ते अने केवलन्थन ते वस्तू देषद्‌

षवे पाच निद्राकदेये

सुद्‌ पर्विोदा निदा, निदानिदय इख्खपभिवोह्‌ा पथला ठिख॑वविष्ठरस, पयक्तपयल्लाय चकम ॥२२॥

युद- दु स्खपिगेह-दु्से प्रेमे भाषे पदवियोक्च भरनिपोध (न जागी धरय एयल्पयलाय-मचना ध्र. निध्ष-मिद्रा पयगा-पचर्‌ घला

निानिदाय-निद्रानिदा | एियोवदिदप्ष-उमातया | चकमभो-वाटतां थसं र्थं -सुखे जागी दकाय ते (२) निखा, से जागी दकाय ते (२) निखा निखा, उननाने तथा वेठाने आरे ते (३) प्रचा, चालता थका पण आपे ते (४) धचला परचता, ॥११४ निद्र शद्रियोना अवयोधने रफ छे तेथी तेने पण दर्शनादरणीय फर्म कतए दिए चिति खध्थकरणी, धीणद्दी खद्चचक्ति सदवला॥ सटुतित्त खगगधारा, छिदण इदाउ वेखणोख ॥२९॥

दिणविति-लिनिदे तिन | अद्रव -वाघुदेव निथर दे हणवा ष्पी पेटी | अदवरा-अदाबन्वारी #

भथ्यकएणी भयनेपरनारी भदुलिच-मथयीनेषावेली | दधरब भव

शीगदी-ष्रीममो फम्यधाग-पटमनी पार पेमनिभ-पेदनी्यं

१४ ` अर्थः-दिवसेः चितवेह्यौ कारं ( रातने समये. जागुतन पेते ) करनारी निखा ते थीणएष्ी निदा कदी, ते निना.स मये ते भराणीमां अर्धैचक्री जे वासुदेव तेनाथी अर्धं वल दोय ठे: ( रीते दनावरणीयना नव नेद थया द्वे वेदनीय कर्मके ठे. ) मधथी खरमायेली तरवारनी धार चाटवा सरखुं बे प्रकारे वेदनीय कम ठ. १९

थीणद्री निद्रावालाने वाददेवथी अरधुं वल कहौ ते वञक्रषभनाराच संघ- यणवागने नाणवु अने छेवह( सं घयणवाकाने तो चमु जमण जोर वधे, वेदनीय वे प्रकारे-जेम तरवारनी धार मधथी खरडायेटी होय तेने जीभवडे चाटतां मधने रीधे मीडाश्च छागे तेना जेवुं (१) शातावेदनीय एदे सुखलं भोगवदु. अने धार उपर जीम फरवाथी जीम कपाय अने तेथी जे दुःख भोगववुं पडे ते (२) असातावेदनीय

उस्नं सुरमणए, सायमसायं तु तिरि निरएयु मजेव मोद णिञं, विद्‌ दंसण चरणएमोहा २३

ओसन्न-भाये तिरिभ-तिर्थच दुवि -वे भ्रकोरे सुर-देवताने निरणएसु-नारकीनेविषे | दंसण-दश्चन मणुए-पनुष्यने मञ्ज-पदिरा चरण-चासि सायमू्‌-शातावेदनीय | व~पेठे मोहा-मोदनीय

असायं-अश्चाताषेदनीय मेदणी्-मेाहनी कर्प

अथंः-घणएं करीने देवता अने मनुष्यने विषे शातावेदनी

यना उदय ठ, अने तीर्यच- तथा नारकीने विषे अशातावेव- नीयनों उदय दोय >. ( द्वे मोद्नीय कम कटे ठ, ) मदिरा (दार)नी पेठ जीवने विकल करे (सुणावे) ते मोदनीय कर्म बे नेदेठे, एक वरांनमोदनीय अने बील चारत्रिमोदनीय २३॥ अहीभां वेदनीयकममां ¦ पाये कदेवां- कारण के मलुष्य तथा -देवगतिमां

पण अशातवेद्नीय वेदे परग प्रण भागे श्रातावेदनीय वेदे फारणकेतेवे

गति शुन्यं भष्तिनी 3 तेमज ति्यच अने नारकी -फोईक षत शातायेदनीय

भेदे जेम कोई ष्टके दाथी कोई राजा रयुखने त्या होय चने आदर पामे

स्यारे ते शराताबेदनीय वेदे छे, तेम नारकीने पण फटयाणफ समये शाता उपने

मोदनीयकर्प--ते जेमर फोई माणसे दाह पीथो होय तेने पोताना भराशुडानी समजण पटे नक्ष, तेम मोहनीय कर्मना उद्यथी जीवने पोताना हित अ- दिनी खपर पडे नी, तेना वे भरकर छे (१) द्नमोहनीय पटे पिप्या- त्वना उदययी जीवने शुद्ध देव शुर धरम उपर रुची याय नटी अने (*) वारित मोहनीय पट्टे जेना उदृयथी धम उप करी शके

दंसणएमोदहं तिविद, सम्मं मीस तदेव मिच्छत्त # सुष्टं खश विसु, अविसुदधं दव कमसो ॥१४

दसणमेद-द्ीनमेोहनीय } भिच्छत्त-मिव्यात मो ! त॒ते

^ तिषिह-प्रण भ्रफारे दशेर हवद-हेय सम्प-सम्पवत् मोहनीय | अद्विुद-अदध शपे | ष्म त्देव-तेमन अगिथद्-गणधोु फमसो-अनुक्रमे

शर्थ-ददीनमोदनीय व्रण रकार ठे (९) समित मोद्‌- नीय, (२) मिश्रमोदनीय, तेमज (३) मिष्याख भोद्नीय ते छनुकमे श्र, अद॑विशयद अने शदुदध दोय ॥२४॥

1 ते ््टात आपी सपने षे

फोर मे एर जाततर पाल्य याये, तेमां केश्या एवराहेपछेफे ते खााथी मीणो (देए) चदे, परतु तेना छोतसं कादी न्वी ण्दीने छाश पाणीवडे पयार पेद नसी तोते शद्ध याये तेप मे जीव पिष्याली हेय ते मनना शुम परिणामे फ्री प्रिप्यालना उरी सारी नवी शद्ध थाम तै समग्रित मोहनीय, तीय पिधमोदनीप जे कोटरा छोनरं फारी छव्या नथी यारे चेमां मीगानो सुरु भग रहैषेतेनी पठेञ्या छुपी प्रिध्याल्नो अद छ्य स्या शरुधी पिभ्रमेद्नीय अने शी पिव्याठमोदनीयतेतो ददन अथुद कोद्रनी पठे एकम पिष्यारर समक्षिनमोदनी तथर्वौ करये प्म ध्रशदिके

१६ करी यावे, मिश्रमोहनीयवा्रने तमां पण रुचि होय अने अतेखमां पण रचि होय, -अने मिभ्यात्रमोहनीयथी इुमागने शुद्ध माग ठेखे ( गणे )

जञ अजिद्प पुन्न पावा, सव क्षेवर वंध सुख्ख निजरण॥ नेणं सदह तयं, सम्प खक्गाह्‌ बहुनेखं २५

जीव-जोवतत्व सेवर-तेवरतस् सदहर्‌-सष्े अजीव-अजीवतस्व वंध-वधतसख तयं-तेनं पुण-पुर्यतत् मु्-मोक्षतलख सम्प-सम्यकत्व पाव-पापतख . | निज्नरणा-निनरा खडइगा३-क्षायकारि आसव-आश्रवतख | जेण-जेने वहुमेजं-वहु मेदे ठे,

अ्थैः-जी व, अजीव, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर; वंध, मोर, अने निजंस नव तस जेने सदे तेनु नाम सम. करित ते दायक आदि वहू नेदे 3. १५॥ तेर्माना केटलाक नीचे बतावे ढे. एक्रविधसम्यङ़व-तख।थनी सददणा ते निश्वयसम्कख-भासानो शृ ज्ञानादिकं परिणाम

पायकरसम्यक्त-चार्‌ अतायि कषाय अने रण दृशैनमोहनीय साति धरकृतिना क्षयथी जे तल्ररुचि प्रगट ते

ओपशमिकसम्यकस्य-ए सात भतिन उपञ्ुमावे ( द्वाव ) परंतु क्षय करी शके नही,

्षायोपकमिकसम्पवष्व-ए सात भ्कतिनो जेगडो उद्य आब्यो तेवो ख-

पाव्यो बाकीनो जे उद्य नथी आभ्यो तेने उपशमाववे करी जे तत्वनी रुचि पभ्रगरे ते

, एम बीजा बेदकादि, अनेक भकारे सम्यक्त्व नाण. मोसा राग दोसो, जीण धम्मे अंतमुदु जदा खमे नालिञ्र दीव मणुणो, मिं जिए धम्म विवरीखं ।१६।

१५ मौसा-पिमोदनीय | तपरहु-अतहर्च - | णणो-्रुप्यने , न-नहोय जदा-जेम .मिच्-मिष्यास रागदोसो-रोग्रेष अन्ने~-अन्ननैयिपे [रदीषना। जिणधम्म-मिनधर्मेथी निणयम्मे-मिन धर्मने विपे नाचिरदीव-नालि के- | त्रिवरीज-त्रीपरिति अर्थ.-मिश्चमोदनीना उदय्थी जीनघमेने विपे - राग

छेन दोय तेनो काल अंतसटुत्त सुधीनो दोय ठे, जेम ना- लिकेर छमीपना मनुप्यमे अन्ने विपे रागदेष देय तेनी पठे. छने मिभ्याख ते तो निनधर्मथी वीपरितिज जाणएबु परद्षा

नाहिक्िद्धीपमा मतुप्यो नाडिषएर छाई उदर निवह चखयपे छे तेमने यन जना स्मादनी खपर नथी तेयी तेमने अन्न उपर रुचि पण हेय तेम अर्चि

पण नय तेय रीते मिभ मोहनीयवाका जीने जीनधमम उर राग पणन दोय तेमद्ेप पण्‌ हेय.

द्वे पन्चीष चारि मोनीये कटे 2, & सोत्तस कसाय नवनो, कसाय विह चस्ति मोहणीयं अण अप्पचकाएा, पचचकाणाय संजदतणा २१५

सोनस्तरसाय-सोर फए- | दुिद-(एमने भकारे 4 पाय मोहनीय - घ्यानधय वरित्मोदमीय-चासिि | पच्स्ाणाय-पला- मवने सीय~नवनेो मोहनीये सानीय पाय मोदनीय अण~अनतानुपधि सभेठणा-पज्वरन

श. -तोल कपायमोद्नीय तथा नव नोकपायमोद्नीय एमवे धकारे चारिच्िमोट्नीयना पच्च ननद ठे अनतानुवधी, अमरत्यास्यानावरणीय, प्रयास्यानावरणीय अने संज्वलन्‌ चारमा द्रेकना चार चार मेदे सोल कपाय मोदनीय जाणएवी 1१७

करोय~ङपन्माय {कपे सपार तेरो ( यायक ) छम्‌ लेषफत लीरने होय एषे जेयी जीवने सतारा परिभरपरग करवु पडे ते कषाय, तेना

प्रोष, मान, माया भने खमि चर्‌ गारे दरेछना पार बार भेद नीके मामे

8॥ अनैतादु॑धीः-जेथी अरनत संसारनी दधि थाय तेवा क्रोध, मान, माया, अने रोभ अप्रलया्यानावरणीय-जे देशबिरतिपणाने आवरे, ट्टे कांड पण विरतिना प्रणाम थवा दे तथा सवं विरतिपणुं आववा दे प्रत्याख्यानावरणीयः-जे स्वं विरतिषणं आववा दे, संञ्वलनः-प्रिसहादिकथी कांडक दीपकनीपेरे कषाय थर्‌ तरत वि्षराल थट्‌ जाय) तेवा मेद कषाय, जेथी संयममां अतिचार दृषण रागे अने शुद्ध यथाख्यात चारित्र थतां अरका जाजीव वरिसिचउमा,स पख्खम्गा निरयतिरियनस्चखमरा

सम्पा सविर, दट्खाय चरित्त घायकरा १८॥

जाजीव-यावतूभीवरगे | तिरिय-तिथ॑च | सव्यवरिर-सर्गविरति वरिस-वरसलगे अहघाय-यथाखूयात चउमास~-चारमासरगे चरित्त-चाखि

पर्लग्गा-पलवाडीयालगे | अणु-अणुत्रत | पायकरा-घातकरनोर

अथेः-ए चार प्रकारना कषाय अनुक्रमे जावजीव सुधी एक वषं सुधी, चार मास सुधी, अने पदर दिवस सुधी रदे तथा पदेल्लो नरकगति, वीजो तिर्थचगति, ्रीजो मयुष्यगति अने चाथो देवगति अपावे, वी येहेलो सम्यकत्वनो धात करे, वीजा देशविरतिनो, चीजो स्व॑ विरतिनो अने चोधों यथाख्यात चारित्रनो घात करे १५

जलरेएु पुट्व। पय, राई सरिसो चञ्विहो कोटो

तिणि सत्याशय, सेल्स्थसो वमोमाणो २९॥ न-नकरखा जवो | सरिसो-सरख अद्िअ-दहाडकानो रेणु-रेतीनीरेा जेबो | चउन्विहो-चारभकारे | सन वो

पुढची -माटीनी कोहो-करोध - मोवभो-धाभराजेवो पञ्जय-परवतनी ` | तिणिसरया-नेजनी सोढी | अनवा मिला रार-रेला कह-काषट (काकडा)ना माणो-मान

१९ अर्थं -पाणीनी रेखा सस्खो, धूनी रेखा सरसो, मारीनी रेखा सरखो. तथा पर्वेतनी रेखा सरखो अचुश्मे सञ्वलन, प्रत्यास्यानावरणी, अधत्यास्यानावरणी अने संज्वलन एम चार प्रकारे क्रोध जाणवो, बढी नेततरनी सोट) सरलो, कानी घाः कमो सरखो, इासका सरसो अने पथ्यरना यन सरखो भान जाएवो ॥१९ इवे तेने विदोप जणा ठे नेम पाणीमा लीरी करीएते तरत भेगीथायदे) तेम जे क्रोपवटे जुदा एदेा मन तस्त मेगा थाय ते सपटन कोष जाणगो, पृरने िपे रेखा करीएते जेम पेटक रुदत परी पवन सजोगे भेगी मठे तेम भागे पन उपाये फरी षरे ते दीनो प्रत्यार्पानी कोप मारीनी रेखा सरसो पए्ठे रवम पाणी फाड़ मपा पटी तेमा रैटी मारी (काद) षुकाएने तेमां जे फट पदे छे, ते ज्यारे बरसाद आवे त्वारे मनी नाय 2, तैम हरे मन घणा उपाये धणे वते मे ते श्रीनो अपत्यारुयानी कोष, त्था लेम पर्वतम फाट पदी षेय ते फोर फठे मठे नहीं तेम जे भागयु प्रन कोड फते भे नी तेने अनताहु पधी क्रोध कदीपए, ह्मे मानकटेषे, लेम मैतरनी कोने ान्तां फोट मेहेनत परती नथी, तेम ने माणस् पोतानी शठ थोडा उपदेशयी शश दे जने सीय मारो चे ते सञ्यचन पान, तथां लेय पुश काटने तेलाप्रिफ चोपरो दु से नपादीये, तेम जे माणक्त घणा प्रपाते करी सोप मर्म अदे ते प्रत्ाख्पानीभो मान जाणतो तथा जे अत्फा पया कटे ्षदनी परे नमावीये, माग सन्न रगीए तेवो दु ताध्य अपत्याल्यानीय भान णाणरो अमे पत्यरनो यम फोर रते नमे नर्द तेम ले कोश्पणं उपाये षदाग्रह छदे ते अनताघ्ुयथी यास लाणयो, मायावदेदि गोमु, त्ति मिंदर््षिग घणवस्समृध्वसमा

सोदो दिद खंजण, कषम [केमिराग सारिथो ॥२०॥

१० भाया-माया मिटसिग-वेटाना श्ीगडा | रखिद-हन्द्र अवेहि सनी छोर सरखी | खंनण-सरावरानो मेर | सरखी , | घणवंस-कटण वासना | कदम-गाडानी मी गोषुतति-व्दना मूतरनी | प्ररसमा-मूढसरली | किमिराग-करमननो संग रेखा सरली रोहे-लोम सारिभ्यो-सरखो अथ॑ः-माया अनुकमे वांसनी गेल सरखी, वकछरद्‌ मुतरे तेन) रेखा सरखं), घेटाना रींगमा सरखी, तथा वांना मूठ रखं। ठे, अने लोन दक्र दरना रग सरखो, सरावलाना चीकणा मेल जवो अथवा नगरना खाढना कादव जेवो, गासानी मढ १७. [ ७, ७, च, [कद्‌ जेवो अने कोरमज। रंग जेवो ठे. ॥१०॥ तेने विदोष समजा वेढे वासनी छोल वांकापणुं सेहेन हाथ फेरववाथी जतं रहे ठे तेम संज्वरनी माया खुद्धेथी टी शके ठे, तथा वन्द्‌ चालतां चारतां शुतरे तेनी बांकी चुकी धार जमीन उपर थाय ड, ते ज्यारे सुकाय त्यारे जती रहे तेनी पेठे प्रत्यार्यानी माया उपाये करी तटे, तथा जेम वेरा शीगडं महामेहेनते अने घणा कटे वके तेम अप्रस्याख्यानी मायानी वक्रता महा कष्टे करीने टे अने अ्नतालुवधी माया जेम वासय मुर गमे तेटछा उपाये सीधुं याय नहीं तेमते पण टे नही. , . संज्बलनो रोभ हन्द्रना रंग ॒जेषो 3, एटछे इव्दरनो रंग जेष धोतां बार ते उतरी जाय छे. तेम संज्वलन लोभ धनादिक उपरनो राग ) थोडी मेदेनते जाय छे. तथा सरावखा महिनो मे जेम वणी मेहेनते -जाय छे तेम भरत्याख्यानीओ खोभ सद्गुरु आरिना घणा उपदेश्चथी घणी मेहेनते जाय, तथा गाडानी मरीनो डा जेम महाक्ष अने घणी मेहेनते जाय ठे तेम अप्रत्याख्या- नीओं कोभ महा मेदेनते अने घणे उपदेशे तथा युक्तिए करी ठे उ. अने कर्‌-

मजनो रंग जेम गमे तेगा उपाये गडुं फाटी जतां सुधी पण जाय नरीं तेम अ्नेतायुवेधो लोभ कोई उपाये ओदो थतो नथी,

जस्सुदया होई निए, दार अरर सोग नयकुत्ना सनिमित्त मन्नदावा, तं इह दासाई्‌ महणं ॥२२॥

२२

जस्षुष्या-नेनाउदयथी सेम~गरोग वा~-अथवां होऽनीए-जीवमे हेय | भय~भय तते

शस-हस्य कुन्म-दुगच्छा इद-अक्ष

रढ~रति सनिमित्त-कारणमदहित | हासाई-दास्यादि अरईु-अरति अन्नदा-अन्यथा मोहणीअ-मोहनीकर्भ

अर्थः-जेना उदयथी जीवने दासी, रति, अरति, शोक, नय अने दुगंछा वानां कारण सहित अथवा कारण रदित अन्यथा होय ते दीं दास्यादि मोदनीय कर्म जाणड़॥९१४ पुरितिध्थि तटुःनयं प, अहिलासो नव्यसा हवई तोच थी नर नपु वेड दॐ, फुफ़म तण नगर दाइ समो ॥१९११॥

पुरिस-पुरुप भमसा-जेनावशयी | एुषएुम-पोऽदाद (वररी- इध्थि-ची ६.३५ नीलीदीने ताप तदुभय-तेषे तण-~उणदाद्‌

प-त्य नस-पुरपयेद नगरदाह-नगरदाई

अदिलास-अभिलाप | वेभोदभो-वेदना घद्यथी | समो-खरसो

अर्थं -जे कर्मना वरे जीवने पुरुप, घ्री तथाते वेनी मेथुन संज्ञारूप एठा रोय ते असुकमे खीवेद, पुरपवेद, ने नपुलकवेद जाणवो तेनु तिवण अनुकरमे वकरानी लींमीना शक्नि समान, घासना जमकानी समान, अने नगरनी द्दा- यना देवतानी समान जाणद्च २९

सी वेदनरु तरियपण ते लेम वररीनी खीडीनेो सार यणीषार घुष दशे पदे नदीं तेम सीने पुरुपना स्प्शणी विषय इच्छा वधवी नाय अने पुरुपवेदूयु तिव परणु मेम घासनो भदको यदूमे एर्दम ओतवाई जाय छे, तेम पुरुषनो विष्य द्ठीनो सपर थया प्रदी तस्त समाड नाप छे अने नदुपक वेद तिनिण्य ते नेम नगर वटे अने घा दिव षी देगा ओदाय नहि तेम नमर बेदोदये थयो से विषय ते फोट रते निषटतते मही एम दास्यादि तथा तग वेद मरो नवनोकपायकका

११ सुरनरतिरि निरयाञ, हमि सरिसं नाम कम्मचित्तिसमं बाया तिनवहई्‌ विदं, ति उत्तरसयं सत्त) २२

खर-सुराथु हदिसरिसं-देडसरखो ¦ तिनवडपिद-अाणुभेदे नर-नरायु नामकम्म-नामक्मं ¦ तिऽत्तरसयं-एकसोत्रण तिरि-तिथचायु | चित्तिसम्म-चितारा जेषो ! च~वठी निर्याउ-नरकायु | वायार-तरेतारीक् ` सततदी-सदटसर

अथः-देवायु, मनुष्यायु, तिर्यचायु अने नरकायु चार नरेदे आयुः कमं ठे, तेनो स्वन्ाव देम समान ठे, अने नाम- कमनो स्वन्नाव चितारा समान ठे; ते वेतालीस सदे तथा आण न्नेदे ठ, बठो एकसो चरण नेदे पए ठे अने समसठ मेदे पए ठे ९३ जे कर्मना उदयथी जीव देवपरं पामे ते देवरायु, मतुष्यपणु पामे ते मदुष्यायु, तिथैचयणुं पामे ते तिर्थचायु अने नरकपणुं पामे ते नरकायु, एम चार भकारे आ- युःकपे देड समान ठे, एटठे छाकडानी हेदभां जने घारस्यो हेय ते .देड भार्या सिवाय नीकठे नदीं तेम आयु पूणं कया विना ते जीव ते गतिमांथो नीकरे नरी, दवे चौद पिंड कृति कहे ठे, , ग& जाई तणु उवमा, बंध संघायएाणि संचयणएा संठाण चण्ण गेधरस, फास खपु विदगगडई ॥२४॥

गई-गतिनाम संघायणाणि-संधातननाम } रस-रसनाम जाई-नातिनाम संवयणा-संधयणनाम | फापस्-स्पशेनाम तणु-शषरीरनाम संटाणा-संस्थाननाम | अणुपुन्वि-आनुपूर्वीनाम उवंगा-उपांगनाम वण-व्णनाम विहगगति-विहाये गति वंघण-ब॑धननाम गध-गेधनाम नाम

अर्थः-गतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, उ्पांगनाम, वं धननाम, सघातननामः संघयणएनाम, संस्थाननास, वर्णनाम, गंघनाम, रसनाम, स्पशेनाम, खातुपर्षीनाम, अने विदहायो-

२३ गतिनाम चोद पिम््रकृति कट्‌), पिंसथ्रकृति पटले एक कृतिमा वे चार भकुति नेगी दोय ते, २४ गतिनामः-देवादरिक गति पमबाद्च कारण, लातिनामः-पएरेद्रियादिक जीवपर्यायनु कारण. शरीरनामः-भौटारिकादिक शरीर पामवाना तथा परिणापवाना देहु, # उपागनाप'-ह्यथपा बगेर शरीरना अवयदनी पाधि यते, पथनमाप-मैषदािादिक शद्ग परिणामवातु मरके महि भोऽ. चा देह जे फे सथातननाम्‌ -जेणे करी आपणा शरीर योग्य कर्मं पुदगन स्कधनेो रानि एकटा फरीरए सथयणनाम-जेम खीटारिके करी कमाडादिषना साधा षट फरीए्‌ तेष शरोशने पपि हाड सपिद फरवाध देव सस्थान नामूकमेः-रीरनो भुम तथा अश्म आकार ते स्यान, चेच दैवत जे र्णं नापर्म~शरीर पुद्गले कृष्ण, गीरवर्णादि थवाद्र देहभूत जे करम, २० गधनामकम शरीरे गप दुपपणु थवाघु देहुभूत जे 9२ रसनाम -दरीरे तिक्तादिक रस थवानी देतभूत ले एमं गति, १२ स्यदानामः-जे फमंथी शरीरमा शीत, उप्णादिक स्पश होय १६३ आशुषएव्यी -जे फमेना उद्‌यथी यक्रगतिथो ररे ताण्या वण्दनीपेरे उतपि स्थानफरप गमाणे नीर अपरे १४ धिदायोगतिनाम.-जे फर्मो जीवने भुम रपा अथुम चाल हेपत्ते

पिंमपयमित्ति चञदस, परधाउस्सास खय वुज्ो्ं ्गुरुत्द्ुतित्य निमिणो, वधायमिखखषटपत्तख।॥२५॥ पिदपयदितति-िदपहति | आयव-मातवनाम्‌ निमिणो-निर्मणनाम

ददस्-चीद उमोम-उयरोतनाप्‌ उवयाप--उपयातिनाम परपा-परायातनाय अशरहु-अदनुनाम | इभभदर-पम भाद एस्फाप-उन्दासनाम | तिवय-सोयङ्रनाय पत्तेय-पत्येक भषति

छं -एु चोद रपिमभरकृति कटी, पराघात नामकर्म, उ-

4४

श्चास नामकर्म, सातपनामकर्म, उ्योतनामकर्म, ययुस्घुनाम & #) ^

कर्म, तीर्थकरनामकर्म, निर्माणएनामकरम, ने उपघातनामकर्म, एम परत्यक प्रकृति जाएवी. २५ परायातनामकर्मः-ज कर्मना उदययी वीना कोटना जीवये जाय उच्छ्वासनापकमः-ज कमयी व्वासोन्वास पृण करे पवा खम्ि्वेन दोय, आतपनामकम-जे कमना उदययी जीवं शरीर उप्णप्रकाश्चवान्‌ देय, उद्मोतनामकरमः-जे कर्मने उदये अनुष्ण भकारवंत जीवन्न एरीर्‌ घ्ेव.

अगुरटघुनामकम-ने कर्मना उद्यथी जीँ शरीर अतयत स्पृ पण देय तथा अच्यत कृश पण नटोगयते

तीयकरनामकम-जेना उदयथी तीधकर प्रवी खेत,

निमौणनापकर्म-जे कर्मना उटययी शरन जवयवो योग्व स्थे गानाय,

उपथातनामकरम-जे कमना उदयथी पोताना अधिके तथा यदे अगे करी पीडा पाम आर प्रत्येक प्रकृति कटी

तस वायर पत्तं पत्तेयथिरं सुं समनमच॥ सुरा इजी जसं तस, दसगं थावर दसं तु इमं ॥९६॥

तस-तरस्नामक्रप सुभ युभनामरक्रम ¦ तसदसग-जपददक -वादरनाय युभगच-~-पोभार 1 वाद्र-वाद्रना सुभगंच-पोभाग्यना० | यावरदसे-स्थाबरदथक पञजंत्ते-पयोप्रुनाम सुस्सर-पुस्वरनाप पत्तेय-परस्येकनाम जइन्ज-अआदेयनाम ! एक पिर-स्थिरनाप जसं-जशनाम | इम-अआमरमाणे

अथः-त्रसनामकम, वाद्रनामकर्म, पयाप्तना०, परत्येकना० (थरना०, युनना० सोननाग्यना०, सुस्वरना०, अदियना०, य- राना०, चसद शक जाणवो अने तेज प्रमाणे स्थावर दरक करेवारो.

चप नाम्‌ कमः-जना उदयथी चस सरीरनी भाप्ति यायत

बाद्‌र्‌°-जेना उद्यथी वार श्ररीरनी भासि थायते - प्रयाप्त -जना उदुयथी पाताने योग्य आरमेटी पथोनि पूरी करे ते

प्रतैफनापरमं -जेना उदययी साधारण शरीर गुरी पेताना एकश्ररीरमी खामी थाय, पु स्िरनामकर्मः-जेना उदुययी दात हाड परष्व दद वय हेय ते, युभनाप्कर्म-जेना उद्यथी नामि उपरनो भाग घुदर देय ते, सैमाग्यनामयर्मः-नेना उद्यथी नोव, उपकार क्याविना तथा सवधरिना पण सौने परिय गेत. छस्वरनामकर्मः-जेना उदयथी घणा मधुर खरनी मापि याय तते आदेयनामपं -ने फर्मना उदये जीवतु बचन सौने मानवा आद्रा येग्यदोवते १० यश्नामकर्म-जेना उदययी जीवनी यशरीसिं सर्मुन परी नायते

थावर युहुम अपज्ञ, साहारण अयिरञ्घुनछनगालिप दुस्सर अणएादजाजस, मिखनामेसेखरावोसं॥ २७ ॥-

यविर-पातरनापम्‌ , अष्ठभ-अशमनाप इअनामे-एनामे =

हुष-घुहपनाम दुभगाभि-रौमौम्पनाप्र | सेयर -इतरसदित ( स~ अपल-भप्यापतनाम दुस्सर-दुम्बरनाम इरा) सादारण-साधारणनाम | अणाडन-अनादेयनाम दीस-बोष अपिर-अस्यिरनाप ¦ अजत~मय्ननाप

छर्थं -स्थावरनामकमं, सृह्मनाण्ययपयीसना०, साधारः- शएना०, अयिरना०, खद्युन्नना० दौनंस्थना०, दु स्वरना०, श~ नादेयना०, श्ययश्षना०, स्यादर दशक इतर धरसदशक ) सदत गणता वीत प्रकृति य, रते १४ पिमप्रकृति, परस्येक प्रकनि, १० च्रसदशचक अने १० स्थावरदशक मदी नाम कर्मनी ४९ भरति धऽ २७५

स्यावरनापप -जेना उयथी स्यार दरीली भाति धायते पहपनापपर्मं -नेना ददययी यणां शरीर मे छते पण मवि देखोय मर एवा शषगीरनी प्राहठि यायते अपयाप्तनाय -जेना उदयथी स्वयोग्य परयाहि पुरी फणा पिना मरण पमे,

0

~ र्थः-गति शादि चोद पिमकरतिना श्नुकरमे उच नेद कद ठे गति चार दे ठ, जाति पांच नेद 2, द्रारीर पांच ननेदे ठे, उपांग चरण सेद ठे, बंधन पांचनचेदे ठे, संघातन पंच तरेदे ठे, सवयण॒ मेदे ठ, संस्थान जेदेठे, वणं पाचने ठ, मधवे चेदेठे, रस पांच चदे ठ, स्पर्म आठ चेदेठे, ्ा- मुपुट्शं चार चेदेठे, विद्यो गतिवे चेदे ठे एम चद पिस प्रकृतिना स्वं मली पांसठ मेद थया.

पम्वीस जुञ्ा तिनवर्‌, संते वा पनरवेधणे तिसयं वंधण॒ संघाय गदो, तण साम्य वण्य॒ चक ॥३१॥ अदवीसञ्चमा-यद्टावीप्त | पनरवंपण-पदसवंधन गहो-ग्रहण

मकृतियृक्त , ` तिसयं-एकसोत्रण ¦ त़ष्ु-परीरसाये तिनवड्‌-जाणं वधण-रव्॑यन , सामन-सामान्यपणे भ, $ वा-अथवा , सधाय-संवानन , वण्णचउ-वणचतुप्क '

अथंः-डपरनी पांसठ परङ्रतिने पराधाताद माठ, च- दाकादि ददा, अने थावरादि दद ) अष्टावीसर प्रकृति युक्तं करए तेवारे नाम कमनी चाण घ्रङ्ति चाय. (आ त्राणं भ- ति एकसो असतालीस ्रकृतिनी सच्चानी अपेक्घाए समजवी ) अथवा पांच वंधनने ठेकाणे पंदर वंधन गणीए तो एकसो त्रण याय, ( व्यारे पिम प्रकृतिना पांसठने ठेकाणे पंचोतेर नेद थाय

. अने स्वं मठी एकसो अष्ठावन प्रकृति सत्ताएु थाय ). द्वे ` नामं कर्मनी ससंसठ प्रकृति केवी रीते श्राय ते कटे ठे. पंदर वंधणए अने पांच संघातन वीस प्रकृतिनुं दण पांच शरीरे विपे करतां पंदर श्रदति यदी थाय तथा सामान्यपे वर्णं च- व॒प्क चार मणीषए तो ( एटले, चारना उत्तर नेद चरीस

२९४ थाय ठ, तेने उेकाणे चार गणता ) सोक भक्ति ओढठी रीति एकसो त्रणमाथी उत्रीसत प्रकृति खटी करतां नामक- मनी शेव समस्त षडति र्दी ३१ शख सत्तष्टी बंधो, दए नय सम्म मीस्तया वेध वैघुदए सत्ताए, वीत वीसऽ वण्णसयं ३१

इथसचटी-एम्रसट ! सम्म-समक्गित मोहनी अने सत्तायै मपोदएम-यध, उदय | मिसया-मिधमोहनीने | वीप-एकसोवीस

अने खद्रिरणा | यो-पय दुवीत-एकसोवावीषत नयन षेय वधुदरएसचापए्-पय उद्रय- अहवनसय-पएरसोथष्टामन

अर्थं -ए उपरनी समस भञति वध. उदय अने उदी. रणानी अपेक्षाये रोय; तेमा पण सम्यक्त्व मोद्नी थने मिध मोदनीनो वध दोय मारे वधे एकसोने वीस, जदये एक- सोवावीस शने सत्ताये एकसो अषछठावन शक्रेति दोय ते नीव प्रमाणे ३९ 118 निव° दनय

अबु गो्रुमतरायु रं २६ | ४६७२ १२५ २८ | | ६४७ [2] | १२० सत्ता २{ २८ ( ४१०३० { १५८ ९३ संमभ्यकत्व यहनी तया पिश मोहनीय पेनो यध फारेणके ते धेषु दल. मि्यातव मोहनी छे तेदु शुद्ध, अदं शुद्ध सवसयते समक्त अने मि्रमोदनी, मदि यथ पष प्रध्या मोहनीनोन होय यने उटयपां श्रण होय नस्य तिरिनर सुरगर्‌-दग विख तिञख पणिदिजाश्ो मोरा विखन्यादार, तेख कम्मण पण॒ सरीराः(पा्ठातरे) छररालिय वेखोविय, याहारगे तेख कम्मरगा ॥३३॥

२४

-नर्य-नरकगति , वीथ-ेदुद्रिजाति विरव्य-भक्रिय तिरि-ति्ैचगति तिअ-तेुद्िनाति लर-मलुष्यगति ` चउ-चैौररिष्रिनाति सरगई-देवगति पणिदि-पचेद्रिजाति | पण-परंच

हग-~परद्रिजाति ओराट-ओदासिि सरीग-शरीर नाम,

र्थः-नारी, तथैच, मनुष्य खने देवता चार गति ए, वेदय, तेर्यि, चोरय खने पंचेंदधि पांच जाति; पीदारिक, वैकरिय, आदारक, तेजस अने कामण पाच शा रीर ३३ दीं गतिजातिनो अथं सुगम ठ. तेथी ते विरोषे नदीं लखतां शरीर कदे ठे

ओदारिकः-उदार एटटे स्वं॑शरीरमहि प्रधान, कारण के, ते श्ररीरषदे

मक्ष साधी शकीए, तीर्थकर गणधरादिनी पदवी मोगवीए, ते भारे ओदारिक, ते शीर मलुष्य तथा तियंचने दोय

वेक्रियः-जे शरीर नातं मोड अथवा सारं खोट यड्‌ शके ते वैक्रिय, तेषे प्रकारे 3 (१) भवपल्ययी एटटे ते गतिमां जे जीष उतपन्न थाय तेषं

शरीर वेतक्रियज रोय, ते देवता तथा नाखीने रोय. (२) रुव प्र्ययते रष्धिव॑त मसुष्य तथा तियैचने रोय

आहारकः -तीयेकरनी ऋद्धि परख जोव्राने चद्‌ पूर्वर युनिराज धडा हाथ परमाण शरीर करीने तीरथकरनी पासे जनायते

वेनसः-सधेका आहारने पचावधानी शक्तिवाद्धं तथा तेनो ठेश्यानिर्भम देतु, कामणः-कमं पुद्गर मिधित ते कर्मण शरीर,

बादू रु. पिष्टि सिरञर, जपरंग उवंग अंगुली पदा सेस्पंगोवंगा, पठमतणएु तिगस्सुवंगाणि ३४॥

वाहु-युजा उअर-उदर सेसा-वाकीना उर-साथल अग-ए आठ अंग अंमोषेगा-अगोपांग पिष्टि-षीठ उर्वेग-उपांग तणुतिस्स-त्रण शरीरने सिर-माथुं अंगुरी-आंगनो

| उ्वगाणि-उषांग आदिदोय उर~ -पयुहा-पषुख |

३१

अर्थं -वे जा, वे साथल, वासो, मस्तक, आती भने उ- दर आठ अग ठे, तेना दाथ, पग, आगढठी्ो, वेढा धमुख खपांग ठे छने वाकीना पर्व, रेखा, नख, रोमादिक अगोपाग 3 ते, भथमना व्रण इरीरे टय, खीदारिक शरीरे यीदारिक अगो पाग, वेक्रिय शरीरे बे्रिय शंगोपाग अने आदारक शरीरे आदारक ्गोपाग कदीये २४॥ उरला पुर्ण, निवड बज्छतयाण संवधं जं कुण जज सम तं वधण मुरलाद्रं तएु नामप३५॥

उरखाई-यैदारिकादि | सरध-जोटे यथण-यथन नापकर्पं पुणखाण-पृद्गनने ज-जे उरखाड-योदारिफादि नियध-पू वप्रे | इणड-फरे तणुनामा-पाच दारी पुञक़्-(हमणां) यधात्ता | जरउसपम-राख-ररसरपु मामे तपाण~तेनी साये ते~ते

अथे-सीदारिका2 दारीरना पुद्गलने पेदेलां चाधेला थने द्‌एल वधाता तेनी साथे सवध करे, एटले जेम लाख थवा राढ वे वस्तुखोने सम जोमी दे 2, तेना जेदु ( ताना जेवु) वधन नामकर्म ठे ते ोदारिक वधन, (क्रिय वंधन बगेर पाच श्रीरमे नामे जाणबु २५

हये मधातननाम कफे

सघायश्ठरला, पुग्लत्त तणगणव दता ते संघाय वधण॒, पिवतएु नापरेए पचविद ३६ ज-जे सणगणद्-त्रगना समूद | सपाय-सथानननाम संपायद्-एफदो करवां ध्ये | पथणपिद गपगनीयरे उषणा-परौटारितादि | यदेनादी-नाननो पठे ¦ पुनामेण-दरपीण्नापे शु-पुदूगर भपय तव-ते पनरि-यंचमण्त

३९ र्थः-ौदा(रेकादि पांच दारीरना पुदगल प्रत्य, दं ताली जेम त्रेणना समूने एकठो करे >, तेनं। पठे जे कम एकवां करे ते संघातन नाम कम जाएं अने वंधननं) पेठे तेना पण पांच रशारीरने नामे पांच सेद ठे॥ ३६॥ जे कर्मना उद्यथी जीव ओदारिकादिक पुद्ग मेवे ते ओदर संघा- तन्‌ अने जे कर्मना उदयथी जीव ओदारिक पुद्गर मेच्वी शरीर वाधिते ओदारिक वंधन एम पांच श्ररीरयं नाणी खें

पररा विङव्वाहा, रयाणं क्षगतेख कम्मजुत्ताणं

लव बैधणाणि इर, दुसहिञ्णि तिन्नि तेसिच ॥३.अ ओराल-ओदारिकि तेअ-तेजस साथे इअर-इतर ` विउव्व-येक्रिय तथा | कम्म-कार्मण साये दु-पेनीसाये आष्रयाणं-आहारकने | जत्ताणं-युक्त करतां सदहिभाणि-पहित करतां सग-पोतपोतानी साये | नववेधणाणि-नव वंधन | तिल्नि-त्रण जण वैधन - जोडतां थाय तेसतिच-तेमनां अ्थः-ओोदा रिक, वेपिय अने आहारक एः चरणने पोत कि (. [| > पातान्‌) साथे जोडतां चरण वंधन थाय यने तेजस तथा. कामण साथे जामतां बीजां थाय ( एटले नव धया ) अने तेञने तेजस तथा कामण साथे जोहतां वीजां थथां एटते सवं मठी प॑द्र बंधन धयां ३७३

ओदारि ओदारिकवैधन, वैक्रियवेक्रिय वधन, आहारक आहारक वधन, अरणने तेजस अने कार्थण्‌ साथे जोडा, ओदारि तेजस वधन, ९५ येद्रिय तेजस बंधन, आहारक तेजस वधन, ओदारिक कामण वधन, वेक्रिय कामण वधन, .९ आहारक कार्ण वधन, हवे छने तेजस तथा कामण साये जोडतां, १० ओदारिकि तेजस कार्मण वधन, ११ वेक्रिय तेजस

कर्मेण वधन, १२ आहारक तेनस कर्मण वधन, १३ तेनस. तेनस वंधन, १४ तेनस कामण वधन; १५ कार्मण कामण बंधन,

६३ ह्वे संघयण्‌ कदे 2े # संघयण मि निचय, तं ण्डा वज्ञरिसह नारायं तद्य रिसद्‌ नारायं, नारायं अदनारायं २८॥

सधयण-~सघयणते रितिहनागय कऋषपमनारच स॒र्हनराय-

अहटि-अम्थिनो पम नाराच | नराय-नाराच -

निचभ-समृ तद्य-तेमन अद्नाराष-~अरददनागन्न

अथं -द्ामकानो जे समूद ( मेठाप ) तेने संघयण क- हए, ते प्रकारं ठे (९) वजछपन नाराच, (2) ऋष्ननाराच (३) नाराच, @) खर्डनारष्व, ॥३०५ सधथण एटते साधाना वे दास्कातु जोभाडते यञूनपम नाराच सथयण-जे साधापा पासे भरट वथ दोप ते उपर कपे

एट्छे हादनो पाने ते उपर ते जणेने भेदे एदी वजसोली, एवी रते ने सदयण जोडरएकां होय उधभनारच"~उपरना करता वत्र ( सीरी ) ओग दयते, नाराच~पाटो अने सीरीये हेय अर्षनारचः-जेमे एर एसे मयध अने एर पसे खीगी हेय ते कीलिख देवष इद्‌, रिसदो प्रे कीक्तिखा वज उन्म मक्षमवंधो, नारायं हमस॒रालेगे ३९४१

फीलिथ-कीलिका परीरीभा-खीरी स्पते | नाराय-नाराच छेषह-छेवड वज्-वर्जनि इप~ए सघपण दइह-अरहीभा उभ्मयो-उ पासे उरार्गे-गौदारिक श्ररैर रिस्ेष्रो-पम ते पाये | मकडपयो-मरकदषय हेय,

अथः-(५) कीलिका सधयण (६) ठेव संघयण. अद्धि श्रषन्न ते पाटा सरु दाम समजडुं अने खोलीरूप ते वजर स-

"~~--------------------------<-------------~-=----~

कही नेम्‌ फोताना षयाने पेटे बन्गाटे छे तेप

२४

मजदुं, अने वे पासे आंकमा नराववा तने मकैटवंध एटले ना- राच करए. संधयण अदा{रक रारीरे दोय ३९ 1 कीलिकाः-ज्यां राडसंधिमां एक खीटी माच दोय, छेबटुंः-ज्यां हाड फक्त, एक वीजाने अहकीने रहं रोय,

हवे ते संययणनां संस्थान दोय माटे संस्थान कदे क, समचञरसं निग्गो, साई सुजा वामणं हुं» संठाणा वष किण्ट्‌, नीत्त लोहिय हलि सिखा ॥४०॥

समचउरंसं- समचहुरस् | वामणं-वापरन | नीट-नीटोवण निमगोह-न्यत्रोष हैडं-दंड रोरित-लाल्व्ण साइ-सादी संठाणा-संस्थाने [मकम | हचिद्र-पीतव्ण सुन्ा-इन्न बण्णकिण्द-कृष्ण चर्ण ना-। सिआ-शवतवर्ण

अर्थः-? समचतुरख, म्य्ोध, सादि, कुव्ज, ५वा-

मन अने दुम णए संस्थान जाएवां इवे पांच वणं कंडे ठे

ष्ण (काटठो) ब, नील (नीलो) वर्ण, लोहित (लाल) वणे,

दक्िद्‌ ( इछछदर जेवो पीठो >) बण, अने शेत (धोरो) वणे ।४०

समचतुरखसंस्थानः-पलाटो वाठीने वेठं यकं चारे ुगे सरखुं अंतर होय. ते सर्वं देवता तथा ती्करने रोय ठे,

न्यग्रोषतंस्थानः-वडना ज्ञानी पेठे नाभी उपरनो भाग मानोपेत अने नाभी नीचेनो भागं दीन होय,

सादिसंस्थानः-नाभी नीचेनो भाग पानो पेत अने उपरनां अंग हीन होय ते. कुम्जः-जेनां छाती, पेट, अने वास्मे एरलां अंग अधम होय अने पग, दाय, मुख, अने ग्रीवादिक उत्तम होय.

वामनः-व्यां हाथ अने पग हीन होय अने वीजां अंग उत्तम होय. हुडः-जेनां सवं अंग अधम रोय, ,

सुरद दुरदी रस पण, तित्त कमु कसायञ्म॑विला महरा फासा गुरु वदु मिञ्खर, सिखष्दं सिणि्टरुकष्टा ॥४१॥

धश्दी-एुरमिगध अविरा-तयेप् खर-खर्‌ (अरसट) दुरधै-दुरमिगथ महुरा-परघुर ~ सी-शीत रसपण-रसपाच फोपा-स्प्ं उ-ई-उष्ण तितिक्ष गुरू-भारे पिमिद-रप् (लो) कडु-फटुरस छहु-ख्घु (श्लको) सर्वर (दलो)

कपाय-कपायेलोसस | पिड-ृदु (कोपः) अहृ-ए्‌ आट स्प

अर्थं -गेध वे प्रकारे 2. (२) सुरनि ते एूलना सुगध सरखो ररीरनो वास दोय, (९) दरनि ते खराब" गध युक्त शरीर दोय. रस पांच पकारे ठे (२) तिक्त ते कम्बो, (१) कटु ते तीखो, (३) कसाय ते कपायेलो, (४) खाम्ते खाटो, (ए) सधुर ते मीगो. इवे आठ सपक्ष कट 3 (९) गुर ते जर, (९) छघु ते दठ्वो, ८३) खड ते कोमल,-(४) खर ते बरसठ, (५) शीतं ते उसो, (६) उष्ण ते उन्दो (७) (िनिम्ध ते चीकणो, (८) रष ते बुखो ॥४१॥ प्रमाप जे जे स्प युक्तं दारीर दोयतेते स्पशं नाम कये.

वणोपरिनी बीस पति मदि यम भगुम केटी ते षे ठे

नीह किणं दुगधं, तित्त कमु गुरं खरं सुखं सीख असुह्‌ नवं, इ्कारसतगं सुन सेसं ४२॥

नीर-नीगवगै धर-एरस्प्शं अघुह-अशूम छे

2 किण-कृप्णवणे खर-खरस्पथ इफारसम-अगिभाष इगप दुर्ध सुरक~रकषस्पद भुम

तिच-तिक्त, फदवो सौभक्-पीतस्प् शव फडुभ-फ़ड, सीस मदग-नदे प्रहि

अथै"-( उपरनी वणं चतुप्कनी बीस भकृतिमाथी ) नीष्ठ शने कृष्ण पु बे वर, छुरलिगध, कर्षो छने तोखो षे रस,

३६ युर, खर, श्ट थने शीत चार स्पदा, पम नव परक्रति अशन जाणएवी, वाकी अगी्ार प्रकृति शु ४१ हवे आसुर्व्यी नाम कमं कदे ठे, चञ्हगस्वणुपुी. गद्‌ पुविदुगं तिगं निखाजजुखं पुति उ्दञ्पो वके, सुद्‌ सुद्‌ वसह विहगगई ॥४६॥

चउह-चारभेदे निआञजुअं-पोताना | सृह-युम

गव्व-गतिनीपेरे आयुसहित करतां | असुह-अशुभ

अणुपुव्वी -आणु पूर्व्य | तिगं-नरिक थाय वस-टेपभ नाम छे | पुन्रीउदओो-आयुपूर्व्वी- | उद्र-उट

पर्व्वी दुग॒ | यक्रे-वक्रगतिये दोय नाम त्‌ (६ £^ (6 अ्थः-चार प्रकारे गतिनी पेते अनुपरतं ठ. ग।त अने च्ुपूर्वी मीने {छक कदेवाय, यने तेमां आयुप्य मेलवतता खणुपूठर्ी त्रिक थाय. अनुपू्व्वीनो उद्य ते विथद्‌ गतिये दोय. वकछदन पेतरे श्युन अने ंटनी पेठे अद्यु चाले एवे ध- कारे विदायागति नाम कदीए ४३ आलुपुव्यौः वक्रगतिये एक गतिमांथी बीजी गतिमां जतां नाथवडे वच्दूनीपेर खेची नियमित रस्ते द्‌ जनार, ते चार भकारे छे नरकासुपू्व्वी, तियैचातुपूव्वी, मतुष्यातुपूर्न्वी, अने देवालुपूर्वौ. अनुपूर्व, गति अने. आयुष्य तरणे संवंधवान्नं ड, तेथी ज्यां द्विक करे त्यां गति अने अनुपूर्वीं छेवां अने त्रिक कहै यां आयुष्य वधारी. लें, जेम नरकष्टिक, एटठे नरकनी गति अने नरकनी आणु

पूर्वी, अने नरफ निक टले नरकगति, नरकनी अणुपूर्वी अने नरकायु एम चार गति आभ्री नाणी खेषु.

इवे आट प्रत्येक कृतिव स्वरूप कटे छे, प्रधा उदया. पाणं), परि बलिर्णंपि दोर्‌ दु्रेसो बसरतसिण बद्भिजुत्तो, हेद्‌ ठसासनामवसा-\॥ ४४

गद्रुच्िदुगं-गतिभाणु नो उदय | व्िहगगई- विहायो गति

६२

पर्वा-परायातना दोई-देय ( पशं) उदया-उदयथी दुदरिषो-दु"े जोत | दृवई-हौय

पाणी-प्राणी योप्य होय उषासनाम-उन्राठनेाप्र परेसि-वीना उससिण-ासोध्वाष कर्मना

वलिणपि-यकवतनेपण | उदधिज्तो-रुच्ि युक्त- | वसा-वरोकरीक्षेय अर्थ.-पराधात नाम कर्मना उदययी पराणी पोताथी

घक्ठवाकछरा वीज जनो वस पण जीतावो दुप्कार थ्‌ पमे य-

थात्‌ तेने जीती शकाय नह अने चासोश्वासतु पमु ते -

च्छसमामकर्मना वदो करी दोय ४४॥

रवि विवे जिखगं, ताव जख ख्यवार नञउजसणे

जमुस्तिणए फासस्से तर्द, लोदिय वण्णरस दज ५९४१ रवि्रियेऽ-सूर्यिपनेगिपे | आयवाउ-भातपनादये ष्ण स्प्दनो उदयं निअम-(रलना) जीवश | नउजलणे-अग्निना शरीरे | तरदि-ते अग्निना प्ररीरेठे अग रोय | छेद्टिमवस्स सोताव्भनो तावञ्ुय-~ताप्युक्त | जघमिणफासस्स-जे मारे | उदउत्ति-उदय छै, ्र्थ-रवि मस्कमा चादर अपयोषा रत्ननए जीषनुज व्यंग ताप युक्त एटले चौजाने तापकारी यायत. ते आतप नाम कर्मना उदयथी तेवो आतप कर्मनो उदय अग्निकायना जीवने नथी केभके तेने तो उष्ण स्पशं अने लावो सदयं ठे ४४य्‌ 1 र्वमरण्नो जे भाद अष्वे ठे, ते प्रमातर विमानपा रेखा रलोनो >, ते प्रन यादर पृध्वीराय ठे अने स्पते शीत 2, परत तेमनो पराशर ताप उपय कारण फे ठेमने आतप नाम फनो उदय छे ते प्िपाय उीनाने हेय नही यही शस फरेफेप्निनो एगो प्रणशछेण्तोतेनु फेपण् तौ उत्तरे अग्न परीग्ज उष्णे, पट्टे तेने उष्ण स्प नाप पर्न उदयदे तेषीतेने श्यं करत अथा पामे जत वाप खगे) परु दर्थ खाने नदी

२५ पएुसिण पयाससूवं, जिखंगमुज्ञा अचे६ दुजोख्ा जश्टदेवुत्तर विक्किख, जोद्सखजोख माव ४३

अणुसिण-शीत ` उजोभ-उग्ोतनो उदय ¦ यरूप करमां पयासस्वं -पकाशरूप, | जई्‌-यतिने जोडस~ज्योतिषी निथंगं-ने जीवं अंग | देव-देवने | खजनोअमाइव्व-खग्रोत उन्नोभ-उनरोत (करे) | उत्तरविकिय-उत्तरधैकरि- | आदिनीपरे

एष्ह-ए अर्भां

अथंः-द्वे जयोतनाम कदे ठ- जे जीवनुं शारीर उष्ण नदीं परत शीत परकाद्यरूप जयोत करे ते अदी्ां उयोतनाम कर्मनो उदय जाणएबो. ते चदय यति अने देवताने उत्तर वै ्रिय रूप करतां दोय, तथा ज्यो (तषोने विमाने खचोत खगीओो फूढां जेवो जीव) खादिनं पेरे शरीरे उ्योततानो उदय दोय।४६] गं गुरुन दुखं, जाय जीवस्स सगुरु लदुउदयाध ति्वेण तिदुखणएस्सवि, पो से उद्रो केवल्िणो०॥

अगं- शरीर अगुरुखहु-अगुरुलघुना | तिदुअणस्सत्रि-जण थुव- नगुरु-नदींभारे उदया-उदयथी दोय नने पण नटहअ-नदीदच्तुं तित्येण-तीयकर नामं पु्ो-पूजनीक जायई-दोय कर्मना उदयथी | सेखदओ-तेना उदय जीवर्प-जीषने केवरीणो-केवरीने दोय

अथः-जे शारीर नारे पण नदीं तेम इच्छं पण नदी, तेवं शरीर जीवने अगुरु लघुनाम कर्मना उदयथी दोय, अने त्रण चुवनने धिषे पजनीकपणं तीथकर नामकमना उदयथी होय तेनां उदय केवल कानीनेज होय (ते केवढङ्ञान उपनेज थाय पण॒ बद्यस्य पणं डाय ) ४७

खगोवंग निञरमिणं, निम्माणं कुएदर सुत्तदारसमं

३९४ उवघाया उवह्म्म््‌, सतणुं अवयवल्त॑वि गाईदि ॥४५॥

अगोवग-भगोपामन्ु मुत्तश्र-युतार सतणु-पेताना श्रीरना निभमिणननियमित सप-सरसु अवयप्र-अवयवेकरी निम्पाण-नि्ीण नामकरमं | उवपाया-उपयातनाम | ठव्िगाहि-पटजीमी सुणई-करे उवेदम्मई-हणायं आरके फरी

अर्थं -निमीणनामकमं शरीरना आअगोपाग नियमित (पोतपोत्तानी जग्याए ल्ाववानु ) करे ठ, ते नामकर्म सुतार सर जाए उपघातनामकर्मना ऊदययी पोताना शरीरमा अवयव जेवके पमजीन्नी चोरगत आदिके करी पोतेज रणाय

पीमाय॥ ४८५॥

हषे प्रसाद दश परति कदे ठे वि ति चज पणिदि तस्सा, वायरखो वायराजिखा थूला नि नख पत्ति जु खा, पत्ता लङ्‌ करणेहि ॥४९१

गित्िचर-षेष्टि, ते उद्रि, | बायसा~वाद्र जुभा-~युक्त सिति चौरिद्रि | जीजा-जीव पजतचा-पर्यप्ना

पणिटि-पर्चदि वृला-सून रदि-लन्धिए्‌ फरी

तप्ता~प्रपनामरर्म निभनिथ-पोत्तफोतानी फएरणेदि-फरणे फी

पायरथो दादरना उययी पजत्ति-पर्यप्नि | र्थं वेदि, ते, योरिडि अने परचेद्रिए पेदु अस नामकर्म, तथः वीजा चाठरनाम कर्मना ऊटयथी जीव वाद्र थवा स्थूल करेवाय्‌ अने व्री पोतपेतानी पर्यातिए युक्त जे जीव दोय ते पयाति नासकर्म, लब्धि तथाकरणे ननेदे करी जाणु ४८ अष्ीया पतनिनी व्यास्या पिनेय समनापै पर्यप्नि टे जोपनी शक्ति पिरेषा ते, मष्यर, प्रेर्‌, इद्रियः शासना) मापा, अने पनपयकनि. आहार्‌ परया्वि पटे जनीगने आहर सेदानो

५४ जे शक्ति विशेष ते, शरीर पर्य ण्ठ छीप्रेडा आहारने ¶चावीने शरीर वांधवानी जे शक्ति विरेषते, एमछषए पर्यप्चि जाणी ल्वी; ते पर्याप्चिमो एेद्रियने चार होय छे, विकठेद्रि तथा असनी पर्चद्रिने पच दोय छे अने सनि पचेद्रिनि होय छे, ते महिनी पोतपोताना जेटटी पर्या्षिभो दोय तेव्छो पर्या- ्रिमो पुरी कयौ विना जे जीव मरे नदी, ते पर्ति नामकर्मना उदयथी होय,

पात पेतानी जेटली पयाति होय तेव्टी पया्षिमो जीव्‌ उतपत्तिना पथम समयथी साये आरभे, लार्‌ पी आहार प्थीप्ति एक समये पूर्णं करे, ते पी अंतर पृतं शरीर पर्था्नि पूणं करे, ते पडी ओदर शरीरवागे अंतरयुहत्व

हुत्तने आंतरे वाकीनी चार पर्य्नि पुरी करे, अमे चैक्रिय तथा आहारक शरीर- वामो समय समयने अंतरे पूणं करे, आगटी वे पयौमि सुषम छे. तेथी कालन फेर थाय, जेम जणीञो कांतनारी साये कात्वा बेटी तेमां जे जाडं कांति ते वेदं कोकडं पूरं करे अने सुक्ष्म कति ते मोड पुरं करे.

हवे ते आरंभी प्ाप्निभो पूरी क्यौ पी जे जोव मरे ते जीव र्न्ि पयीप्ो कहेवाय, तथा करण एररे आदार, शरीर अने इद्रिय बण पर्याप्ति पूणे थह नथी त्यां सुधी तेने करण अपयाप्ो कदीए अने चरण पुरी थया पी फरण पर्याप्तो करीए, अथवा जे जे पर्याप पूरी नथी करी ते तेनी अपेक्षाये फरण अपयोप्तो अने पूरी करी तेनी अपेक्षाए करण पर्याप्तो कदीए. अने जे कमना उद्यथी आरंभेडी पयसि पूरी कय विना जे जीव मरे ते रुष्धि अप्वा प्तो कदेवाय, ते अपर्याप्ता नाम कम,

पत्ते तण पतते, उदञ्ेणं दंत अषिमाई्‌ धिरं नासुवरि सिरा सुर, सुजगाञ्पो सघ जण इषो ॥५०॥ पत्तेअतणु-पत्येकुं जूदं | अषहिमाइ-अस्थिओंदि | सभगाओ-सौभाग्यनाम- शरीर | धिर-स्थिर हो कर्मना उद्यथी पतते भ्ये नामकम | नायुवरि-नामि उपरनां शव्बनण-स् जणने

उदपएणे-उदयेकरी सिराई-मस्तक भादि | इटो-इष्ट, षष्टभलागे द॑त-दाति | सुदं-धम होय

अर्थः-जेना उदयथी जीव एक शारीरने वषे उन्न थाय, साधारणएपणं पामे ते भ्रसयेक नामकर्म कहेवाय. जेना उद्‌.

७४१

यथी देत स्ति वगेरेनो वथ स्थर दोय ते स्थिर नामकम. जेना उदयथी नानि ऊपरना मस्तक वमेरे अग सारा दोय तथा तेना स्यन्ञे कोद अप्रिति पामे नदी ते द्यु नामकर्म, तेनाथी वीपरित ते अलुन्न नामकर्म॑तथा जेना उटयथी तिना कारणे सई मयुप्यने पण प्रिय लागे ते सौनाम्य नामकम तयी

विपरीत वे दीतीग्य नामकर्म कदीए्‌ ५५॥

सुसरा महुर सु श्ण, आश्टजा सल्लो गिज्छवसो॥ जसो जसकित्ती्ो, थावर दसं विवज्तीध्य ५९ #

भुस~ष्वर आडला-भादेयना० नसभो-जक्षनाण्थीिय

जसफिततीभो-यककीि महुर-पीभे सव्वरोभ-सवंखोकने चाल सद-षखनाई गिच्ख-ग्रह्वायोग

विवज्नप्य--वीपरित अर्थ शुणी-प्यनी, स्वर वओ-वचनरोय नाणवो

अर्थ.-मधुर खने खुखदाद ध्वनी ( सुर दोय ते आव्सु सुस्वरनाम कर्मना उदयथी दोय, नवमा आठेय नाम कर्मना उद्यथी जेनु वचन सर्वं लोकने माननीय एटले मृद्ण करवा योग्य दोय जेना उदयथं सर्व ठेकाणे यद कीरिं सरे ते दन्ञसु यरानाम कर्म अरसटदरक माम कर्म प्रकृति जाणवी तेथी वीप रीत स्थावर दश्चक नामकर्म जाणएवु ५१॥ मोम-गोज नामरम शरपद-सारा पदा जेदु | लामे-लामातराय

दुह-पे भदे शुमलाइय-मदिसरिना | भोग-मोगतराय उच -उनमौत् घडा जेतु | उवभेणेष -उपमोभांतसय नीभ-नीचेर्मात पिग्य-अतरायर््भं विरि्णिथि-यीरयीतराय

इलारुडव-ङमारनीपेरे दणि-शनातराय गोखं दु्वनी्ं, कुलाल इव सुघम युना $

ˆ विग्धं दाणे ला, मोगुवमोगेसु विरिञ्मेख ५९ अर्थः-गोच्रकमं वे भ्रकारे ठ, एक उच्चेगोत्र अने चीज नीचेगोत्र ते कनारन। पेरे घमेला सारा घमा सरखं उरगो

9

खने खरा मदिरादिनो घम्ने घमे तेना सरखुं नीचेगोत्र तथा तराय कमं पांच प्रकारे ठ. ) दानां तराय, (२) लानांत- राय, ८३ ) जोगांतराय, (४) उपन्नोगांतराय, ( ५) वीर्यौ तराय. ५९

उच्चगो्र-जेना उदयथी क्षनी, कारयप विगेरे उत्तम जातिमां तथा उत्तप करमां जन्म थाय.

नीच्चगोत्र-मिक्षक आदि नीच इन्मां उत्पन्न थाय.

दौनांतराय-जेना उदयथी सपत्र मठे थक्ते तथा दान देवानी इच्छा छते त्था शुद्ध द्रव्य छते पण दान दई शकाय नरह,

छामांतराय-जेना उदयथी देनार माणस दातार छतां तथा तेना परमां स्त॒ छतां अने मागनार उद्यो छतां पण इच्छित वस्तु मठे ते.

भोगांतराय तथा उपमोगांतराय-जेना उदयथी भोगोपभोग्य वस्तुनी प्राप्ति थया छतां तथा पोते भोगववा योग्य छतां पण भोगवाई ज्ञकाय नरी.

वीयीतराय-जेना उदयथी पोते जुवान, रोगरहित र्था ब्वान छतां पण पो. तानी शक्ति फोरवाई शकाय नदी.

ह्वे कमनी एकसोअद्वावन प्रडृति जणावे छे,

कमनी मूखप्रङति | गोत्रकमं ज्ञानावरणीयकर्म < अंतरायकर्म दशेनावरणीयकमं . | ज्ञानावरणीय वेदनीयकमं मतिज्ञानावरणीय मोहनी यकम श्ुतश्ानावरणीय आयुक्रम अवधिज्ञानावरणीय

नामकं मनपर्यवज्ञानावरणीय

थद्‌

केवटङ्षानावरणीय द्नावरणीयनीमङृति 9 चष्ुदशैनावरपय अयकषुदर्षनादरणीय अवपिदर्नवरणीय केवण्दक्ैनावरणीय

५मिद्रा निद्रानिद्र ४७ प्रचला < भरचखाफचला धीणदी वेद्नीयर्मनी 9 श्ातातेद्नीय अश्रादाविदमीय २८ मोदनीयकर्मनी सम्यफलमोदनीय 1 पमिधमोदनीय पिथ्यालवमोहनीय | अनताुवधक्रोध अभरस्यास्यानीयक्रध मरत्यार्यानीयक्रोष सञ्वरनकरोष अनताुव्पीपान अपमत्याख्यानीयमान १० प्रत्यारयानीयपान १२ सञ्वरनपान १२९ अनततानुयाधेपाया १३ अप्रस्यारयानीयफाया १४ प्रसयास्यानीयपाया

१५ सञ्वर्नमाया _ १६ अनतादुवपि ठोभ १७ अप्रस्यार्यानीप रेभ १८ अत्यार्पनीय शोभ १९ सञ्वरन लोभ

२० दास्य | ५९ रति ०२ अस्ति |: २३ शोफ २४ भय ५6 २५ दुग्ग २दे पुरपतेद += २७ येद | २८ नपुकयेद्‌

१०३ नामकर्मनी प्रकृति

नरकगति नामकम ! ति्चगति नाम ( भचुष्यगति नापर | देवगाति नाम 1 पएकेद्ियजाति नाप 1 वेदद्धियजाति नापर | तेदद्वियजाति ना < चौरिपरिय नातिन | पेद्धिय जातिना० + १० ओदारिकि शरसीरना० ११ वेक्रिय शरीर नाम | २२ आहारक क्षरीरना० £ १३ तेजह श्ररीरना० | २४ कार्थण वरोरना

१५ ओदारिक अंगोपांगना. } -& १६ वेक्रिय अंगोपागना° | १७ आहारक अंगोणंगना० १८ ओदारिक वंधनना० १९ ओदारिषफ तेजस धं- धन नाम २० ओदारिक काम॑णवं- धननाम २१ ओदारिक तेजस का- मण वंधन नाम° २२ वेक्रियवेक्रियवंधनना, २३ वेत्रिय तेजस वंधनना, २४ चक्रिय कार्मण वंधनना, | = २५्‌ वेक्रिय तेजस कार्षण वधन नाम> २६ आहारक आहारक वधन नाप० २७ आहारक तेजस वधन | नाम० २८ आहारक कामण वं- धन्‌ नाम० २९ आहारक तेजस कार्म ` बधन नाम ३० तेजस तेजप्त वंधन ना, ३१ तेजस कापणवंधन ना, ३२ कामग कार्मेण वंन्ना, |

कम्‌

वंधन्‌ नाम

+

३३ ओदारिक संघातन | नापकमं ३४ वैक्रिय संघातन नाप°

4

1

२५ आदहारफ संघातन ना. ? ३६ तेजस संघाततन नाम° |, 6 ३७ कामण संपातन्‌ ना०

३८ वजृद्धपम नाराच सं,

३९ ऋपभनाराचसन् ना,

४० नाराच संथयण ना० (मि

४९ अदधनाराच संययनना- &

८२ किरीका संपयन नार |

सेवदुं संघयणना० |> ]

४५ सपचत्‌रसर सस्थान ८५ न्यग्रोध सस्थान ४६ साट सस्थान

४७ वामन संस्थान 2८ कुञ्ज सस्थान

४९ हुड संस्थान

^

संस्थान नामकम

६.

५० कृष्णवणे नाम० ५१ नीखवणे नाम ५२ लोहितवणं नाप ५३२ दारिद्बर्णं नाम० ५४ त्वेतवणं नाम०

५५ सुरभिगंध नाप ५६ दुरभिगंध नाम०

५७ तिक्तरस नाम० ५८ कटुकरस नाम ५९. कष्{यरस नाम० ६० आम्छखरस नाम० ६१ मघुररस नाप ` खरस्पश्ं नाप०

¢

वृण नाप्रक्र्म्‌

0

¢

१० गंध नामकरमं

¢

१९ रस नामकरमं

६१ मृदुस्प्ं नाम ६४ गुरुप नाम० ६५ ठषुस्पश् नाप्र० ६६ शीतस्य नामर ६७ उष्णस्प्षी नाम ६८ ्तिग्धस्पद नाम° द९ सुकषस्यशं नापर ७० नरकाघुपुच्चीं ७१ तिर्यचानुपूल्यी ७२ मनुप्यादुपू्यी ७३ देवानुप

७४ शुम विहायोगति ७५ अशुभ विदायोगति ७६ पराधान नाप

७७ उर्ठवास्त नामपर्मं ७८ आतप नामकर्म ७९ घद्योतत नामकर्म ८० अगुहरघु नापरफ्म ८१ दी्ैकर्‌ नामकर्म ८२ निर्माण नामर्फ्म ८३ उपथात मामकम ८४ यस नामकरमं

८१ बादर नापकम ८द्‌ पर्याप नामकम ८७ भरस्येक नामकर्म

४५

\--------~~------*~ १२ स्प नामकर्म

विहया- व्वीना० गति ९५ १३ असुपूर््वना

-- ~~~ -----------~

भ्रकृति

आर भरत्येफ

-~-------- ~~ ------

८८ स्थिर नामकर्म ८९ शुभ नामकम ९० सौभाग्य नापकरम ९१ सुस्वर नामर्म ९२ अदिय नामकर्म ९३ यशो नामकर्म

९४ स्थावर नामकरमं ९५ सूप नामकम ०६ अपर्याप्न नामकम ९७ साधारणं नामकर्म ९८ आस्थिर नामकम ९९ अथुम नामकरमं ००० दौरमामय नामकर्म १०१ दुःसवर्‌ नामकर्म १०२ अनादेय नामर्र्म १०३ अयश्च नामकम २» गोन कर्मनी उगत नीचेगीति अतराय फर्मनी

दानातराय छाभोतराय

भोगातरय % उपमोगातराय प्‌ वीर्योतराय

_------------~ \-----*------ स्थद्रिरदेश्रह वद्ध

एव आठ कर्मनी १५८ प्रति

स्ह

, ४६ सेरि हर्िसपं चे, जद पिकरूतेए तेणरायाद्‌ नकुएई दाणाक्खे, एवं दिग्धे जीवोवि ५३

सिरिदरिथ-म्रीरी, मंडारी| तेणरायाई-ते रानातिकि | विग्पेण-अंतरायकरमेकरी समंएथं-ते सरयु नदुणई्‌-न करी दफे | जीवोवि-जीय (रपरा) जेद-जे दाणादथं -दानादिक पण पटिकररेण-पतिक्रुरथके | पवं-ए भकारे अर्थः-सिरि्रीलदमी तेतं घर एटते चमार तेनो अधि.

कारी ते चंमारी तेना सरसं ख॑तरायकसं कल्यं ठ. एटते-जम ज्ैमारी भ्रतिकृलथके राजादिक दान आपवानी एलाकरे पण ठते योगे दान, लान, जोगादिक करी दके एम यतराय कमे करी जीवरुप राजा पए, दानादिक करी राके नदीं ॥३॥

ह्वे आट कर्मं वांधत्राना यख्य देतु मिथ्यात्व, अषिरति, कपाय अने योगषएचारदेते आग कदेवारे परतु अही स्थृरु देतु कट

स्यां भयम ज्ञानावरण तथा ददनावरणना वंध हेतु कष

पमिणोसमरततए निन्द्य, उवधाय पञ्परोस ॑तराएणं अचासायणयाञ्, वरण छग जीञ्परो जयः ५४॥

पहिणीञत्तण-( गर आ- | पयोस-प्रदरेप राखवे आक्ञातना करवे करी दिकनीभत्यनीकताए ) | अंतरायेणं-अंतराय करे | आबरण दुगं -मे आवरण

निन्दब-भोङववे "करी | जियो-जीव

उपघात-दणवेकरी अचासायणयाए-त्यंत | जयई-उपार्जे

अथः-गुरुयादिकलुं पस्यनीक एटले अनिष्ट आचरण करे करी, गुरने ओलववे करी, दृएवे करी, भटटेव राखवे करी तराय करवे करी, अस्यत आशान करवे करी, ज्ञा- नावरण अने दशनावरणने जीव उपाजं

४५

मतिश्ुत शर पराच श्ाननी तया श्नवतनी तया ज्ञानोपयरण दुसफारिकनी मत्यनीकता ट्टे अनिषपणु, भतिकुरपयु करणु जेम हान, श्लानयतने माहु थाय तेम फरे, तथा निन्दव ए्टे जेनी पासेी भण्यो हेय ते युस्ते ओलप्त, तया जाण्पाने अनाण्यु फटेता तथा ज्ञानवत्‌ तथा प्रानोपरफरणनो उपयातं एटटे अपि शक्वारि फरी विनाश्च करता) तया तेना उपर परैप फरता, अतरम अर्चि, भत्वर धरता, तवा जाणतामे अत्राय एष्ठे अन्नपाणी, व, वस्ती, निपिधतां, वीना कार्यमा जोडता, यार्चाए रगाठता, पठन विन्देद फरता, तया प्तानयतनी अस्यत आशातना करता, मर्म उवाडो करता ए्टे दीनजावि ठे, एम करैत, अने मालदेवे फरी, तथा आचार्यं उषाध्यायने मत्सर फरता, अकारे सनाय फरता, योगउपधान दीन भणता, असन्कञाये सन्दाय फरता, ज्ञानेपगरण एसे तात्यां स्पु नीति, बदीनीति तया भेयुन परता, पग खादता, धक रगादतौ, ्ानद्रव्य विनाशरत), पिणपतो जसता, प्रानादरण रम वधाय, तेम दर्बानावरण परण दीन भत्यनीकरारिफ दोपे करी वधाय) पण पटु पिधेप फे दर्धन ष्टे वु अचकु रूल दीनी सधु तेना पचे द्रि तेना उप्र मट्‌ वितता तया सम्मति तत्वार्थ नयघक् याठानिर दर्न ममावर्याश्च तेना पुस्तफ ते उप्र भ- त्यनीफवादि समाचरतां धस दथेनावरण करम उधाय, ण्म पे आवरणना पथ त्‌ एधा,

हवे लाता तथा अशाता ेदढनीयना पपदेतुषैदटे

गुरुन्तिखंतिकरुणा, वयजेयकसताय व्रिजयटाणए स्ुओ॥ धम्माई्‌ अक्त, सायमताय विव्य ५५ गुग्भाक्ति-युम्माकते कपायाविजय~फपायने अभ्नद-उपार्ज

] सति-क्षमयेपरी जनता | साप-गतिरिशनी फरगा-हर्णाभदि दागदुभो-दानाः गुण | असाय~मध्रातप्रेदयी यप~यत प्राना यक्त | दिग्भ्य ति लोग-मपमरपोे दृदरथम्पा-द्दपर्मी परतप

र्थं -युखनक्तिये फरी, कमाये करी, करुणानामे करी, पै दि मन पाता, सयमयागे क्री, कपायने जीवे करी, गनादिक

४८ रौर करी सदत दोय, दध्म, भ्रीयधरमी ( ए्यादिक दुद्र कारणे करी जीव ) शातावेदनीय उपाजे, यने अदाता वेदनीय एथ विपरीत पणे बधे ॥२५॥

शुर ष्टे पोतानां मातापिता, धर्मीचा्य, तेनी भक्ति टे सेवा करता, षमा एदे शक्ति छतां पारका अपराधने सहन करतां, परजीवने दुखीया देखी तेयं दुःख गज्वानी वांजाधरतां) पांच महाव्रत तथा अणुत्रत निदुषण पाठा, योग एट्ठे दशविध चक्रवा समाचारीरप संयमयोग॒साचवतां) कपाय तथा नोकपायने जीतता, घुपात्र तथा अभयप्रान देत, सर्व जीवने उपकार करता तथा हितितवता, धर्मने विपे स्थिर परिणाम राखतां, बाल, षृ ग्ठानादिक्लुं याय करता, धरमैवेतने धर्म कर््यमां वर्तं सहाय देता, चेत्य भक्ति रुदीपेर करतां, सराग संयमे देशतरिरति पाज्तां, तथा अकाम निज्जरा, वारतप, शोच, सत्याद्िकः शुम परिणामे वर्पतो जीव शातावेदनीय कर्म उपा अने तेथी विप- रीत चारतो एट्ठे गुरने धरिराधतो अक्षमाये वत्ततो, निःकरुणाये परव्ततो, त्रत ठ्ई विराधतो, समाचार छोपतो, घणो कषाय उदीरतो, ृपणताये धर्मने अस्थि रपे, चेलादिकनी आज्ञातनाये, तथा श्रीक छोपतं, हाथी, घोडा, उट लने दमतां, नाथतां, अंकनां पौडा देतां, परने श्ञोक संताप उपजावतां तथा अविरति अने अहित परिणामे जीव अश्चातावेदनीय बाधे.

ह्ये मिथ्या मोदनीयना वेध हेतु कदे ठे,

उमम देसणामममः, नास्षणा देव द्रणेदिं

दंसणमरोहं जणएसुणि, चेश संघा परिणीखो ॥५६॥

[ग (क &, 0 उमगदेसणा-उन्मागंनी | देवद्व्व-देवद्रन्ये जिण-तीथकर ठे हरणेदि-ह ~ ग-साधु देशनाए | हरणेदि-दरणकसरते याण-सथु ५, र्म (५९ * [१ (व चर्‌अ-जनपरातमा ममानासणा-सन्माग॑नो दंसणमोह-द्चनमेहनीय संयादू-संघभादिना विनाश करतां वापे | पडिणीओ-परस्यनीकपणे

१० = र्थः-लन्मार्मन देरानाये, सन्मार्भनो विनाश्च करतां देवडञ्य द्रण करता, वी जिनेश्वर, मुनि, चेतय, अने संघ

४४ आदिं धतिकूलपणं आचरतो, निंदा करतो जीव दर्शन मो- नीय कर्म वापे ५६१

उन्म एएट्ठे सप्तार देहु जे हिसादरिक आश्व तेने मोक्ष हिप देखाहता तथा एरात मा्मनो उपदेक करता, वन्यो जान) दैन चासिना स््रायस्प भे मोक्षमार्गे विनाश फरतो, समाग रदेला परजीवने एङातनयनी देशनाये एरी मार्मथी चुकवतो, बजी देवदरन्य तथा जञानदरन्य दरण करतो, देरी वस्तु पोताना काममा वाप्रतो, परमे देषद्रव्य विणत टेली छती शक्तिये उेखी हुकनार मिथ्या मोहनीय कर्म वापर, वरी केषी तथा तीर्यकर्ना अवण याद्‌ वोचनारो, साधु, साधवो, श्रापर; भाविका आदिनी तिदा फः देष धरता, जिन परवचनन्र माह देखाडतो यणा जीवना गोधिमोन दणे तेणे करीने मिथ्या मोहनीय य(पे अने पूरे रयु होय तेने निराचिन्‌ करे

ह्वे चासि भोदनीपना पथ देतु फे 2,

उविद॑पि चरणमेोदं, कसाय दासा विस्य विवसमणो॥ व॑धष् निरयाछ महा, परिगरद्‌ रखे रद्यो ॥५७०

दुषिहपि-पे भफाश | दाषाइ-दास्पाटे निस्याउ-नरकायु रणमोह-चारिि मो- | परिसयविधस-वरिषयवश्च | मदारभ-पदाभारम

1 परिणर~परिमरद्मा द्य | मणेो-चिचतयको रथो-र्तयरो कपाय~-फपाय चपईू-ापे सो-दद्रभ्यानी

अर्थं -एक कपाय मोट्नीय तथा चीज्ञु नोकपाय मोद्‌- नीय वधि ते कषाय दास्याटिक तथा तिपयने विपे तस्पर लोलुप परवद्रा चित्त थको चाघे, शने नरका वपि ते जीव मदार्ने वर्तते, परिप्रद्मा रातो यको, रोटरध्याने वर्तो एटते मदाकपायचत, जीवधातनो करनएर, दुष्ट परिणामी दोय॥५७॥

जे जीय एयाय दये पर्त ते कषाय मोदनीय वाय, जेम अननाय गपा कोपाषटिकने दद्य सथन पाय ययि; अपयारस्यानीयातरे उदये यार्‌ कषायं 9

५० ५६ ५५ ५. स्तयं धर~ १९

पयुप ५९

वधि, परत्याख्यानीयाने उदये ( चार प्रत्याख्यानीया तथा चार संज्वरना ) आट कषाय वपरे, अने संञ्वखना चार वापे; हास्य वोतो, भंड इवे करतो वृह योरतो जीव शास्य मोहनीय कर्मं वे, देश्च देखवाने रसे, छवाडीपणे कामन, मोहन, करतो, रती मोहनीय कमं वांधरे राजवेध करतो, नवोराजास्थापतो परने उचाट उपजावतो, परने अशुभ काम कराववानो उत्साह वधारतो, भुम कार्थनो उत्साह भागतो, निष्कारणे आत्तं ध्याने वर्तो जीव अरति मोहनीय कर्म वधर, परजीवने जस पमाडतो तथा निर्दय परिणामी जीव मय मोहनीय कर्म यांप, परने रोक चिता, संताप उपजावतो जीव शोक मोहनीय कम वपि, साधु नी निदा करतो, तथा दुगच्छा करनार जीव जुगष्सामो० कर्म वाध; शब्द; रपः रस, गंध, स्पथै. अनुकल षिंषयने पिप अत्य॑त आशक्त थको परनी अदेखाई, मत्सरधरतो, मायागृषा सेतो, इटि परिणामे परदारा सेवतो जीव घ्ीवेद वापर, सर्पणे, स्वदारा संतोषे, इष्यरहित मद कषाये जीव पुरूपवेद वप्रे, तित्र क- पाये दशी शीर भगावतो, तीव्र विषयी, पुघातक, पिथ्यात्वीजीव, नपुंसक वेद्‌ वे, चारत्रियाना दोष देखाडतो असाधुना गुण ग्रहण करतो कषाय उदि रतो जीवर चासि मोहनीय कमं वप्र,

ह्वे आयुःकर्मना वंय हेतु कदेके-महारंभ चक्रव प्रुखनौ कदि भोग- वतो, यणी मूच्छ परिग्रह सहितः अविरति परिणामि, अनंताचु वंधिया कषायने उदये पंचद्रिनी हत्या निःशेकपणे करतो, साते व्यसन सेवतो, विशासवाती, मिन्र्रोदी, मोरां पाप आचरतो, उत्पत भांखतो, पिथ्याखनो महिमां चधारतो, अशुभ परिणामे कृष्णाद्िक चरण ॒लछेदयाये वत्ततो जीव अशुभ परिणामे करी नारका यायु वप्रे

हवे तिथच आयुना वंध हेतु कटे,

(ठे (हे | १९ तरि गूढहिखस्पो, सटोससच्वोतहामणएस्साञ्ो पयय तणु कसा, दाणर्ं मन्छिम गुणो ॥९०॥ तिरिभाजो-तिभैचायु तदा-तेमज दाणरूई-दानरुचिवाग गरढहिभआ-गुदहदयनारो | मणुस्ाओ-मुष्यायु | माजिमयणोज-मध्य्म यु-

सटो-परखं य~परतिये | णवान्गे ससष्टो-शस्यसहित तणुकस!ओ-अस्पकपायी

+. अर्थं -ति्॑चनु आयु, जे जीव रूढ हदयवाटठो, मूर्ख, धूर्त, भिभ्यातादिक शाव्य सदित्त दोय ते जीव वांधे तथा जे जीव प्रकृतये एटले स्वनवे अद्पकयायवंत दोय, ठान देवाने रुचिवत्त, मध्यम युएवेत दोय ते जीवर सनुप्यायु वाये ॥१०॥ गृह द्य एटरे जेना दटयनी ऊोईने खवर पटे तेषो दोय, कपटी देय,

युते भीठे अने परिणामे दारुण हेय, आर्चध्यानी, लोमा मान पूना हेतये तप॒ करतो, करेखा पापे पूर्णं आछोचे मदी, शव्य राखे ते जीय ति्वचादु वापे

षवे परुप्यायु चाधवाना दे फटे ठे-रेया देवता तथा नारकीनो सम्यक्त्व फसैव्यताये युमभावे करी मनुप्यद्रु आयु वार ते भणी मवपरत्यये तेने देवाधु मे बधाय, तथा मतुप्यं तिर्वच जेह भक्ति केता मेदेन उपाय र्या विना मिथ्या सने मद रसोदये करी कपायनो पण मद रसोपय दय तेयी तथु षवे दुर्म पश्या एवा फपाप जेम्‌ धान्य मल्वायी श्ररोर दुर धाय एवो भङृतिये भद्रक धूलि रेखा समान कपये वर्ततो, सेदेने सपान दुपात्र प्री फया विना विष यदथ.फौपिं षव अणवाउतो पण स्वभे दान देषानी रुचि नेने वीव होय एवो क्षमा, आर्जव, मारव, स्य, फौचादिफ मध्यम गुणे वर्तत, कापोन खेदया परिणामे जीव मचुप्यायु गप,

हवे देदीपुना तध देतु शदे अविरथ माश्युराओ, वालतवोऽक्राम निकरोजयर सरत अगारवि्लो, युदनाम खतदा अदुखं ५४

अविरयमा-गविरति | अङमनिजरो-अफाम | अमारप्ैो गाप्वरहित

भ्य्दषटिमादि निर्जरायेकरी | छदनाम-युमनाम घुशजो-देवायुवाम जयड्‌-उपार्ज अब्रहा-अन्पया वाटतबो-दारतपेकयी सरले-सरज अगरुहा-अयुमनाप

्म्थं -्विरति सम्यक्‌ दृप्ठ्यादिक देवायुवाधे, बाल तपे करी, ब्रह्मच करी यकामनिर्जरा उषार्जे, अने निष्कपटी,

गारवरहितथको गुलनाम कर्मनी प्रकृतयो बाधे तथा अन्यथा कपट गारवसदित अद्युन नामकमंनी भकृतियो बांधे पष

अविरति सम्पक्दष्टि, मनुष्य, ति्यैच देवायु वप्रे, परो छना परिणामे पुमित् संयोगे, धर्म रचिपणे, देशविरति ग॒णे, सराग संयमे देवायु वाध, वालतप पएर्ले दुःखगभित मोहगर्भित वेरागे करी, दुष्कर कष्ट, पंचापि साधन, रस परित्या- गादिक अनेक पिथ्याखङ्ञाने तप करतो, अस्यत आकसे, रोप गारवे तेष करतो, असुरारिक योग्य आयु वारे तथा अकाम निजराये, अज्ञानपणे भूख, तषा, टाढ, ताप, रोगादिक कष्ट सेतो, सी अणपिङते शीयक धारण करतो विषय संपत्तिने अभावे विषय अणसेचतो, इस्यादिक अकाम निजजराये तथा वाटमरण पटे काटिएक तसायोग्य शुम परिणामे वर्त॑तो रव्यि विराधनाये व्य॑तरादि योग्यः आयु चर, तथा चाचार्यं पलयनीकताये फिखिषिकाथु वापर, तथा युग्धजन गिथ्यासीना प्रशसतो, महिमा वधारतो, परमाधामीचं आयुष्य वधर,

शुभनाम प्रकृतिना वंध देतु कटेछे-सरर, कूं मान मापे करीनदी ठगनासे, परवंचन वुद्धिरदित, रुद्िगारव रसगारव अने श्राता गारव रहित, पापभीरु, परोपकारी स्वजन भ्रिय, क्षमादि गुणयुक्त, एवो पुरुष शुम नामनी जीसं प्रकृति वोधे तथा अप्रपत्तपणे चासि पार्तो, आहारादिक वापे, अरिदंतादिक वीक्ष स्थानक आराधतो, ुणवंतमुं वेयावच्च करतो जीन नामकर्म वाधेःतेथो विपरित पणे वर्तनारो जोव नरक्गत्यादिक चोचीस अशुभ नामकरर्मनी भति वपर सडसठ प्रकृतिना वंध हेतु कट्या,

दवे उच॒गोच कर्मना वंध देतु के छे.

गृएपेही मय रिचो, न्यणञ्कावणा रई निच्चं पकुएर्‌ निणाई न्तो, चचं निञ्परं इस्प्ररदाञ्पो ॥६&०॥

गुणपेदी-युणनोदेखनार उपर उच्चं-उचगोज भयरहिओ-मदरहित | रुडनिचं-नित्यं रुचिवागे | निअं-नी चमो अञ्करयण-अध्ययन भ- | पङुणड्~परकर्षेकसै इअरदाओ=तेथी इतर

णवा उपर निणाइभत्तो-जिनादिक- | एटले विपरीतयणघान्ने अज्खावणा--मणाववा नोभक्त

~

४३

अर्थं -पारका युणनो देखनार (खवयुण देखीने निदेनदीं) आठमद्रद्ित, नणवा जणाववा उपर निरतर रचिवाको दोय. पकप करी. जिन अरिदतनो नक्त जचैगोत् उपाजे अखने तेथी छन्यथा विपरीत युषे करी नी्ेर्गोनर उपाजं ६०

हवे अतराय कर्मना वध देह कहे चे,

जिएपूखा विग्बकरो, हिंसाई्‌ परायणोऽजयदविग्घं श्य कम्प विवागोख लिदिखो देविदसूरिदिं १६२॥

जिणपूभआ-जिनपूनानो | अज्यड-उपाजं पाफग्रथ सिग्धकरो-रिष्न फरनार | विग्प-अतरोयकर्म रिष्ठिओ-ुख्यो हिसाइ-दैसादिकमा | इअ-एणीपेरे देविदभूरिहि-्री देषेद्र

परायणो-तसरथको कस्मपिवागोभ-कफर्मेवि-

छर्थं -जिनपूजादिकनो विच्च करनार(पूजानिपेधनों करनार), दिसादिक आश्नवने विये तपर थको, श॑तराय कर्म उपाजे ( बी खडार पापस्यानकनो सेवनार साधुने ढानादिकनो इतराय करनार जीव अतराय कर्म॑ उपाजे ›) एणीपेरे कर्भ विपाक एवे नामे ग्रथ ते श्न वेव सूरिष्‌ लरयो ६१

५९ अथं कृर्मस्तवनामा द्वितिय कम्र॑थ.

तद्‌ थुणिमो वीरजीणं, जह गुणएष्ठणिसु सयल कम्मं वंधुद॑यो दीरणएया, सत्तापत्ताणि खवि्परालि

तह-तेम , विषे. ! उदीरणया-उदीरणा थुणिमो-स्तर्वाश सयल्-सघनगं सत्ता-सत्ता दीरजीणं-वीरस्वामीने कम्माई्-क्मं ` परत्तागि-पामीने जह-जेम वंध-वंध खव्रिआणि-खपाच्यां

गुणट।गेष्ु-एणगणाने | उदय-उदय

अर्थः-श्री महावीर स्वामी प्रत्ये तेम स्तवीश, जेम यण- तालान विषे सघठांए कर्म, परति प्ये वंध, उदय अने उदीरणाए करी सत्ताए पामीने खपाव्यां

गुणणाँः-क्ीबमंदिर चडवाने पगथी आं सरखा जीवना शुद्ध; शुद्धतर, शुद्धतम अध्यवसाय विशेष तेने गुणठाणां करए; ते अध्यवसाय असंख्याता ठ, तोपण स्थर व्यवहारे चोद छे,

व॑धः-जे कमवगणा दरसाथे मिथ्याखादिक आश्रवे कर जीव प्रदेशने दुध पाणीनीप्रे एकमेक थुं तने वंध कर्हीये

उदयः-ते वपेखां कभनो अवाधा काल युदत वीते थके वेदवामां (भोग- ववामां ) आवे ते उदय, अने ते कर्मने सचीने उदयमां खाषवुं ते उदीरणा

सत्ताः~ज्यां सुधी वांधेखां कमनी निजंरा नथी थर्‌ त्यां सुधीते कमसत्तामां एम कटैवाय.

ते दृष्तं आपी समनावे छे, जेम आपणे कोद माणसना वे माहेनाना वायदे रूपी ङीधा, ते रुपीओआ वे मास थाय त्यारे भरवा पडे, तेम कोई करम बाध्या पछी अगुक य॒द- तने अवाधा कार कीए, वायदो थयेथी जेम रूपी भ्रा पडे तेम अवाधा- का वीते थके कर्थं भोगववानी श्रुत्‌ -थई्‌ ते उद्य आब्धुं केवाय, उदय

४५ आव्यां पी तेने जौववीरयं विकेपे करी सचीने उदयावछिमा आभी वेदं ते उदीरणा, अने उ्या सुधी ते कमेनी निर्जरा नथी थर्‌ त्या सुधी सत्तामा छे ते वध, उद्य, उदीर्णा अने सत्ता चारमां वधन अने उदिरणा जीवनी क्रिया पिचेप अने उदय तथा सत्ता मवार ठे द्बे एणगणाना नापर तथा सत्ता कदे ठे

मिच्छे सास्षण मीते, अविरय देसे पमत्त अपमतते नि्यद्िखनिखध्िुदुमुवसमखीएसजोगिखजोगीगुणार्‌

मिच्छे-मिष्याल | पमत्त-पमत्त उवपम-उपन्चातपोहं सासण-सास्वाद्न अपमत्ते-अपमत्त खीण-क्षीणमोह पमीसे-मिभ्र निभ्टि-निदत्ति सजोगि-षयोगीरेवखी

अपरिरय~-भविरति अनिअद्ि-अनिरृत्ति अनोगि-अयोगीकपशी देसे-देद विरति खहम-ष्ठ्मसपराय ुणा-ुगस्यानफ र्थं -(२) ेध्यात्य, (2) सास्वादन सम्यक्हष्टि, (३) मिश्च, (४ ) अविरति सम्यक्टषटि, (५) देराविरति, ( ६) मत्त, (७ ) अघ्रमत्त, ) निवृति ( अपूव ), (८) अनि- चति वादरस॑पराय ) ( १० ) सूष््म सपराय,( २१ ) उपक्चांत मोद्‌, १२ ) रीण मोद वीतराग णण, ( १६ ) सयोगी केव], ( १४ ) अयो। कवली, चोद्‌ युणएाणा ठे ॥२॥

पिध्याल युणदाणुः-मिन्यात मोदनीयना जोर करी) इुदरेवः कुशुरु, अने कृषर्मं अगीकारकरे, सथा जिन वचनथी भिपरीत चे, तेमज सैनवं उप्र अश्रद्धा राखे, तेने पिय्यादष्टि जाणयो ला फोईश्फाकफरेके पिथ्ात्य दोषै दुठने गुणठणी केम फीप तेनो उत्तर ले, मिभ्याली परणं युक्ति देहु क्रिया करे) तथा सर्गं जीवने सदा अक्षरन अनतमो माग उधाहो रहे ऊ, ते गुणनी अपेक्षाए गुणटाणु कदीए,

२, सास्वादन रुणडणु"-उपदम सपरा पापी एक समय तथा आटि शेप सम्यक्त्व काल होये यके अनतायुवधी कपायना उदयथी ते सम-

५६ ` कित वमतां खीरनीरना स्वाद सरखो भाव मिथ्या युणस्थानक पाम्या पेहेखां दोय. ष्टे कोई माणसे खीर खाधेीं होय तेने उरृटी यतां नेम खीरनों स्वाद युखमां रदी जाय तेम सास्वादन गुणगणं जाणवु,

मिभरयणगणः-मिध्र मोहनैयना उदयथी जीनधर्म उपर राचिपण ठोय

तेम अरुचि पण दोय, मिश्रपणुं होय एवा ने, अध्यवसाय ते.

अविरति सम्यकृदष्टि गुणगणु-विरति गुण जाणतो, अप्रत्यारूयानीया कषायोदय आदरी शके नरी. तेना चण भागा डे

जाणीने आद्रे, पे ते श्रेणिक राजानीं पठे, जाणीने आद्रे, पारे ते अुत्तर विमानना देवतानी पेदे. जाणीने आद्रे पाङ ते सविप्र. जण भागे वत्तं तो क्षायक, ओंपन्ञामिक अने वेदक जणमांथी एक समाकेतनी रुचि पामी जेजे अध्यवसाये जिनवचन यथावस्यत पण. परिणमे ते. देशविरति यणगाणुः-देशविरति जे श्रावक तेना गुण सम्यक्त्व सहित णे, आदरे अने पाले, अदं समित सहित नोकारश करे ते पण एमां जाणवी,

प्रमत्तगुणगणुः-चारििि ीधां छतां पण जे अध्यवस्य प्रमादे ( मदः विषय, कषाय, निद्रा अने विकथाए ) करी मलीन रोय,

अप्रमत्तशणठाणुः-प्रपाद्‌ रहित अनंतगुण- विशुद्ध निश्चय चारि स्थिरता रूप सदत जे अध्यवसाय,

< निषटत्तिरणगथुः-चारित मोहनीयनी एकवीस परङ्ाते खपाववा तथा उप. रामाववा रुप अस्यत विशुद्ध अध्यवसाय, अदं एक समये अनेक जीव गुणटणे च्या, ते शुद्धं शुद्ध तरादिक अध्यवसाय मेदे करी नित्त केता फरफार्‌ दोयत्यां एलं नाप निदत्त एणगणुं कर्हीए अर्ह्‌ समये सपरये अन॑तगुण विशुद्धि ठोय.

अनिदत्तिएणडाणुं-आ गुणठगे एक समये अनेक जीव चे, पण तेमना अध्यवसायमां केरफार होय तेथी तेवं नाम आमिति कह. तथा पयु वीयं नाम वादर संपराय पण कर्टीए कारण के अही कषायना मोटा खंडक्रे,

४५५

१० घटमसपराय-गेष रहेटी मोदनीय कर्मनी परकृतिने प्तय तथा उपशम य~ घाना जे विद्ध अभ्यदस्ताय ते सुष्प्षपराय) अर्भां फषायना घ्- ध्म खड फरे,

१९१ उपशषातमोदनीय-मोदनीयना उपश्मथी यवसाय निरि थाय परत सत्ताये कषाय रदेखा छेतेजो उदय अवितो मेखा यमाना समत्र तेथी तेमु नाम उपशात मोहनीय, एने उदस्य वीतराग एणाणु कए अर्ह अवश्य पदे अने जो मरण पमि तो असुत्तरवासी देवता याप अने घोये गुणठाणे आग्रीने रहे, अन्यथा परेतो दशमे अवे, तथा

8

नवम, आठम, सतिम, पण जाव अथवा परे पण अद्र

१२ क्षीणमोद वीतराग गुगदाणु-मर्दीभा सवं मोहनीय प्रति सपापे थके जे अद्यत बिथ॒द्ध अयवसाय स्यानङते ९३ सयोगी केवर शणराणु-रेचठह्ान पाम्या परी ज्या छुधी वाद्ररयोष ( वेषार ›) मन) वचन, फाया पवर हा, चारे, बो स्पा सुधी स- योगी केव चणगणु कहीए १४ अपोगी केवडी गुणदाणु-शकर ध्यानम चोथो पायो *पवितां गाद्रर यौ- गना अभवे ( सहेपकराययोगे ) अयोगी केवर शुगदाणु जाणदु, ष्‌ रीते चौद गुणगणास सरस्य कदु छे तेनु फाल मान केत मिष्या गुणडाणाञ्चु फाठपान अभव्री जीवने अनादि अनत अने भवी. जीगने अनाटि सात तथा सादि सति हेय सास्रादननो काठ आवि भपाण, जीजा, आमा) नवपा, दश्चमा, अगीभारमा अने वारमा गुग्डाणानो कार अतुहूर्चनो छे, चोधाचु कामान तेजीस सागरोपम अधिक, पंचमा, खरा) सातमा अने तेर्मा युणणाञ्ु कारुपान देशे उणा क्रोड पूर्वन, अने चोदत पाचि द्व अक्षर बोलतां जेदनो वखते याय तेटलु जाणषु ह्वे वघ प्रकृति कदेठे $ रोहे तर 4 स्प्रन्निनव कम्पर्गदए, वंघोञओहेण तरय वीस स्यं

तिया हारग खग, चज्ञ मिन्॑मि सतर सयं 1३1 <

५0

अमिनव-नवां- ` | पीससयं-एकसोवीस | वज्ज-वर्जीने

(1 ¢ $ > $ 0 कम्मगगहणं-कर्मनुं ग्रु | तिथ्ययर-तीथकर नाम | पिच्छमि-पिध्यास्वे वंधो-वंघ ` | आहारगदुग-गाहारफद्िक। सत्तरसयं-एकसोसत्तर ओहेण-षे ˆ `

अर्थ-नवां कर्मं जे पहु तेने वंध करीष, त्यां जवने अधे. एकसोवीस प्रकृ तिनो बंध रोय. तेमांथी तीर्थकरनाम अने अहारकद्धिक (आहारक शरीर तथा आहारक अंगोपांग) ए. त्र प्रकृ ति वर्जन वाकीनी एकसो सत्तर प्रकृतिना बंध मिध्या- स्व युणठाणएे होय ॥३॥ उपरनी रण प्रकृति वंधाय तें कारण केतेच्रण प्रकृति शुद्ध चारित्र अने समकित आश्रीने ठे अने शुद्ध चारित्र तथा समकित मिथ्याखयुण उषे दोय नहीं

हवे पेहेरे गुण्ढाणे केटरी भ्रकृतिनो विच्छेद थाय ते कदे,

नरय तिग जा थावर, हुंमा यव ठिवषठ नपु मितं सोलंतो रगदिञ्मसय, सासणि तिरि यीए इह तिगं॥४॥ न॑र्यतिग-नरकत्िक | छिवठ-~खेवटु संघयण॒ | सौसणि-सास्वादने

जाई-नातिचतुष्फ नपु-नपुंसक वेद तिरि-तिेचत्िङ - थाविरचउ-थावरवरहुष्क | गिच्छं-मिथ्यात्वमोहनीय | थीण-धीणद्धीनीक इंड -हडसंस्थान ` सोकुतो-ए सोलनोत करे दुहगतिगं-दौर्माग्यत्रिक आयव-आतपनाम इगहिसय-एकसोएक

अथेः-नरकन्निक, जातिचलुष्क, स्थावर चतुष्क, इमं संस्थान, आतपनामकमै, ठेव संघयण, 'नपुंलक्वेद अने मि- थ्यात्र मोदेनीय एम सोढ प्रकृतिनो अंत मिथ्यास्व युणठाणे दोय, अने दोष एकसोने एक प्रङृतिनो व्र॑ध सास्वावन .युणएगणे दाय दवे सास्वादने केटलं भ्रकृतिनो विच्छेद्‌ होय ते कट्‌ ठे तिर्येचत्रिक, थीणएद्धी्निक, अने दोनौम्यत्निक. नव 19

१४ नरफानिक्न्नरफनीगति, यनुपू््वी, अने आयु जाति चतुप्प-एफैि, नेरृदि, ते भने चौरिद्ि स्पवर चहुप्डस्यावसनाम मुदमाप, अपर्यप्नि नाम अने साधारण नाम तिर्वचतिक ते नरफतरेकनी पे, यीणदुधिकन््यीगदी, निर िद्रयने मचल मचा दरौमियत्रिक-दी मग्िनामदुस्रनाम अने भनानेयनाम प्ण मज्ागिदसंघय, चउनिडजो्ुखगचित्ति पण॒ वोत मीके, चउसयरि उहाञ्ख खवंधा

अण-अनवायुदधी उन्नोभ-उग्रोतमाप यीसे-पिध्रुगञने मनागिदु-पध्याषृति | इखमगद्-भशमविदहायोगति | चरपयरि-युम्पोतेर सधयण-हययण सिति स्वेद इदाउ-पे आयुप्यनी चठ-ए तणचतुष्फ पणवीसतो-पदीपनेमत | अधा-भवध छे नि-नीचणोत

अर्थं -अनतानुवधी ( कोध, मान, माया, सोन ) चतुष्क, वच्थेनां चार सस्थान ( न्यभ्रोध, सादि, वामन शने कुड्न.), मध्यसघयण ( छन्न नारव, नाराच, सर््नाराच, यने की लिका ) त्र चलुप्क, नीच गोत्र, उ्ोतनाम, यद्यु विद्‌ा- योगति यने सवेद मोद नीय सोल तथा मथमनी नव मठी पचीस भतिन अत चध विष्ठेद सास्यादन युणठाणे धाय रते जोता मिश्रणे ठोतेस्नो वध थवो जोक पण श्च- दीश्ना (देवाय तथा मनुप्यायु ए) वे आयुनो वध दोय तेयी चम्मोतेरनो वध दोय

अरहींभा आयुरध योग्प अध्यतव्रसायनयरी तयास्य देरयु अने भतुष्यापु पण उपाय, पण बाल चोये यणठणें यध फर देथौ तेने! चिच्टेश नक््ो पथ अष कथो अर्टदीमा कोद भक्रातनो वध चिच्छेद नथी

सम्मे सगस्रयरि जिएा उवं यिवक्रनरतिदखविखकताया उरल दुगतो देसे, सत्ष्टी तिय कसायतो ¶१ . .

६० सम्भे-सम्पर्ष्टिए | बईुर-वज्‌ ऋवभनाराच | देसे-देदतिरततिष सगसयरि-सीर्यातेर | नरतिअ-मनुष्ात्र सत्तटी-षडसट

जिग-जिननाम विभकसायाःबीजाभप्र- | तिअ-तीजाप्रत्पख्यानीं आउ -पुष्यायु तथा व्याख्यानीचारकषाय कसायतो-कषायनो अंत

देवाय | रख दुग॑तो-ओदारिक करे बंधि-बापे द्विकनो अंत करे

अर्थः-चोधा अविरति सम्यकूहष्टि रुणएठणे सीप्योतेर भ्रृतिनो बंध होय. कारण के अहं जिननामकमे, मनुष्यायु ने देवायु रण शुन भ्रकृतिनो वंध थाय. अने वजृक्रुषन नाराच संघयण, मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति, अनुपुढ्वीं अने खायु) अने वीजा ( अप्रदयाख्यानीया ) चार कषाय तथा ओदारिक- छक .( शारीर अने खंगोपांग >) दशनो विषेद थाय एटले पांचमाः देशविरति युणएठणे समसव भ्रद्धतिनो वंध करे. ने व्यां जीजा (घरस्याख्यानीया चारः) कषायनो-खंत करे ॥६॥ एटकले-

तेवष्ठि पमत्ते सो, रद अथिर दुगखजसञ्मस्सायं॥

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बुचिज उच सत्तव, नेशसुराञ्ोजथा नि तेवष्ठि-तेसटनो अजस-अयश्ननामकमं | सत्तव-सातमरृति पमत्ते-प्रमत्तगुणरणे अस्तार्य-अश्चातविदनीय | ` सुरओ-सुरायु सोग~शोक मोहनीय | बुच्छिञ्ज-विच्छेदपामे | जया-जो अर्‌ई-अरति मादनीय उच-छ भङति अथवा | निहे-नेष् अधिरदुग~-अथिरद्धिक | |

` सअर्थः-त्रेसठ घञ तिनो बंध उठा भ्रमन्त युणएठाणे रोय. खने

वप

रोक मोदनोय, अरतिमोदनीय, अस्थिरघ्िक अस्थिर नाम अने-अशुचनाम), खयदानाम, अश्चातावेदनीय, पङ्तिनो विडेद टोय.खथवा सात भ्रङकृतिनो वेद जो कोष प्रमत्त साघु,

देवायु घाधवा मामे ने सपु्णं करी नेष्टा पामि तो करे ॥७॥ गणस खप्पमत्त, सुरा वद्ध तु जइ इदा गच्च प्न अषटावन्ना, जं आदार दुर वंधे

गुणसष्ठि-अगणसाड जड-जो ज-ने भणी अप्पपत्ते-अप्रपरतते इहागच्डे-अहीं अक्रेतो आहरण दुग-अश्टारफ छरायु-देवाणु अन्नद्-अन्पया द्रि

बद्धतु-बाधतते यरे अदावरन्ना-अढ(वननो वधेया

अर्थं -तातमा अघ्रमत्त युणठाणे ओगणएसाव भकृतिनो वध दोय, पण ते देवयु वाधतो थको जो युणठाते आवे तो अन्यथा तो अष्ठावन परकृत्तिनो वध टोय जो के परमत्तयु- शवाणे अरे सठ धङृतिनो वध दतो, तेमाथी ठनो वध वरद्‌ थतां सत्तावन रदे, परंतु अभरमत्त युणठाणे आदारकष्टिकनो घध दाय एटले खगणसाठ अथवा सुराय विना खष्ठावन घ- छरतिनो चध सातमा युणठाणे दोय अडवन्न अपुच्ा एमि, निददुगंतो उपन्न पण नगे सुरडगपणिदिसुखगई, तसनवञरलविएतणएठे वगा ॥ए१

अदवन्न-भराचन उपन्न-उप्पननो वथ 1 तस~तरसनवरफ अपुव्वाहपि-अपूरवं करण |, पण भागे पच भगि | उरखविण-भौदराछकिमिना नी आदिन परि | सरदूम-रद्रिर तणु-प्ररीर चार निष्दुगतो-निद्राद्विषनो ] परणिदि-परचेदिय जाति | उवमा-उपागपरेकिय तथा अतकरे सुखगड~युभविदायोमत्ति आदार

अर्थ'-द्वे अपूरवंकरण युणगणाना सात ज्नाग करी ते- माना प्रथमनागने विपे उपर कटे अघ्ठावन धरृतिनो वध दोय, शने ते पठीना पांच न।गने विपे निखादिक ( निखा चने

९१

प्रचलला ) नो अंत करे एटते ठप्पन परकृतिनो वंध दोय अने ठष्ठे जागे सुरप्टिक देवतानी गति अने अनुपूर्वीं ), पंच जाति, य्न विद्योगति, चसनवक (चस, चादर, पयत, पर- स्येक, (स्थर, गुन, सोचाग्य, सुस्वर अने सादेय ), यओदारिक विना चार शरीर तथा (वैक्रिय अने आदारक विना) वेय गोपांग मल खओगणीस

समचञरनिमिएनिएव, च्पगुरुत्तहुचउठलंसितीसंतो॥ चरमे ठउवीस वधो, दास रर्‌ कुत तय चेखो १० समचउर-समचतुरस्र अगृरुलटुचउ-अगुर रघु | छवीस वंधो-छव्वीसनो

निमिण-निमाणनाप , - चष्क वध नजिण-जिननाप छल सि-छटेभागे हासरद च्छभय-टास्य दन्न-यर्णचतुष्फ़ तीसंतो-तीसनो अंताय | रति, दुगंछा, भय चरमे-ख्े मेओ-टाने (भेदकरे)

अर्थः-समचतुरख संस्थान, निमाणए नाम, जिननाम, व- एचतुष्क ( वणं, गंध, रस अने सपर ), अने अयुरुल्धुचतुष्क ( अगुरल्षघु, खपधात, उश्वास, पराघात ) अगियार मल) कुल तीस प्रङ्ृतिनो विद अपूर्व॑करण युणएठाणाना ठछठा जागे होय. तेवारे ठेले सातमे जगे ठष्वीस प्रकृतिनो वंध होय त्यां दास्य, रति, जुगुप्ता अने चय चार प्रङृतिने वधथं। टाठे॥२०॥ प्रतिञ्रहटि चाग पणगे, हगेगदीएो उवीसविह वंधो पुम संजलणए चञण्ड॑, कमेण ठचो सतर सुदुभे ॥११॥ अनिञहि-अनिवृत्तिना | दुविप्तविहवेधो -वावीष | चरण्ं-चोकदीनो

भागपणगे-पांचमाभगे भङतिनो वंध होय. | कमेणञओो-असुक्रमेछदाय इगेगरीणो-एकेकपदति | पुम-पुरषरेद सत्तर-सत्तर

ओङ्वीकरी संजरुण-संज्वखन सुदु१-वुत्म संपराये

६३

छर्थं -नचमा अनिदृत्तिकरण युणएवाणाना, पाच सनागने विपे नाग नाग दीठ एक एक प्रृतिये रीन वावी प्रकृति- नो वध डोय एते पेदेले नागे वावीशनो वध, चीजे जागे पु- रुपवेढ ओठो थता एकवीसनो वध, तथा चीजे नागे सजव- लन कपायनी चोकरी मादथ कोध ठेदातां वीसनो वध, चोधे स्नागे मान उदात्ता ओगणीसनो, पाचमे जागे माया ठेदाता खटारनो वध अने पाच्‌मा न्नागने अते लोननो विद थता

दशमा सूऽम सपराय युणएठाणे सत्तर षऱृतिनो वध रोया १२॥

चञ द॑सुणुव्जसना, विग्ध दसगंति सोसो

तिसुसायवधटखो, सजोगिर्व॑ध॑त्मएतोख्वधोसम्भत्तो चडउदसणच-चारदर्शना- | दसगाति-एदगमकृति | केओ~खेदाय

वरणीय तथा उवेर्गेन | सोकस~सोलनो सनोगी-सयोगीने भते जस~यशनामकरम उन्ञेओ-विच्छेददोय ( वधत-शाताेदनीयना नाण-ज्ञानावरणीपचि | तिखु-त्रणगुणाणे यथो पण अत

ग्रिग~पाच अत्राय सायेवध-दातात्रे°नोत्रध | अणतोअ-अनेतो फरे

श्रथ -( दशमा य॒णठाणे सत्तरमाथी ) चार दर्नाधरः एीय, उवेगोत्र, यदा कीरिं नासकर्म, तथा पाच क्ञाना- वरणीय, पांच अंतराय, ददा एम सर्वं मठी सोल प्रकृतिना वधनो विद होय अने अगीयारमे, वारमे तथा तेरमे चरण युएवाणे एक शाता वेदमीयनो वधे, ते पण ठेदाय एरते सयोग युणगणाने अते शातावेदनौयना वधनो पण अत अ- नतो करे अद्रा वध अधिकार सपु थयो १९

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खाभतिराय

१८| भोगांतरायं उपभोगांतराय

वीयातयय

११५७ ११९ २०

1

१¶

गुणगणां

वे वपी परङ़ृति पोतयोाने यपाधा काल यीतेथके शुमाधुम विपाक देखा एटठे भोगववे, जे प्ररे पध पटी उदय फरे तिह प्रथम उदय क्षण तथा से सरखा भणी उदीरणा फरण दोष तेयु एण रक्षण करेवा पूर्वफ चद शुणडाणा आश्रीने उदय स्वामीत्व विवरे छे

सदसो विवाग वेखण, सुदीरण मपत्ति षह उवीससय सत्तर सयं मिच्छे मी, सम्म आहार जिणणुदया ॥१३॥

उदओ-उदय (ते) _ | इह सम्म सम्यवसमोहनीयनो वरिरग~-विपाक (कारे) | दुवीससय-पकसोपाकस आदार-आद्यरकाष्रिनो

शोर ति) सततरसप-एकसोमत्तर निण-जिन नाम फर्मो अप्ति-अणपरे देवी | भिच्छ-मिथ्यातरे _ अणुदपा-उन्य येय नेग मीस पिध्रमोदनीण्नो |

अथं -क्मरसनु विपाककूटे वेदबु तेने उदय कदीष छने उदयकात्न अण पटोचे सेचीने वेदडु ते उदीरणा. एमा एकसोने वावीस प्रदृतिडंपे दोय. थने एकसोने सत्तर प्रकु- तिनो उदय मिध्याख युषरणे सोय, केमके युणठाये मिश्र मोद्नीय, सम्यक मोद्नीय, आदारक इारीर, आदारक अ- शने तीर्थकर नाम क्म पाच भटतिनो उव्यन 1२३१

यथम जे एकम्रोयीस प्रति दती ते फरतां सम्प मोहनीय अने परिश्र मोदनीय एवे मति उदयमा वधे होये; तेर्मायीं उपरली भाच अषृतिनो इष्य पिध्याल यणढणि होय कारण फे परिभ मोदनीयनो उन्य पिथ युण- ढे होय, सम्पर्त मोदरनीयनो उदय कोयाषी सरातमा शुगडाणा षी देय) आद्य शरीर अने ममोपाग चौद्‌ पूर्धर्‌ शामिने परमत गुणे होप, अने तीकर्‌ नाम प्मना दटनो उन्य चोया्ी वारमा युणयणा समे हेय, तेषा पण उपाव मोह युणराणु दीक नन दोय सीरदर नाम्‌ कर्मनो रतोदय सो ते अने पीदं यणरामे होय, तीररकरने मिष्या, सास्यादन, पिथ भे एपएणीत पोद्‌ चार गुणदाणानदय) ते तीकमि कर्मनो उदपतेसये

१९ चोदमे गुणडणे कामि वीजा वार्‌ गुणगणे लभे. तेथी पाव प्रकृतिना उ- दय मिथ्या गुणठगे छमे- ते पांच अनुद्य काठतां एकसोसत्त मङृतिनो

उदय आगे गुणठगे जाणवबो. अने पांच अकृतिनो उदय आगङ यथाब- स्थान छाभगे तेथी तेना उदयने। चिच्छेद कह्यो-॥

ठव जे प्रकृतिनो उदय मिभ्पासेनङॐ़ पण आयल नथी ते कड, दुम तिगा यव मिच्छ, मिच्छतं सास्षणे इगारसयं

निरयाणुपुच्िएुदयाः, अण धावर इग विगल्त खतो १४ युहमतिग-षष्मातरेक | साप्गे-सास्वादने अण-अनंतानुवंधिचार आयतव्र-आतपनाम इगारसयै-एकसो अगियार। धावर-स्थावरनाम पिच्छं-मिथ्यात्वमोहनी | निरयाणुपएुव्ि-नरकायुपू-। इग-एकैद्रियजाति मिर्ठत-पिध्याखगुणग व्वीनो त्रिगल-व्रिकलद्व णाने ते “ˆ अणुद्या-अनुद्ये अंतो-अत हाय अथैः-सृक््म्निक (सूऽम, अपया, साधारएनम ) आत पनामकम, (मिभ्याख मोहनीय पांच प्रकृतिनो उदयःविच्ञेद मध्यात युणएठाणाने खत होय. अने नरकालु प्रूऽवीनो अदीां अनुद्य ठे तेथी बीजा सास्वादन गणएगणे एकस अगिश्रार रङृतिनो उद्य लाने. अने अनैतानु बंधी चार, स्थावरनाम

क्म, एकि. जाति अने चरण विकलँ(्रेजाति नव ङृतिना उदयनो अंत सास्वादने होय २४

मीप्े सय मणएरवं), एदया मीसो दए मीरस्तो

चउसय मजर सम्मा, पु] खवा ब।ख कत्तायारय॥

1 मीसंतो-मिश्ननो अत | सम्प-सम्यक्तवमोहनोय

= ~ ञ्ची पुरव्वी अुषुमीयुदया -गनुषु- | चसे वव | सनाप व्वनो उदय होय | चउसयं-एकसोचारनां | खेवा-कषपवीए, युकोए मीसोदएण-मिश्रमोह- | अजए-मविरति सम्यक्‌ | बी अ-वीजाअप्रत्यारुयानीं नीयनो उद्य होय -दष्टियुणट्े. | कपाय-कषायती "चोरी

७३ र्थ.-मिश्र षदे सो भतिनो चदय दोय भां देव, मलुप्य यने तियेचालुपृव्यीं श्र णनो उदय दय नदीं छने भिश्र मोदृनीयनो उदय दोय टले ( एकसो अगिओा- रमाथी नवनों विठेद ने णनो अनुदय एमं वार काढता नवाण रद्‌, तेमा मिश्र मोद्नीयनो उदय दोय ते वधारता ) एकसोनो छथ्य दोय शयने मिश्र युणखाणानों खत धाय तेवारे एकसोचार भरकृतिनो उदय चोधा अपिरति सम्यक्टषि युए- उवे दोय एवी रते के, घरं मिश्च मोद्नीनो दिद थता नवाण रदी यने सम्यस्ख सोदनी तथा चार अनुपूरी उमे- रता एकसोचार यड दीं वीजा उम्रस्यारयानीय कपायनी चोक्ी २५ मणुतिरिऽएुपुधिविञव, एदुद्गच्पलाष्फगमतरटेखे सगसी९ देति तिरि गर, आख निं उजोखतिकसाय॥ २६ मणुतिरि-परुष्य अने अमाश्रदुग -अनदेयद्रिक यउ-पिर्वचापु तिर्वचनी ¦ मतण्ेभो सत्तरनारिरिडे नि-निन्यरग्र

अणुदुप्वी-मदुषृ्ी | सगसद-सन्पानी उमेभ--उथोतमाम

[८१ रिष ए-योकियाषएटक देति-देतरिरमिपे ति-त्ीनापद्याख्यानी द्ा-नेभत्यिनाप निरिगड-निदयवमी | फमायह-कपायनी चोकदी

र्थं -मनुप्वानुप्रव्थी, ति्यचानुपु्यी, व्रेक्रियाषटक (बे

क्रिय शरीर, वेय अगोपाग, देयगत्ति, देवायु, देनालुपएव्भी,

नररूगति, नरकायु, नरकानुषटरं ) उा्नग्य नामकर्म, यना-

देयष्टिर (श्नादेय यने यदा नाम करम) सन्तर भकृतिनो

उदय पिद चेषा गुणठणे याय ण्टते स्या भरकृतिनो

उदय देदादिरत्ति पाचमे एषण रोय शरद्रीया तिर्यच गनि, १८

तिर्थचायु, नीच्चेर्गोत्र, उद्यीतनाम, अने जीजा प्रर्याख्यानाव- ` रणनी चोकम २६॥

च्छे र्गसी, पमत्ति आहार जु खल परूखेवा थीणएतिगादारग दुग, ठे सयरि अपमत्ते ॥१.७॥ अहच्डेओ-आठनोविच्छद्‌ पर्लेवा-षपवीषए हि | ठेभो विच्य याय इगसी-एका्नी यीणतिगः-पीणद्धितरिक | छउषयरि-गेतेर प्म्ति-पपत्तगुणदाणे | आहारजुअल-आहारफयुग०, | अर्थः-उपरनी खाठ प्रकतिनो वेद्‌ पांचमे युणएठाणे होय. अने आहारक शारीर तथा आहारक अंगोपांग वे प्रकृति खेपवतां ( उमेरतां ) एकारी भरकुतिनो उदय ठष्ठे प्रसत्त यण ठणे इोय, अने द्यां धीणद्धीत्रिक तथा आहारकष्िक पाच म्रकृतिनो विडेद होय. एटले गोतेर प्रष्तिनो उदय सातमे अ- प्रमत्त युएताणे दोय १७

सम्मत्तंतिपसंघयण, तिञ्मगन्नच्मोबिसत्तरिखपुत्ये दासाश्ञकखतो, उसि अनिञ्पटि वेञ्पतिगं २०५५

आहारागदग-भादारकद्िक| अपपत्ते -अपरमत्तगुगरण

सम्पत्त-समकित मोहनी | विसत्तरि-वोतेर | अंतो-अंत अंतिम-खां अपुव्वे-अपूवंकरणे छसष्ठि-उसर

धयणा अम्‌ [4 [र (५ [ [ज [9 निक + हासाई-दास्यादि अनिअद्ि-आनिषटात्तिकरणे 6 उक -षट्फनो वे अतिगंः-वेदात्रिक

अथः-सातमे युणठाणे सम्यक मोदनीय, वघ्वां तरण संघयण ( अद्धैनाराच, उवं अने कीलिका ) चारनो विक्ेद होय एटले बोतेर प्रकृतिना उदय ्ाठमा अपुवं गुणएगणे दाय त्यां द्‌ास्यादिक ( हास्य, रति, अरति, होक, अने दुगं

१४५ च्चा ) भङ्कतिना उदयनो विच्छेद दोय, व्यारे गासठ धर्- तिनो उदय नवमा अनिष्त्ति युणएठाणे दोय तेमांथी वेदिक ( पुरुप, खी, अने नपुसक ) २०८ संजलण तिग ठचो, सटी सुडुममि ठुरिख लोनतो॥ उवक्तत गुणे गुण स, हि रिसह्‌ नाराय दुग खतो ॥१९५॥

सजलणतिग सन्यरनातर%[ ठरिथ-चोषो गुगघद्ि- ओगणस्रारनों छ्ठेभो-उनोविच्छेद | खोभतो-लोभनो अत | रिसहनारायहुग-ऋषम- सष्टि-सागनो उयसतगुभे -उपश्चात मोह नाराचदुगनो मुदुममि-पह्मप्पराये ुणरगे | अतो-अत्तधाय

अर्थं -सञ्वलनतिर ( क्रोध, मान, माया ) एठ प्रकृतिना उदयनो विकेद थाय तेबारे सूद्धम सपराय दशमे यणठणे साठ भ्रकुतिनो उव्य दोय त्या सञ्वलन लो्ना उदयनो खं थाय एरते उपगरात मोद्‌ अगीयारमे युणएठाणे यओगणसाठ भ्रकृत्तिनो उदय दोय स्या ऋपननाराच अने नाराच सेघयण वे घ्रकू- तिना उदयनो खत्त याय १९ सगवन्न खीण दुचरिमि, तिः दुर्गतो खअचरिमिपणएवन्ना

नाणंतराय दंस, चञ्ठेखो सजोमि वायालता १०१

सगवन्न-सतावन चरिपि-3ाक्षपये दसणचउ-दश्चनावरणीय खीण-्तीणमोहना पणयन्ना-पचाव्नं च्छेमो-ठेदाय [चार दुचरिभि-छेनयुपेसमयनगे | नाण-सानावरणीयपाच | सनोगि-सनोगीगुणरने

सिद्दुगतो-निद्रादिभ्नो अत्थाय

अर्धं -छपर प्रमाठे सत्तावन परङ़तिनो उद्य क्ीणमोद्‌ यणठाणाना वद्वा वे समयमाना पेदेला समय लगे टोय र्या व) निखाप्िक ( निखा प्रचला ) नो उदय विच्छेद चाय, ते

अतेराय-अतरायपाच | वायाछा-चेतारीप

१8

वारे पंचावन श्रकृतिनों उदय वेदे समये दोय स्यां ऊनिवरः णीय पाच, अंतरा पांच, दद्च॑नावरणीय चार, एम चोद पङ्क तेनो दय [विच्छेद धाय, तेवारे सीम] यणञणे वेताली प्रकृतिनो उदय होय, खीं (देसवे तो एकताली रदी परंतु अगली गाधामां समजावदो ४०

तिस्थुदयाचरताधिर, खग ढग्‌ पत्त तिग सगणा अगुरुलद व्च निमि,ए तेख कम्माद्ग संघयणए।९१।

तिरधुद्रया-तीथकरनाम | परि्तिग-प्येकत्रिक

निभिण-नि्मागनाम कर्मनो उदय

छषटमा-ड अ-तज्‌ उर्ट-अदासिद्धिक = (1 आधिर-आस्थिरद्िफः अशुर ५9 घुचतुप्ङ्‌ कस्परा--मर्गसम्रर खगइदुग-खएताट्क वृन्नुचउ-वण्चतुप्फ गृ स्षवयय-एकप्धयम

अथः-अदीमां तीर्थकर नामक्म॑नो उद्य होय. मारे वेताल्लीस प्रकृतिनो उदय क्यो. अही ओदारिक छक ( श- रीर तथा गोपांग,) अथिरद्भिक ( अस्थिर अने अद्युननाम,) खगति्िक शुन अने अञ्युन विद्ायोगति; ) पध्येकभचिक प्रत्येक, स्थिर अने शुननाम, ) उए संस्थान, अयुर्‌ लघु चतुऽक ( खअषुरुलघु, उपघात, पराघातः, अने चश्चास, ) वणे चतुष्क, नि्मांएनाम, तेजल्षशरोर, कामणशरीर, एक संघयण वजुषन्ननाराच >) सत्तावीर पङ्ति. २२ ससर दृस्र साया, ऽसाए गयरं तीप वुठेप वारस अजोगि सुनगा, इतं नसऽन्यर वेखणि ।॥२९॥ सूसर-सुस्वरनाम असाया-अश्चातवेदनीय द्सर~दुःस्वरनाम अग-(प्मानी) एक साया-तरातावेद्नीय अपरंच-एु रीत

तीस-अीसनो , वुर्छे ओ-विच्छेद हीय बारस-वारनो उदय

[३१३

अजोपि-अपेगीएणरणि | यद्स्न~बदेयनाम यनेयसे मागेय-पेमा- यमय सौभाग्यनाप्‌ नस~यश्ननाम दभु मनर्‌ एकवेदनीय

र्थं -सुस्वरनाम, दुश्यरन(म, शाता अने यशाताए वेमाथो एक वेदनीय, चण तथा अरयमनी सतावीस्त मन्दी त्रस प्रकृततिनो विड तेरमे युणठाणे थाय तेवारि वार घरकृ- तिनो उदय अयोग केवली युणठाणे दोय, ते कदे ठे सोाम्य नाम, यदेयनाम, यदा कीर्तिनाम अने वे माद्टेनु अनेरं एक शातीवेदनीय चार्‌ ९९) तथा

तस तिग पर्णिदि मएखा, जग निणु चति रिम समयतो उदस्परो सम्मत्त उटजञ्न्बुदीरणएया, परम षमन्ता सग गुणे पाठातरे पमत्ताह्‌ सगति गुणा २३ तपतिग-त्रप्तिष पवरिमसपय-भतसमये | परम-पएटलु विगरेपके प्णिदि-पचेद्रिनाति अतो-अत याय , | अपमरनाड-भपरमत्तादि मणुभारगड्-मदुष्यगु | उद१ (उदयन सन सगयुभेद्-सातयुणराभे अनि मति विगुणा -निरउणुनाणयु जिणुचति-निननाम अने उमभरणफ-उ्दीग्भाजा उचचर्मोति णी

र्थं -तरसत्रिक (त्रस, वादर, प्य, ) पचेय जाति, मनुष्या ने मलुष्यगति, जिननाम थने उच्चेगोच, वार भरकृतिनो अयोगी युणगणाने अत समये अत याय यदीया उदयनो अधिकार समाप्त थयो दूये उदीर्णा ते उदयनी पेस्न जाणव) पण पटु पशे के अभ्रमचाद्ि सात याणे उदयनो भङृति कद्‌)2, तेथी उदीरणामा त्र तरण प्रकृति ठंडी करवी ।२३।

पुप्

वेणि दार छग, यीएतिग नरं खम्पमत्तता गुएयाल सजोगि उद, रणंतु अणएुद्‌रगुखजोग)॥ २४ पेजाणि-ने वेदर्नीय(८१)| अड-भार | सजोगशे-सनगेरुणटमे आहारदुग -यादारकद्विक ¦ पमत्तंता-ममतगुणाणे उदीरणत्‌=उदीरणगा थःगतिग-थीणङीश्निक अंतथाय अणुद्ीरगु-अचुदरीरफ नर।उ-मतरुष्याउ गुणयाल-जीगणचालीश्च अमोगी-अयोगीगुणटगे |

अर्थः-जे वेदनीय वे तथा आदारकट्धिक, ीणद्धीध्रिक, मनुष्या आठ प्रङ्ृतिनी उदीरणानो विद भरमत्त युषठाणे थाय, तेथी ्रप्रमत्तादि युएवाणे उदयथी उदीरणा अण अण प्रकृ(तिनी चंढी करीष, तेवारे यावत्‌ उंगणएचाल्लीस्र प्रकृतिनी उदीरणा सयोगि युणठाणे होय, अन सखयागी युणवरे अनु- दरक दोय ९४ एसा पयमी तिगुणा, वेणि पहार जुञख्लथीएतिगं॥ मणुञ्पाछ पमत्तंताखजोगि अणएुदीरगो नयवं २५॥ ख्द्‌।रणएा सम्मत्ता एसापयदी-एउदीरणापर 0. अजोगी=अयोगी

कृति | धागातिम-यीगद्धीतरिक भयवे-भगवन

तियुणाः-तरणडणीनाणवौ | मणुआउ-मदुष्या | अणुदीरगो-अनुीरक वेअभि-वेदनीयवे पमत्तता-पमत्तनाअतल्णे ¦

अथः-एः उदीरणा प्रति उदयथकी चरण उवी जाएवी वेदनीय बे, आआह्ारकष्ठिक, थीणएद्धौिक, मनुष्या परकृतिनी उद्रणा प्रमत्तयुणएगणाना अंत लगीज होय. अ- योगी जगवान सव कमना अनुदीरक जाएवा ॥२५॥ उदी रणा अधिकार समार थयो, 3

( १४-२ )

उदय अमे उदीरणा खद्रा युणगणा छुपी सरली हेय ठे, पण सातमै शुणभे उद्यमा छोतिर भरति सेय अने उदीरणम्‌ तोतेर होय खायी द्रे शणढणे छद्य करता उदौरणामां भतरुष्यायु अने श्षाता तथा ओश्चाता वेदनीय त्रणप्रहृति ठी नाणदी, फारण के पचष्यायु भमत्तना योगे एरी उदरीये तेय बटफार वेदवा योग्य ते योदा कारमा वेदी, अपवर्चन फरण पिशेपे करी वेदे तेथी सोपय आगु हेय, अङक मरण पामे अने अपपत्तादि एणरणे अकार मरण ने होय) तथा शाता अशतानी उदौरणा पण प्पत्त पणे दोष.अने पदयतो सर्व एणटाणे छम,

ह्वे एता अधिकार कदे ठे

सत्ता कम्पा छि, सधाड्ख लसह अत्त त्वाप

संते अभया सयं, जा उवसमु विनिएु विख त९९।२६ा

स॒त्ता-सता खामाण-छाम कपषण णठाणा एषी फम्राण-कर्पनी सत्ते-सचाए हेय विजिणु-निननाम मिना ह्िद-स्थिति अदयारसय-पुरसः अ- | वी-योना (साखादम, वपादृभ-यच आदविये उतारीस गरणडाणे) लद्ध-छाध्यु छे जा~यायतर्‌ ' तदृए-जीना (मीभ्रणगमे) अत्त-भात्प उवरसयु-उपशचात मोह गु-

अर्थं सत्ता एरले कमनी स्थिति अवस्था वध तधा सक्रमण यादिके करी ताष्यु ठे याल्रल्ान कर्मीपणए जवे, (या- श्माना वाधेल्ला कर्मं ज्या सुधी खरे नदीं तथा अन्य प्रकृत्तिपणे संक्रमे नदी सा सुधी ते कै सामा ठे एम जाणवुं ) एवी सत्तामा एकसो यमतालतीस कर्मनी भ्रति यावत्‌ उपगत मो- द्नामे अगिखारसा रणठणा सुधी जाणएवी पण वीजे सास्वा- दने अने ्रीञे मिभ्रुणठाये जिननाम विना एकपतोसूमतालीस मैप्रकृति सत्ताए दोव ४६

तीफर नामकम मेने सता 1 जीव वीने शरीने एगगभे आ.

#

( ऽय्‌ ) | वता नथी, अने मिध्याव गुणटाणे जिननामनी सत्ता अंतहूर्च संम, जें कोर प्षायोपशशिमक सम्यक्टष्टि जीव पूर्वे मिध्यास प्रलय नर्कायु याथो पी सम्यक्त्व पामरी जिननामर याधी ते मरण समये सस्पक्छथी पिध्यातवे जाय, पण सास्वादने जनाय, तेयी पथ्या गुणठाणे यंयं मातर जिननाम सचा धेय) पण सास्वादन अने मिश्र रुणणणे द्योय तेयीं ते वे गुणाणे पकसोष्टु- ठततारीसनी सत्ता होय.

अपवार्य चञ्के, खएतिरि निरयाड विएु विखालस्तयं। सम्मा चचसुसत्तग, खयंमि इग चत्तसय महवाप अपुव्धारअ-अपूर्वकरणा- | निस्याड~नसकायु | सत्तम-सात महति दिक व्रिणु-तेषरिना [टी] खयंभि-्षय चउके-चारशुणटाणे त्रियारुसयं-एकपे येता- | इगचत्तसयं-एकक्तो एक अण-अनेतायुवंपि चोकडी| सम्पाई-सम्यशटषटि आदि तारी तिरि-ति्॑चायु चरघ्ु-चार गुणठणे | यद्या-अथवा अधंः-खपूरवैकरणादिक चार युणएठाणे एटते ०-४-१०.११ मे यणएठणे यनं॑तानुवं धिया चोकमी, तिर्थ॑चायु अने नरकायु षति विना एकसो वेताली धरकृत्तिन सत्ता दोय. अने अविरति सम्यकू अदि एटले ४-५-६-७ चार युणटाणे वत्तता द्तायक सभ्यकूटदि जीवने ( यनंतालुचंधीनी चोकमी, सम्यकसमादइनी, मिश्रमोहनोय अने भिथ्यास्मोदनीय ) सात प्रकृति कय गृष माटे एको एकताली प्रकृति सन्ताप दोय अथवा परक्तांतरे अर्थं अगली गाथामां केवान्ने ४७

खव्तुपप्पचञसुवि, पणयालं निरय तिरि सुराड विणा, सत्तग विएु अमतीसं, जा अनिद पटम्‌ जागो२५८॥

( ७८३ )

एमत्पष्य-कषपफ केवही,| पिरि-विचयु नावत्‌

खरप शरीरी घरा-देवायु अनिभरी-अनिरततिना डुदरि-पए्‌ चार्‌ एुणराणे। प्रिणा-तिना पटरम भागो-पयप भार्‌ पगयार-पस्सोपीस्नातरेष। सचप्िणु-सात पिना ख्गी निर्य-नस्मयु | अदीपत-एमो अद्री |

शर्थ.-( पलातरे ) चरम दारीरीक्परङेसीने ४-५६-७ चार युणठणे नरकायु, तिव चायु अने देवायु तरण विना पसो पीस्तालीस प्रछु्चि सत्ताए कटी शने सात प्रकृति पिना कायिक सम्धर्ट्िने एको -यमनी्तनी सत्ता चोथा युणडाणएायो यावत्‌ अनियृत्ति नवमा युणठाणाना प्रथम जाम छमे दोय, २८

धावर तिरि निरयायव, छग थीए॒ तिमे विगत सादार सो खो डविस सय,विखंसि विख ति कसायतो९९

यावर-स्थायरिर -पददिनाति दुरिसप्तप-पएफपोयापीप तिि-नििचदिः दिगल-गिकिरेद्रियग्ि्ष | प्रिथक्ति-भीने मागे तिग्य-नरप्दि सादा्-षापारण नाम्‌ (नयमाना) आयर~भातपद्रिफ सोर-सोन्ना परिभतिभ दौभा अने गीता पीणकिि-पीणद्धित्रि खभो-प्तय फसायतो-फएपापनो भदपाय

शर्ध -स्यावरद्िक ( स्थावर ने सृष्टमनामकमं, ) ति- यैव्धिक तिदचगति ने अचुपूर्वी, ) नरफद्िक ( नरर्मति थने ्नुपूरी, ) यातपद्धिक ( आतप छने उथोतनाम, ) ची ण्ोश्निक यौषद्धी, निऽनिड, छने पचलताप्रचला, ) पर्ये- द्विजाति, पिगष््निर ( वेऽमि, तेऽयि, चोर्टिदिजाति >) तथा साधारण नामकम सो श्रफृतिनो हय नयमा युणगणाना

( 9४६ ) अर्थः--प॑चार परछ्कत्तिनी सत्ता सयोगी यणठाणे दोय अने अयोगी यणएठाणे पण खुचरमं समयक्तगे पंचाश्चीनी सत्ता द्य त्यां ( देवगति, अने देवानुपद्वीए) देवद्धिक, शुन विदायोगति अने अद्यु विद्ाथोगति एवे) खगति{दरक, ( सुरन्नि यने दुरन्निषए ) भंधष्धिकः, स्पद्यं आव ( कके, मृदु, यरु, लघु, त, उष्ण. खिग्ध, रद ), वणं पांच ( कष्ण, नील, लोटत, दरि ॐ, शेत ), रस्पाच तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल, मधुर ), दारीर पांच रौदारिक, वैक्रिय, पादहारकः, तेजस, कामण ), तेज नामे वंधन पांच अने तेज नामे संघातन पांच अने निमी

नामकम एवं चालीत्त भक्ति ३९

संघयण अथिर संखा, ठक अगुरुलदु चज अपज्ञतत सायं सायं वा, परितुदवंगातिग सुसर निचयं ॥३२३॥

संघयण -संघयण चउ-चार परित्त-पत्येकतनिक अयिर-अस्थिर अपन्नत्त-अपयप्रनाम उ्वगातिक्ष-उपागन्रिक संखाण-संस्थान | सायंच-शाता वेदनीय | सुसर -घुखर नाम छक -ए चणपट्क भसायं-अशाता वेद्नीय | निञं-निेगोत्र

अगुरखहु-जयुर छ्घु | वा-जथवा

अथः-( उपरन चालीस प्रकृति तथा ) संघयण व- जशटुषननाराच, ऋषननाराच, नाराच, अञनाराच, कीलिका, ठेवदुं ), अस्थरषटक (अस्थिरनाम, अद्युननाम, दोनौग्यनाम, दुःस्वरनामः, अनादेयनाम, अयरानाम ), संस्थान समचतु-

( 9४-७ ) श्ख, न्यग्रोध, सादि यामन, छच्ज, इमक ) धरण पटक, ख- शुरुघघु चतुष्क श्ययरछथु, उपघात, पराधात, यने उश्वस ); अप्यघनाम, रातिवेदनीय सथवा धक्ातावेदनीय वेमाथी एक, परत्येकनिक प्रत्येक, स्थिर, शने शुन ), उपागनत्रिर ( यौ दारिकि, चेक्रिय, आद्‌ारकः, ) सुस्मरनासं थने नीचेर्मोजि एव योतेर ३३

विसयरि खञं अचरिमे, तेरस मणुख तसतिग जसा्जं सुजनग निणएुचपाणिदिख, सायासा एगयर ठे ॥३४॥

रि्षयर्िपोच्ते तपतिग-प्रसप्िफ उयो सक्ो-प्य क्षेप जपत-यशनाम पर्णिदिय-पयद्िजाति घसिि-टेठे समये | आदृज-आदेष नाम॒ | सायामाय-शातामशा तेरस-वेर मग-सौमाग्यनाम | एणयर-वेपानी (नर) पणुभ-मनुष्यत्रस जिण-जिननाम छेओ-गरद

स्थं -ए वदौतेर धकृतिनो रय दोय. वठी ठेठ समये तेर षरृततिनी सत्ताविषठेद थाय ते कटे ठे. मलुप्यमति, थ- सुपू्ी, यायु ) मनुप्यत्रिक, घत, घादर्‌ श्चने पर्या्त ) ध्रलघ्निक, यगकीत्तिनास, यादेयनाम, सौन्नाग्वनान, जिननाम उचैर्गो्र, पये दियजाति, अने शाता अश्ाता वेमनी एक उ- दयवती एम तेरनों पिद दोय ३४

पोतर्‌ प्रति आए आपु दढ वमी परोनानी नातिनी भे पर्ति उदुययती शेय तेमां सके, सक्रादी खथवि जेप पतरुप्य मति उदयकती

( १-०५ ) ते मध्ये शेप त्रणगतिनं दलिक संक्रमावी खपावे, तेम यीजी पण यथायोग्य जा णवी, तेने स्तिबुफ संक्रम कदीए. जेम पाणीनो परपोयो पणीर्माज सेक्रम, तेम जे सहे खस्ता दलिक परङृत्तिमहि रक्रमे पग जीवर घोयं संक्रमे तेयी स्िवुक संक्रम करणमांहे गण्यो.

( * & नर पणुपुदि विखा वा, बारसं चरि समयम ज। खेच पत्तो लि देवि, द्‌ वेदिखरं नमह्‌ तं वीर्‌॥ ३५ नरअणुुचि-मयुष्याुपू- | जोखविउ-जे खाबीने | वदिं दित विणवा-वरिना [वीं | पत्त-पाम्यो नमह-नमस्कार करो वारस-वारमकृति पिदि-सिढगति तयीर-ते महावीर स्वामीने चरिम्तमयंमि-ख्ष्टे समये | देविद-देवरदरभरिए

ख्थः-मुप्यासुपर्ीनो उदय नथी तेथी ते विना मतांतरे धार प्रति देघ्च समये जे खपावीने मोङ्गति प्रत्ये पाम्यो ते पत्ये देवे वंदित तथा दे्ैडसूरियि व॑दित एवां मद्वीरस्वा- मीनं चरणएकमल प्रत्ये नमस्कार करो ३२५

मतुष्यगति, मनुष्याय जस, यादर, प्याद्ठि, यक्ञःकीश्ि, आदेय, सेभा- ग्य, तीथकर नाम, उचेगौत्र पचेद्रियजाति, एक वेदनीय वार भृति चरम समये उदयवती छे ते मारे स्तक संक्रम बिना खमावे शिति क्षय थायते

पारे बार भृति शु ध्याननो चोधो पायो सषटुच्छिन्न करिया अनिषटत्ति एषे नामे छे तेणे करीने खपावे.

इति श्री ह्ितिय कर्मस्तव कर्ममय समाप:

खद्यवन्न.

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उदीरणा य॑ज उदयनी परेन के, परंतु सातमे गणटाणेथी वे वेदनीय तथा मतु्यायुए चरण भ्रकृति ओखी धायते, अने चोदमे गुणडाणे अयोगी भगवान अनुदीरेक होय. तेथो त्यां कोई भृतिनी उदीरणा होय. वाकी सवे उद्य प्रमाणे तेथी तेनो य॑त्र विस्तारे वताव्यो नथी

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८।१४८१४ १४५ अह सत्तमा ° ८८ प्रति होय

१३८| उपप प्रेणीवागे-अनतानुषपी ्ोरदी, मिध्याख पोदनीय, मि मोष्नीय, सपक्षित मोदं ग्री, सतनी सत्ता खपे पटे १८१

क्षवक प्रेमी पार-१४८ पायी देयायु, मरकामु, तथा तियं श्वायुषु तग सपति एटनेशणम्‌

कायस्समक्िती- १४८८ पाथी परी दस प्रति खपे खे १३८

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यु जतां १७२ तथा उपक्रम ्रणोर्‌ १८१ मांथी नरकाय तथा तिय चायुनी सत्ता हेय एररे १३९ स्थावरद्विक, तिचद्िक) नरक द्विक, आतपष्टिक, थीणद्धीन्नक एकेपि जाति विगर्त्रिक, सा धारणनापर १६ प्रषति अदी खपावे एटरे वीजे भागे १२२ अप्रत्याख्यानी तथा प्रत्याख्यानी चोकटी आठनी सत्ता अहीं खपावे १२२-८-१९४

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अही नपुपक्वेदनो क्षय करे;एट डे चोये भागे ११४-१११३ अरीं दछीवेदनो क्षय करे पटे पांचमे भागे १२१६९-१=११२ अदी दास्यषटकनी प्रकृति पवि एटङे छे भागे ११२-६= १०६

अही पुरूषवेदनो क्षय करे एछे सातमे भागे १०६-१-१०५ अहीं संञ्वछन क्रोधनो क्षय करे एटरेआटमेमामे १०५-१-१०४

अही संञ्वखन माननो क्षय करे पटले नवमेभागे १०४-१-१०३

अही संज्वङन मायानो क्षय एटे दङ्षमे शणटाने १०२३-१-९०२

94 ण] सुमसपराये | ८१४८।१३९।१०२्‌] सजवरुन खोभनो क्षय करे

१४० पुरे अगीओआसपे गुणटणे

०२१ ८८१ ०९१ ९१| उपदा मोहे | ५४८।१३९।१०१| अदं निद्रा तथा मचलनो क्षय १४२ थाय पटे वारमे गुणने

१०२-२९९ १२ कीणे ७।१०४| (१०२१ चार्‌ दर्शनावरणीय, पाच भराना- ९९। वरणीय, तथा पाच अंतराय

चौटनो क्षय थाय पए्डे तेस

२६ सयोग केवीये | +| ८५| | ८५| एणदाणे ९९१४८५५

२४। अयोगी | ८५| ° | ८५| देवद्विक२, खगतिद्विक र, गधद्र १२ १३/ कफम्‌) स्पशं <वर्ण५,रस५ एरीर छेछाना पदे | | १२ | १६| ५, वधन५, सधातनप, निर्मा णनाम१,सपयणद,अस्िथिरपरक ६) सस्थान, अुरुखधु चतुष्क ४,अपर्याप्तनापर वेमाथी एक वेदनीय, मरङत्रिक३, उपा तिक, सुप्वरनाम१ नीचगो १, येतिर मकृति खपवि त्यारे < ५-७२-१३ १३। > १३। मुष्यानेफ, नसन्रिफः यना) अदियनाम, सौभाग्यनाम जिन नाप, उचगोत्र, पचेद्रिये जाति याफीनी एक वेदनीय एतेरम कृतिनी सत्ता अयोगी गुगयाणा ना छटा समये खपापे

समये

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पथ श्री वंध स्वामि नामा ततीय कमयरंथ ~~~ -2~-~--~------~ वंध विहा विमुक. वंद्विख सिरि वमाण जिणएचंद्‌ गद्‌ आईसु बुं, सनासं वैध समित्तं

वंध-जीवसायेकमं वधर तिरिश्र मा्भणाओने विपे. विहाण-करदु, निपनः्ववं| वद्ध॑मान-वीरस्वामी वुच्छ -कदीर्य वियुकं-विकशेपे भृकाणा | जीणचद-जीनोने व्रिपे | समासओ-संकेषथी

(रदित) चंद्र प्रमान | वेधसामित्त-वंध स्वामि- वंद्विय-वांदीने गईआडृघु-गति भादि चोद स्वपणु

अर्थः-जीव प्रदेरा साथे कर्मनो जे संयते व॑ध कटय, तेसु मध्यालादिक देदुए करने निपजावदुः ते वंध विधान, © तेथी विमुक्त (रेत ) एवा श्र वद्धंमान खामी जे सामान्य केवल मांडे चख सरखा ते परस्ये वादने, गति आदि मागण स्थानने विषे संदेपथी वंध खाभमिखपणं ( कथो जीव केटी प्रश्चति वापे ते) कदीद्च॥ १1

हवे चोद मार्मणानां नाप कटे दे,

गद्‌ ईदीए कार्‌, जोए वेर्‌ कसाय नाणेय संजम देखए लेसा, नव चम्मे सन्नि आहारे १॥

गदू-गतिमार्मणा कसाय-फपायमागणा | मव-मव्यमार्गणा दद्रिए-दद्वियमार्भेणा नाणेय-ज्ानमार्मणा सम्मे-सम्यक्तमार्गणा फाए्-कायमार्गणा संजम-चारितरमार्मणा | सन्नि-तंतिमणा जोपए-नोगमार्मणा दंसण-ददीनमा्गेणा | आहारेक-आहारकमाम॑गा

धेए-वेदपार्मणा टेसा-खेव्यापागेणा |

छर्थ.-गति, डय, काय, जोग, वेद्‌, काय॑, कान, च।

सि, दरशन, लेग्या,

न्नव्य, सम्यक्स, सङ्ग अने आहारक षए

चोट मूष माणा ठे, तेना उत्तर बासठ सेढ थाय ठे रा

(५ ४[४जोगमार्मणा ३७ नानमा० ८।९ दरीनमा० ४१ रसम्यकत्वमा०

त्र मनयोग | मतिहान चु पिभ्पाखो मनुप्य वेचनयोग्‌| युतज्नान अचकु सास्वाद्नीय तिर्यच काययोग | अवपिज्ञान अवधि मित्र

नारी, (९ बेदार इद्वियमार्गणा५ तवेद

२मनःपर्यवङ्नान | कवन क्षयिपशषमिकर सेवणन्नान (२०टेश्यामा९० ओपशपिक

एकेद्रि पुस्पवेद | परतिभङ्गान ङृष्णटेद्या | क्षायक्र येरि नपु सफ्वेद। श्ुतअज्ञान नीर (*३ेसक्निम तेदद्रि ६कपायमा० ४| विमेगहान कापेत सि चरि क्रोध (वासििमा०७ तेनो अपन्नि , पचि मान | सामायक प्च [?४आहारफमा० रेकापमार्गमादे। माया | उदोपस्याप| म्या आहय

पृथ्वीफाय ठभ अपराय तेउकाय वायुकाय वनस्पत्तिफाय श्रपकाय

परिहाग्रिथुग! एभव्यपार २] अनाहारम्‌ मूष्ष्मसपराय, भव्य

यथाख्यात अभ्य ¢ देशविरति

अविरति

जीएसुर विञ्वाहारडदेवाड निरय सुदुम विगलतिग एभिंदि थावरा यव, नपु मिच्छ दुम ठेषेषठ

जीण-जीननामर्प य॒र-षरदि परिर-~ैकरियदिफ आद्ास्-गाहाखष्रिक दु-ष्टिक ( उपरनांगण ) देशाउ-देवायु

निरय~-नरस्त्रिफ आयद्-मातपनापकर्म घ॒ष्ुम~पपमतिफ पु-नपुसफ्वेद विगर-गिकिरदधिनीम | पिनञ-पिन्यातमोदनीय विग-त्रिर ( उपरनात्रण) | दद-हुड सस्थान एर्िि-षएदविवजाति | देषह-ठेवदह सघ्रयण्‌ यावर्-स्यावरनापकमं

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श्र्थः-( द्वे १२० मिली केटल्लषीक प्रकरृतिनो अनुकम स॑ग्रद्‌ कडठे, खागछ जे प्रकृ तिथी जटली परकृति लेवी कटश स्याथी तेरती प्रकृति अनु कमे लेव),) जिननाम (१) सुर्िक २, (देवगति, देवानुपु््ब)).वेक्रियष्ि कय (विरयश्रीर, वे क्रियच्॑मो- पांग ), आदहारकद्धिक (आहारक शरीर, आहारक अगोपा ), देवाय ए, नरकत्रिक २९ ( नरकगति, नरकन) अनुपूर्व, नरकायु ) सृदमन्निक २४, ( सदम. अपर्याप्त, साधारण ), वि- गलत्रिक २७ ( वश्मि, तेद, चोरियि ), एकेमियजाति ‡, स्थावर नामकम २९, आतप नामकर्म २० नपुंसक्त्ेद २, मि थ्यातमोहनीय २, हुंमसंस्थान १३, अने ठेव संघयण २४।३॥

पण मनज्का गिरं संघयण, कुखगईं निख इईभ्थि उदग थीएतिगं उज्ेख तिरिगं तिरि, नरा नर उरत्

छग रिसदं ॥४॥ ` अण -अनताचुवेधि चार | निभ-निचर्गोज् | तिरि-तिथैच (आगु)

कषाय | इथ्थि-घीषेद | नर -नर, मवुष्य (आयु) पञ्मागिई-पध्याङृति (व- | दृण -दोर्माग्य (जीक) आउ-भायुष्य च्चेनां चार संस्थान | थीण-यीणद्धि (त्रिक) | नर-पनुष्य (दिक) संघयण-संघयण (मध्यनां ¦ तिग-तनिक | उरल-अ।दारिक (द्विक) चार) | उज्जोअ-उग्रोतनाम | रिसई-वजक्षभनाराच कुखगई-अशरुभमखगति | तिरिदुगं-तिचद्विक अथेः-अनेतानुवंधि ( कोध, मान, माया, लोन) कषाय चार, मध्यनां चार संस्थान ( न्य्ोध, सादि, वामन, कुब्ज ), समध्यना चार सवयस ( ऋषन्नाराच, नाराच, सअशछटनाराचः कीलिका) एवं ३६, अशुनविदायोगति ३७, निचेर्गोत्र ३,

११ खीवेद २९, तथा दौननीग्यत्निक दोर्नाग्य, दुखर, अनादेय ‡), यीएदीन्निक ( निदानिद्रा, पचक्ताप्रचल्ला, थीएद्धी ) एव ४ण उ्यात नाम कर्म ४६, तियचष्धिकं ४०, तिर्य॑च गति, तथा ्नुपर््वी ) तिर्यचायु ध्ए, मलुप्यायु ५०, मनुष्यिक ५९ (मनुष्य गति तथा अलुप्वी)श्मीदारिकिषटिक ५४, (योदारिक शरोर तथा अंगोपाग ), वजूह्पन नाराच सधयण ५, प- चावन ्रकृतिनी ऋम सङा जाणएवी

नरफरतिने मपे पध स्त्रामितपशु कटे 2 सुरई गुण वीस वक, इगसञ खरेण वंधरहि निरया तिस्थविणा मिच्छ सय, सासि नपु चविशा उनु५।

पुर-एरारिि वरधर्दि-वि सप~सो इृ्णपीप्त-ओधणीप्त | निरया-नाररी साषगि-सार्बादने वज-पर्मये निव्य-तीरधफरनामकपं | नदुचउ-नपुसकादिकषार श्पभो-पएकपोप्क पिणा-मिना विणा-रिना

ओदेण-भेपर, सामान्पपणे। भिच्छि-पिव्यात्वे | च्डर-ण्ड

श्रयं -द्वे गति सार्मेणाए वध कटेठे प्रथम नरकगतिए सुरखग शादि यतप नामकम सुधीन अगणीस भछकृति व. जनि एकसोदक षशृति सामान्ये ( युणगणानी पेश विना) सवै नारकी सम॒चयपणे वाधे, (नारकीने नत्र स्वन्नावे सोगणीसनो वध रोय ) मिष्याठ युणठणे तीर्थकर नामनो चधनदौयते माटेते विना सो भ्रङृतिनो वध दोय सास्ग- दने नयु्कादि ( नपुसक, मिया, हुम, ठेव ) चार विना उन्ुनो चध दोय \॥५॥

५१ विणु अण व्वीस्तमीते, विसयरि सम्मंमि जिए नराखजुश्या रप रयणाद्सु चगो, पकाश्यु तित्थयर हीणो

विणुजण-अनेतानु॑भि क्छ गुणणे | तरण नरके आदि विना | निण-जिननामकर्म भगो-भांगो छवीस-छव्वीस नराउ-परुप्यारप पकारमु-पक प्रभादिक मीसे-मिध्रणयाणे जुजआ-युक्त त्रण नरके वरिसयरि-वोतेर इअ-~पए तित्थयर-ती्रकरनामकरम

` सम्भमि-अव्रिरति सम्य- | रयणाडृनु-रतनप्रमादिक | दीणो-दीन (ओभे) अ्थः-अनेतानुव॑धि आदिथी नरायु लगे ठव्वीस प्रकृति ज्रेना मिश्र युणठाणे सित्तेर प्रङ्कति वापे. ने (जननाम तथा म॒नुष्यायु मेठवतां वोतेर प्रछत अविरति सम्यक्‌ युणएठाणे वापे एम रस्नप्रनादि तरण नरके ओधेथी चार गुणगणं सुधी एज स्नांगो जाएवो, पंक पन्नादि तरण नारकीए तीर्थकर नाम कमनो वंध हीन करीये ( तेवारे ओघे १०२, मिध्याखे १००, सास्वादने ८६, मिश्रे ७०, अने सभ्यक्खे ७२ षक्रतिनो वंध प- देली, बीजी अने चरीजी नारकीए दोय, अने ओघे २००, मि- थ्यासे १००, सास्वादने ८६, मिश्च ०, सम्यक्त्वे ७२ प्रकृतिना बध चोथी पंचमी अने उठो नारकीए होय, कारणएके घ्रण नारकीमांथी खाव्यो जीव तीर्थकर थाय ते माटे ¡ते नामः

कमनो बंध दोय.

` शामा कलु छे के पथम नरकनो आव्यो जीव चक्रव थाय, वीनीनो आव्यो वासुदेव थाय, जीजी सुधीने आग्यो तीथकर थाय, चोधी सुधोनेा आ- व्यो केबठी थाय, पचमी सुधीनो आबग्यो यति याय, छरी सुधीने आव्यो देश

विरति थाय, अने सातमी सुधौनो आन्यो मह्स्यादिरू सम्यक्ल पमे पण देश परिरतिष्णुं ना पामे

एर्‌ अनिण मणुच्माड खोदे, सत्तमिए नरछगुच विण मिच्छे शग नवं सासाणे, तिरि्याड नपुंस चछ वज्ञ ॥४॥

भने नरदुग-अनुष्यद्िर सासागे-सास्वादने निण-जिननामर्म उच-उचेगेति तिरि -तिकषवाषु मणुभआउ-मदप्यापु व्रिणु-विना

ओदे-गोषे मिन्ठे-पिव्याते 1 सत्तपरिए-सातमीप इगनब्‌-एकाणु वर्ज-वर्ना

यर्थ॑.-जीननाम तथा मचुप्याु वे प्रङृति एकसो

एकमाथी हीन करीए ते वारे ओधे नवाण प्रकृति सातम नारकीए वधाय, [ सातमी नारकीनो आव्यो जीव मनुप्य थाय मादे ] छने मनुप्यष्ठिक तथा उरगो तरण भृति विना मिथ्यासे ठन्ुनो वध दोय, तथा तिय॑चायु, अने युपस- कादि ( नपसकवेद, मिभ्याख, मसस्थान, अने ठेवषटुसघयण पफेचार एम पाच घटति व्जीने एकाण भरकृतिनौ वध साखा दन युणठणे रोय ॥७१

अण चञ्वोस विरहिचखा, सतर उगु्ाय सयरि

मीप्तगे सतरसमो आदि मिच्छे, पज तिरि

विणु निणएहार

अणनमनतायुपधि पन-पर्याह्ष

चरयीपत-चोवी मोमदगे-मिष्द्विक (मिश्र | तिरिभा-तिर्वदप्ि चिररिमा-पिरदि सते अकि | स~सहिति सेतरसओ-एरसोघत्तर तव नरदुग-पुष्द्रिः | ओहि-भोपे 4

उ्ाय-उचेर्गो पिर2-पिष्यावे आदार-गादारकदिक

५४ अर्थः-अनंतानुवंधे आदिथी तिरिद्ग सुधीनी चोवीस प्क्रति एकाणौ षृतिमांथी जंढी करीये, तथा मनुष्य- अने उच्चेगोत्र चरण प्रकृति [ साहेत करीए ] नरेठवीए, तेवारे मिश्च अने अविरति सम्यक्त्‌व वे गुएठाणे सितेर प्रकृतिनो वंध दोय, सातम] नरकेथी नीकव्यो मनुष्य थाय पण मनुष्य्धिकने जवां तरे चदय आवे. ठ्वे तिर्यच- गति वंध ठे-पर्थापता तिर्थच पचैँ(ढने जिननाम अने आ- दारकद्िक अरण विना एकसो सत्तर पकृतिना वंध पे अने मिध्यासखे होय. तिथचमां गति भ्रस्ययेज जिननामनो वंध हाय अने संयमविना आदारकद्धिक पणन चंधाय. ॥॥ ` विएु निरय सोलन सासि, सुरा अण एगतीस विएु मीपे सुरा सयरि सम्मे, वी कसाए विणा देते ८॥

विणु-विना अण-अनतानुधि भारि | सयरि-सित्तेर

निरय-नरक (चरिकरादि) | एगतीस्त-एकनीश् ना

= से अ~ वाजा(अप्रलयाख्या -सोट -पिश्रवुणट{णि

सोल-सं मीसे-मिश्रयुणराणे नावरणीय चार)

सासणि-तास्वादन स-सदित कसाए-कषाय

सुराड-देघ्रायु मूराड-देत्रा् देशे-देशविरतिशुणगणे

अथेः--नरकन्रिक मादि [ लष्टने दंस ठेव लगेनी ] सोक मङरतिविना सास्वादन युणएवणे एकसोने एक परकृति वापे, देवाय अने अनंतानुवंधि पदिथी रित लगेनी एकत्रीस मठी वच्रोस्त भ्रति विना खगनोतेर पर्ति मिश्र युशठाणे वधे, ने देवायु सहित सित्तेर धरति सम्यक युणठणे वापे, तथा वोजा अप्रयाख्यानीया चार कषायविना ठासठ

१५ घरति पांचमा देशाविरति शुणएगणे वापे पर्याति तिर्यच प॑चे- छिने पाचज युणठणा होय ॥ए॥ हवे मलुप्यं गति मये वध स्वामितपणु कदे > चखगुणे्ु वि नरा, परमजया सजि खद देसाई निए इईक्ारस हीए, नवस्य खपजत्त

तिरिख नरा॥ २०॥ इअ-पएमजे सजिण-जिननाप सरित ' दिण-दिन चरशुणेष्रु-चार एणगणे | ओहु-भपे नवसय-एफसोनव गिनरा~मघुप्यनेपग | देसा-देशतिरतिआदरिये | अपजक्त-अपयौपतपरेद्र परमू-विगेष निणश्कारस-निन एका- | पिरिभनरा-तिर्यच तथा अनया-अगिरति शणगणु दकं | म्यो

अर्थं -एज भ्रमाणे चार युएठाणाने विपे तिर्यच्न पेदे मजुप्यने पण जाणबु [ एटले मनुष्य उवे २२०, मिध्याखे ११७, सास्वादने १०२, मिश्रे ६९, वापे ] पण एटल्ु विशेष के अति- रति सभ्यर्ख युणएठाणे जिननाम सदत वाये देश विर व्यादिक शुणठाणे उव एटलते कर्मस्तवोक्तनीपरे [ बीजा कर्म- थमा कट्या प्रमाणे ] करेदु [ ते केव रीते ? पाचमे ६७, ठे ६३ सातमे ५९, आठमा शणगणाना पेदेला जागे यण, बीजा, त्रीजा, चोथा, पाचमा अने ठछठा नागे ६, सातमा नागे २६, नवमा युणवाणाना पेदेले नागे ५२, वीजे १२ चीजे २०, चोधे २९८, अने पाचते २५, दृद्मा युणठणे २७, अगियारमा, चारमा अने तेरमा युणखाणे तथा चञदमा युषे सवधक दोय शने जिनादिकथी नरकत्रिक लगे जिनणएकाददन सगि यार प्रकृति दिनि कीे एकसोनव भश्कतिनो व॑ध छअपर्यातत( नि-

५६ अने अपया मनुष्य वापे. कारण के एने एकज भि थ्याख युणठाणं टोय. यद्यपि करण अपयौप्ता मचुष्यने सम्य- क्स होय त्यां जीननाम पण वापे ठे, पण अही लन्धि अप यौ्ता मनुष्यनी तिवक्छा करीठे, ते माटे एकज मिभ्याख युएठाए होय १० हषे देषगपिने धिषे वंध कहै निरयव्र सुरा नवर, प्रदे मिच्छे इंभिदि तिग सहि. प्रा कप्पटुगे विञ्एवं, जिएदीएो जोक जवण णे ॥२२॥

९१,

सर्यच्व-नार्‌कर्निा पट एदि ग-एकेद्वितरि कृ | निण-जीननामकर्म

सुरा-देवता सदहिभ।-सरहित दिगो-रिना (हीण) नवर-विशेष - कप्यदुगे -वे देवलोके | नोई-ञ्योतिषपि ओहे-भपे वरिअ-पण | भव्रण-युव्रनपाति

मिच्ञ-मिथ्यासे एव्र-एमन वणे-ग्यतर

अथेः-नारकीनी पेरे देवताने पण वंध कडेवो, पण एटघ विशेष जे वे अने मिथ्यास्र युणठे एकेद्धिय, स्थावर, सने अआतपणए व्रण प्रकृति सदत कदेवा, जे माटे देवता एकै यपणएुं वांधेठे, ते मारे ओघे २०४, मिथ्यासे १०३, सास्वादने ९६, मिश्र ७०, सम्यक्से ७१, नो वंध दोय. पडेल वे देवलोके पण॒ एमज वंध करेवो. ञयोतिषि जुवनपति अने व्य॑तरे (जन नाम्‌ (इण (यदुं ) कदे. कारणए के व्यानो आढ्यो जीव जीन थाय नदी, ते मारे ओघे १०३. मभ्यासे १०३, सास्वादने ९६ मिश्रे ०, सम्यक्सवे ७२ वांधे, १९१

रयणुव सणं कुमारा, आणया उलो चऽरदि्ा॥ च्पज्ञा तिरिखवनवसय, मिगिदि पुटविजलतसुविगते

॥२२॥ रयणुब-रनपभानीं पेड चार | अिदी-पररेद्रि ` सणङ्माराट-सन्छुमार रदी ग~रहित पुटी नर-पृथ्यीफाय)

आदि | अपल-अषयीष्ठा अपायं

आणापाई-मानत आदि | तिरिजव- तियैचनी पेदे | तस-दनस्पतिक्षाय उजोमचउ-उयेतादिक | नदसय-एकतो नय विगले-विगर्छे्रिय

अर्थं -रतनभरना नारकीनी पेते सनतकुमारादि (सनत्कुमार, मादे, ब्रह्म, लां तक, मदादुक्र, सदसार ) देवललोकना देव- तने चथ कदैवो, एकेद्भिमा उपजु नथी ते मादे एकेद्धिक त्रिक वापे, तेथी ओषे १०९, िथ्यात्वे ०, सास्वादने ९६ मिभे ७४, सम्थक्छे ७२, वापे आनतादि ( खआणएत, पणत, सारण, अच्युत ) चार देवलोके चने नवयैवेयकना देवता उदयोतनामः, ति्य॑चष्धिक गतितथा ्नुप्दीं ) अने तिर्य॑च आयु चार भर्ति विना रन भ्रनानी पेरे बाधे, ठेवता तिर्यचमा जाय ते मारे चार भरति वापे, ते वारे आधे ९७, मिष्या एदे सास्वादने ९२ मिश्रे ७०, विरतये ७२, वधि, ( अनु- तर विमनि एक सम्यक्त्व युणएठाएठ 2, मदे स्या ७९ वाधे ), ( द्वे श्छिय मार्गणा तथा काय सागेणाए वध कंदे 2) अ- पर्याप्ता तिर्यचनी पेरे मिष्या युणठणे एकसो नवं प्रङेतिनो वध शोधे एकरेछि, पुथ्वीकाय, पकाय, वनस्पतिकाय, ने

विकसने रोय ५९२ १९३

(५6

ठनवैर्‌ सासणि विषु सुद, तेर के€ पुण धिति चनव तिरि नराकदि विणा, तए पात्ति जति २३

छनवई-उन्यु ३६-कोदक नरा-पनुष्य सासणी-पास्वादन पणवी आउदि-आयुष्य विणु-षरिना विंति-करेछे विणा-विना सुहम-सुष्म चडउनवई-चोराणुं तणुपन्नत्ति-श्रीरपयीष तेर-तेर तिस्थि-तियैच न्तिजञ-पूरी करे

अथैः-सास्वादन युणठाणे सूम भ्रिकादिधी ठेव लगेनी तेर प्रकृति १०९ माथी डो करतां उन्म कृतिनो व॑ध दोय, छने कोटक आचाय एवी रीते कदे ठे के अपया, तिर्थचायु ने मनुष्याय एवे विना चोराणुं प्रकृति सास्वादने वांधे कारणके एकेडियादिक सास्वादन वंत थका शरीर पाक्ष पण पूरी करी शके तो आयुष्य केम वांधे ?॥ १३

त्यां पेषे मते श्षरीर परयाक्ठि थया पडो पण सास्वादन रहे, लयां-आयु वंधाय, त्यारे ते ९६ बांधे, अने बीजे मते तो शरीर पयौक्षियी अगाउज सा- स्वादने जायता आयु क्यांधी वधि ल्यारेते ९४ वधि. एवे मत जाणत, एवेपां१्४्नो मरतखरो भासे, जे भणी पएकद्रियादिकयुं नघन्य आयुपण २५६ आवनिकानो शुक भव होय ते आयुना ये भाग गये एकसो इकोतेरमो आदलिकाए आयु वंधाय अने सास्वादनपणुं तो उक्ष पण ऊं आवरिकन होय तेटलापांहे परभवं आयु केम वंधाय ? तेमारे ९४ वधाय एमत युद्ध नणायदे. `

चहु पणदि तस्ेगङ्‌, तंस जिणिङक्षार नर ति गुच विणा मणवय जोगे खंहो, उरते नरनरु तम्मिस्से २४॥

ओहु-भोपवध , | नरतिग-ुप्यनिक उग्ठे-तादाङि ओद्‌ पणिरि-पचेषि (मार्गणे | उच उगत क्कि काययोगे

| पि | गरी यथने बाञकाय मार्गण) | मनवच -मनबचन भभग निगिदार-निनारिकि अ- | नोगे-योगा्गणाये | त~तेमन

गीजार ओहो-भोवे पिस्से-अौशरिक पिधपोण

` अर्थः-पचेंिय अने चसकाय सार्गणाये चौदे णवे

छोध ते वीजे कर्मधरये क्यो ठे तेम कदेवो. दषे यतित्रस ते तेखकाय वाचकाय, तेते जीने नाम आदे देष नरकत्निक गे श्गयार ने मनुप्यत्रिक तथा उच्चैर्गोत्न एम पदर प्रकृति एकसो वीसमाथी .टाछीनि एकसो पाचनो चैध दोय, युणठाणु एकज मिथ्या दोय. -( इवे योग मार्मणाये षध कदे ठ. ) मनोयोग वर्गणा चार नेद सत्य मनोयोग, मूपामनोयोग, सत्यामृपा 'मनोयोग, असत्या मृषा मनोयोग ) तेमज ( मनोः योगनी पेरे ] वचनयोग चार जेदे आठ योगते श्रिये तेर शणठणे ठव ते कर्मस्तवना पेरे व॑ध कदेवो. दारिके काय योगने मलुप्यनी परे वधनो नागो कटेवो तेमज भाग तेर्‌ दुणठं खोदार्कि मिश्रयोगे घंध कदे २४॥

ध्वे ते ओदासि कर्मण्‌ सपि पिशरकाययोगी अपर्यापावस्यि जे मदुष्प तथा तिच हेय त्या वध फे

छदारठग विणोदेभ्वजदससल मिच्छिनिण पशगदीए सासि नवशविणा, तिरिख नराच सुम तेर ॥१५॥ आ्षरछक-अदारडग | जिणपणग-जिनेपचश | तिरिभनराड-विर्यचापु 9 िण~हिण (मोरी) त्था भनुष्यापु चडससद-पएकसो ष्दौद्‌ | सासणि-सासादन | षम्य "पिकि-पिध्याल्े सरनद्-दोसणु दैपदेर्‌

१०० र्थः-खादारक्ादि (ादहारकद्विक, देवयु, नरकत्चिक ए) विना ओधपणे एकसो चोदघ्रकृति बाधे ( ओदारिक मिश्र काययोगी मनुष्य तिर्यैचने खपयौत्त पणे यदारिक मिश्च दाय, आदारकष्िकतो अप्रमतज वांधे, ते अपर्याप्त पणे दोय नरी , ने देवायु तथा नरकत्रिक चारतो प्यीस्तोज बाधे, ते मारे प्रति वाध.) अने मिभ्यासे जिन पंचक (जिननाम, सुरघ्िक, अने वैक्रियद्विक ) नी पांच प्रकृति ।दन करीये.त्यारे एकसो नव प्रकृति बाधे, तथा सास्वादन युणएठाणे तिर्यचायु, मनुष्याय, अने. सृक््मन्रिकादिक तेर एम पंदर कृति श्ण्ण्मांथी काठतां चोराणनो. वंध. होय, ओदारिक मिश्रनो तो अपया- पणे पण अद्पकाठ-3. तेटला माटे आयुर्वध दोय अने सृहमादिक तेर धकृतितो सास्वादनेज बंधाय, ` मिश्रयुण वटँ तो दोयज नद्‌ २५॥

अण चउवीसाई्‌ विणा, जिणएपण जु सम्मि जोगि- | णो सायं विएुतिरि नरा. कम्मे, वि एवमादारऽमि ओहो ॥१६॥

अर्ण-अनंतायु बेभ्यादिक | जोगिणो-तयोगी शुगटाणे | कस्मेवि-कार्मग काय चउवीसाई-चोवीस साय-श्ञातावेदनीय , योगीने ष्ण

| . वि विु- विना एव -एमन जुअ-युक्त, सहित तिरिनिराड-तिर्वच अने | आहारदुमि-आहारकफद्विक सम्मि-सम्यकट गुणटार्भे , म्रनुष्यायु ओहो-भओप

| अर्थः-ते चोराणु मांदेथी अनंतालुवंधीश्नादिथी तिरथेच- सगे चोवोस ध्रङृति टाद्धीए्‌ अने जिनपंचक (जिननाम,

१०२ सुरद्धिक, वैक्रियक्धिक, पांच ) सरित करीष, तेवारे पचोतेर षक्ति खविरति सम्यक्त्व युणठाणे बधि अने सयोमी युणठणि एक शातानो वध तथा तियंच छने मनुप्यायु वे भङृति विना रेष कर्मण काययोगीने पण ओढारिकि मिश्रं योगीने परे, एमज दारक काययोगे अने आदारकं मिश्रकागयोगे पण उष षटते कर्मस्तवसा कट्या सुजव वध कदेवो ॥१६॥

सयोगि शणठाणे केवलि शषुद्षात एप्त 2 -६-७ समे ओदासि ¶ि- भाय योगी होय स्यात एक शता वेदनीन प, पूवं भव यक्ी इहं उसत्ति देशे आन्य यको जीव मधम सपरये केव फार्मण काययोगेन आहार ठे, परी पीमा समययी अदासि पिधित फार्म आशरसे त्वरि ओदारिकि पिधभा- योगी कदीये, शरीर निष्पत्ति छे शरीर नीप-या पडी ओदारिक फाययोग फीये

यतपक्त नोएणकम्पएण आहारेद अणततर जीयो तेणपर भीसेण ! जारसरीर्‌ निप्पत्ती १॥

ओदारिकि मिधने पेदे वीर चोु तेर चार्‌ धुण] षेव सया पेदेखे एणटणे तिर्यचायु मद्रुप्यायुःपे एवां ते ओौदारिफ मिधपणु तो शरोर परयाप्ि पूरी क्या अगाउज हेय ते पठी ओदर योग होय, अने आयुः दे शरीरं पपत पीनं वधाय, त्पारे भ्रमे एमे आघुनो कध वेपघटेष सया दी चोये मुणठाणे तिर्वच ७० पे, म्प्य ७? दमि, अने ओदास्कि पिभ्काययोगी ७५ बे एय कदु ते यणु विचारा योग्य छे, कारण के मनु प्यद्विक तथा ओदासिद्िक अने पजदपम साराच सथयण पांच शरकृति तिं वैच मुप्य सम्पर्टी वरे अने ओदारिक पिधकाययोगी वपे, ते मटुष्य तिष्व रकी बीमो जौदारिकि पिश्रकाययोमी फोणदहोयण१ तेमारेए पच मृति षने षे केम घटे १२ प्रपर फोण नाणे सा अभिपाये आष्यु दशे! ते प्रति विचरत सदेह दीक्राकारे एण विवक्ष्यो नयी

कर्मेण फाययोग म्वातराल वारे पेत अने उपनदाने पेदैठे समये सेय श्या देदटि सषुदेयातने भ्रीने चोपे पंचमे समये हेय, एने चणटाणां (पेद, हरु घोपु तेय) चार प्तेए ते तिर्नाम चथा पदुप्पायु वर्मनि भीदासि

१0 ७, मिश्रनी पेरे वंध केषो. जेप ओषे ११२, पिध्यातेः १०७, सास्वादेने ९४ सम्यक्त्वे ७५, अने तेरमे एक शातावेदनीय वपि, आहारक काययोग अने आहारक पिश्रकाययोग पए वेनो उदय च्छे एणढाणे डे, ते मारे त्यां ओधनी पेरे ६२ नो वंध दोय, आदारफ भरमत्त साधु चोदपूर्वीन करे, अने ते प्रारभ वेगा ओदाकि सये पश्र होय. ( जोवविजयजी कृत दवार्माथी)

सुर पओहो वेखवे, तिरि नरा रहि्ोख तम्मिस्से॥ वेखरतिगा इम वि्प्रतिञ्प्रकसाय नव च्ञ पचगुणा२७।

सुर-देवतानीपेरे तं-तेमज ति-नीना ओहो-ओषे मिसे-ेक्रिय मिश्रकाय | कसाय-कपाय वेऽव्वे-धेक्रिय कराय योगने योगीनि | तिरिभनराड-तियै चायु | वेयतिग~वेदन्रिक अने मनुष्याय | आईम-पेहेला पंच-पांच रहियो-रहित विभ-वीना - | शणा-गणटाणां

यर्थः-वैकक्रिय काययोगने देवतान पेरे वंध कदेव, तेमज वेक्रियमिश्रकाययोगीने तिर्थ॑चायु अने मयुष्यायु बेथी रदित वैक्रियनी पेरे कटेषु. ( हषे वेदा(दक मा्भेणाये वैध कदे ठे) वेद्‌ त्रणेने प्रथम नव युणएठाणं होय, आदिम एटते अनंता- युवे चार कषायवंतने पेहेलां बे युणएठाणां दोय, बीजा अप्र त्याख्यानोया चार कषायवंतने पेदेलां चार युणठाणां होय, त्री- जा परध्याख्यानीया कषायवंतने पांच युणएडाणं दोय २७॥ वैक्रिय काय योगे देवतानी पेठे -ओषे. १०४, मिथ्याते १०२, सास्वादने ९६, पित्रे ७०, सम्यक्त्वे ७२) नो बंध होय ते भवप्रलययी वेक्रिय काययोगीने जाणे, गुणप्रल्ययीने नर वैक्रिय मिभ्रयोगे वरक्रिय योगनी पडे जाण, पण एण्ड विशेष के अदी मिश्र गुणढणुं संभवे, तेथी जे भणी देवता तथा नारकफीने अपर्याप्त ` थवस्था- ये कामण साये पिभ वैकरिययोगते छोधो, लां मिभ णुं होये, शेष

१०३

रणं शुणडागे पण तिर्यमायु अने भदुष्याधु वाये, ठम्ि भपयौपतो देवता तया नारकी हेष तेयी 'अपयोहवस्याये आयु वधे यारे ओवे १०२, पिथ्या- ते १०१, सास्वादने ९४, मिध्रयुणराु शेय नदी अने षेये सुणसणे ७१ नो वध दोय, वादीनां गणठाणा हेष नरी

भणे वेदने भ्रथपनां नर गुणाणा हेय स्यां १२०, पिष्यासे १२७, सास्ादमे १०१) मिश्रे ७४, अिरतिये ७७, देशविरतिये ६७, भमत्ते ६३) अप्रमत्त ५९-५८, अपूकरणे ५८-५६-२६, वादर्‌ सपराये ०२-२४, ते पछी जवेटो पाय,

पेहेखा अनतरासुयधी चार्‌ कषाये ओषे ११७) मिथ्यात्वे ११७, साख्वाद्ने २०१, वीजा अपल्याख्यानीयने ओप ११८, पिष्यासे ११७, सास्वारने १०९, भतन ७५) सम्यक्ते ७७, तथा भरपाख्यानीयने ओपे ११८) प्रिऽ्पातवे ११७) सास्वादने १०१; मिप्रे ७४, अचिरतिये ७७) देशनिरतिये ६७ संजघ्ए तिगे नव दस, सोदे चठ अनडतिसनाएतिगे वारस खचख्यु चख्छुसु, पठमा अहखाई चरिम चछ १७ सनरुणतिमे सज्वछनग्रिक| दुति-रीय अथवा रीड | पदमा-पेहें नवद्स~नवमा दशमा | जनाणतिगे -अक्ञानप्रिक | अहखाई-पथार्याद

धारस-यार्‌ चसिि-यासि चद~चारः अचरूपुचल्पुषु-अचक्षु | चउ-चार अनटू-अबिरति द्दनिः अर्थं -सेञ्वसनन्निक ( क्रोध, मान, माया ठते नव युष-

उणां दोय, स्या खधनी पेरे बध, स॑ञ्वलन घो्ने दंड रुण. गणां दोय स्या सयमष्ारे अविरतिने चार युणगणा शोषे १२४, िष्यात्रे ११७, सास्वाठने १०९, मिश्ने ४, सम्यक्स ७७. अङ्ान घचणने वे अयवा चरण पण रुणठाणा दोय ओः ११७, मिण २१०७, सा० २०९, स० ऽ४. चदु दशंनी तया अचः दर्श- लीने विषे १९ शुणगणा दोय, स्या ओघ ते कर्मस्तव (वीना

१०४ क्य ) नी पेरे कंध कटवा. यथाख्यात चारिने उवं चार युसवाणां होय, त्यां तरण युणठाएे एक शातानो वंध अने अ- योगी अच॑धक ( वधरद्धित ) हाय. मणएनाणएौ सगजयाई्‌, समश्च्प ठेखचज इन्नि परिहारो केवत इगि दो चरिमा, अजया नव मदु हि इगे १४

मणनाणी-पनःपर्यवङ्ञानीने। परिदारो-परिदिार विशर- दिथी सग-सात दिने | नव~नवमा सुधी जयाई-प्रमत्तादिकथी | वेव्दुगि-केवण्द्रिक | मदृषु-पतिङ्गानी तथा श्ु- समह-सामायक (ज्ञान, दशेन) क्ञानीने बिषे छेअ-छेदोपस्थापनिय | दो-व ओहिदुगे-अघधिक्चान, चउ-चार्‌ (६ थौ ९) | चरिमा-श््ां तथा दृशैनीने विषे दुननि-पे' (&-७) अजयाई-अषिरति आ-

अर्थः-मनःपर्यवङ्ञानीने प्रमत्तादिक ठष्ठाथी वारमा लगे सात युषठाणं होय. ( उंये ६५, प्रमत्ते ६३, अध्रमत्ते ५९८ २८, निवृत्तिये ५, ५६-२६, निवृत्तये २१-२१-२०-१९-१८, सूदम- संपराये १७, उपन्ञांतमोहे २, दए मोदे २.) सामायक तथा ठेदोपस्थापनीय चारत्ने उषछाथी नवमा लगे चार युणगणां होय ( उंघे ६५. परमन्ते ६३, अध्रमत्ते ५९.५०, निवृत्तियि ५४. ५६-१६ अनिवृत्ते २१-२१-२०-२९८-१८, ) परिदार विशुद्धि चा- रने उषं सातमुं वे युणगणं दोय ( धे ६, प्रमत्त ६३, अथरमत्ते ए, ) केवलज्ञानी तथा केवछदर्दनी वेने ठ्घ्रां य- एठाणां दोय, सथोगी एक शाता वांधे, अयोगी अर्वधक, तिङ्ञान, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्रीनी चारेने अ- विरति सम्यकूद @ प्रमुख छीणमोद लगे नव युणठणां दाय,

२०५६ ( स्यां आपै ऽ, सम्यग्ले ऽ, देदो ६, मत्ते ६३, अघरमतते ५७, ५०, निवृक्तिये ५०, ५९२६) अनिवृत्तिये २२-२१ १० १९.१८, सूषमस्परये २९, उपदंतमोदे ९, कछीणमोदे २,) २९८ परम उवसमि ठेखगि, खष्ए शकार मिच्छ तिभगि देस स्मि सरणं तेरस, खादारग निखनिख गुणोहो। १०

अद~आद (९ थी ११) | इकरअगिभार (४यी?४) गंण-दणगथु

एवपतमि-उपनपरिक परिच्छतिगि-पिध्यातव तरि तेरस तेर

चड-चार्‌ (चोयायी सात) शरण युणठाणा | आदारग-भहारफ पर्णा

सेथपि-वेदरू (क्ञायोप | देसे-देशगिरति तरिभनिभ-पोतपोनानो पिक सम्यर्ली) | सृहुमि-हद्मसपसय | एण-गुणणे

सए-प्रायक (सम्पर्ली) स~पोतपोनामू ओष्धे-गोषे

अर्थं -( चोधाथी अमियारमा सुधी ) शुणठाणां उपरामिक सम्य्खीने दोय ( चोथाथी सातमा सुधी ) चार णएठाणा वेदक एटते कायोपडमिक सम्यग्वने दोय चो- थाथी चोदमा सुधी ) सगिखार युणडणा कायक सम्यश्खीने दोय मिष्याली, सास्वादनी, मिश्च, देशविरति, ने सूर्म सपराय चारी एटलाने पोतपोताने नामे एक गुणगण दोय. ( समये घमये आदार करे ते) आदारक मागणावाढठनि स. योगी लगे तेर गुणठाणा दोय, सर्व पूवं कष्यां तेने आप श्मापषे गुणएठपे प्र्टतिनो वध योधते कर्म स्तवनी पेरे करेवो १० पो, पचः यु भने सातप चार युणमणा ग्रपिमद्‌ फारत देश.

परति सर्वं पिरि सहित उपदमिफ सम्यत पमि तेथी नाना जीवनी अयेक्षाये

छ्य, तथा अग्ष, जण्रु, टयु अने अगरिया वार्‌ णण उपप ेणोये हेय, उणो देक पटे प्ायोयशपिर पन्पफन्य जाणरु पण ण्टू परम्पर

१०६

मोहनीय बेदे ते माटे वेदक नाम कहु, यां ४८-५-६-७ चार गुणटाणां होय) त्यां ओषे व॑ध ७९, अविरतिये ७७, देश विरतिये ६७, भ्रमन्ते ५९५८, | षाय सम्यक्व मार्म॑णाये चोथाथी मांडीने अयोगी शणगणा सधी अगीआर गुणगणाये ओषे वंध ७२, अविरत्तिये ७७, देशषिरतिये ६७, भमत्ते ६३) अप्रपत्ते ५९-५८, निषत्त ५८-५६-२६) अनिषटत्तिये २२) इलयादिक अर्द आं विचारवा योग्य छे, जे भणी पूवं बद्धाय मनुष्य क्षायक सम्यक्छ छदे तने तो आयु बधनं नथी कारण के पूं वांधी युक्पुं डे, अने अवद्धायु मनुष्य षायक सम्यक्त खैः तेतो चरमश्षरोरी दोयतेने पण अआधुवंध नद्ेयतो पंचमे अने छे गुणडाणे सुराय वंधनो स्वमी कोण ? तथा कोई केशे जे - पष्टवगोउमणुसो, निषटवगोचरुविगषु अपेक्षाये दर्शनक्षायिक्र निषएठापक मचुष्य अने तिच देशषवरिरति शणटाणे सुराय वधे ते खोटुं छे कारण के तेतो असंख्याता वर्पायुबाला मनुष्य तियैच होय तेने देश्षविरति गणगणं ह्येय ` पण अही सभवीये रये जे “' तिरथयरत्तंसमत्तलई अपत्तमाईतरभषए + इत्या- शकिनी पेरे साये संमवोये छोय.

चथ्ये भर्वमि घिज्छंति खञ्च सम्पतते घुर निर्यज्चय दिघुगष्म॑त निणक्राछियनराणं बद्धाउयाणषवं सिजंति उतभ्यवे अवद्धाड पष्टवगोउ मणुरसो निषहवगा चउदुविगःईं ॥३॥ एने गुणटाणां अगि भौर होय

पिण्याद्ठीने ११७ वंध, सास्वारन सम्यक्खीने १०९१, गिरने ७४ देश्विरति ६७, सुषम संपराय चारिजीने १७, ने वंध होय,

आहारीने ओषे १२०, मिथ्यात्वे ११० इत्यादि यावत्‌ सयोगीए एक वधर. परशुवसपि वदता, पछ ब॑धंति तेए अजय गुणे दैव मणुखाञ दीएो, देसाश्यु पुण सुरा विणा ॥१२॥

प्रम-बिरोप आउ-भबसुं तेण-तेभेणी उसभि-ओपशृपिक | न~न अजय-अिरति सम्यक्‌ वदंता-वरच॑ता वंधति-वोषे

१०४

शणे-गुणगणे दिणो-हिन पुण~वगो देव-देयायु देसाघु-देशयिरति | घुराभो-देषायु मणुभाउ-मदुष्यायु दिनि बरिपे | वरिणा-विना

छर्थ.-पण एलु विरोष जे उपरामिक सम्यक्त्वे वर्भता जीप पर्नवनु श्मायु वाध ते माटे अविरति सम्यक्टटि गु- एठणे देवाय ने मनुप्यायु वे प्रकृति दिन करब (एटसे पयोथे गुणएञाणे ओघे ऽ७ठे ते एदा उपशम सम्यक्स उ१ वा श्नने नरक तिथैगायु तो ओधमाज टाठया ठे) देदावरति, प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणडाणाने विपे वी एकज देवायु विना वध कदेवो त्यारे देशे ६६, प्रमत्ते थ, प्रमत्ते ५०, मनुष्यायु तो सघर्माज टाव्युठे॥२१॥ -

वे टेश्या मार्गणाद्वरे बधस्रामित फे छे ठंदे अष्ट(रसय, आदार उगृणमाई लेस तिगे ततिलोण मिच्छे, साणाष्रु सदिं उहो २२॥ ओहो-सामान्ये आइटेसतिगे-भारिनी | पिच्छे-मिथ्यासे अद्वारसय-पकसो अदार्‌ | _ बण देदयाने भि आहारदुगूग-आदारक- सव्वाहि-स एुणढ दारदुगरूभ (0 6 एणद।

अर्थं -सामान्ये आदारद्धिक उणो करता एकसो शार प्रह्कतिनो चध सादिनी तरण ( छप्ण, नील, कापोत > तेष्याने व्रिपे होय (ए्रणदे्यातो चोधातथाव्ाक्तोठे अने आदार द्विकतो सात्तमे वधाय ते माटे ते व्रिना)ते तीर्थकर नाम कमे हीन करीष, ते बारे मिभ्यासख गुणठाणे पएकसोने सत्तर श्रकति षये ने सास्वादनादिक आगते सै गुणगणे

१०० तो सक तेदयावंतने ' क्म रतवनीपेरे सामास्ये चथ जाणएवो.५९।

इहां जण छेदया्दतने चोये गुणडाणे वे आयुनो वंध कदो पण एकज मुप्यायुनो वंध घटे, जे भणी नारको देषततातो मनुप्यायु वधे, पण भदुष्य तिथ॑च देवाय वधि, जे माटेजे छेदयामां आयु व॑धायते टेश्यामां उपन्य गेए अने सभ्यक्‌ दृषटिता वेमानीकर्बुन आयु वापर) अने ते वेैमानिक्मांतो दरुष्ण, नील अने कापोत नथी, ते मादे अशुद्ध देश्या सम्यङ्दष्टि देवाय वापि, एमज भगवती स्ना शीशषमा इतक्षने पेदेढे उदेशे कष्टं जे क्रियावादी क- प्णादि घरण टेरयावंत सप्यकूषटि देवरा बरे, देवता अने नारकी मतुप्यायु वप्रे पण मनुष्य ति्यच एके आयु वोधे एम कद्यं छे, अने घटे पण एमन पी प्रथकारनो अभिप्रायतो वहु श्चुत जाणे

ते. निरय नव्रृणा, उजोख चनिरय बार विए सुक्षा वणु निरय बार पम्दा, अनजिणादाय श्मा मिहे ॥२३॥

तेङ-तेनोलेश्याये निरयवार-नरफविकाष्टि- | पम्दा-पदाेहया निरय-नरकादिक विणु-विना {वार | अ~न ( व्जीने) नन्रणा-नव प्रदृतियेउणो | सुका-शृष्छेश्यार्वतने | जिण-निननाम उज्जोअ-उग्रोताद्विक | विणु-बिना यराराई-आहारकटिक चउ-चार (निरयवार-नरकरिकादि वाग पिन्डे-मिथ्यासे

अ्थः-तेजो लेदया्व॑त नस्कादिक नरकन्रिकः सूद्मत्रि- क, विगलभिक ) नव भरकरतिए उणो, एटले एकसो अभि. मार प्रङृतिनो बंध ओघे करे, उदयोतादिक उयोतनामः, ति- यैचद्धिक, तिर्थचायु, ) चार तथा नरकादि (नरकत्रिक, सूक्म- जक, विगलत्रिक, एकि, थावर, आतप ) वार सोढ विना एकलोचार प्रकृति शुक्ल वेदयवंत बांधे, ( अदं उहा सातमा आवमा कल्पना देवता सवे शुक्ल तेदयावंत ठे खन ते तो जयोत चतुष्क वाये ठे स्यार प॑चेंडि तिर्थचमां उपे >,

१०४ तो शरसा उ्योत चतुष्क केम राद्यं पण संशाय वहुश्चुत गम्यठे) तथा नरकाटिक वार घकृति विना पद्मठेदयावत श्नोधे एकसो आठ वाधि तथा जिननाम छने आदारद्धिक त्रष द्रति वर्जन वाकीनी मिध्यासे कदेवी

ठेजो, पद, शुकन छेदयाने ते देम ? तेजो केदषाने ओते ११२, मिभ्यात्वे १०८ सास्वादने १०१, यापे परठी आओोयनीपेरे सात गुण्ठर्णां होप पद टेदयाद्तने ओषः १०८, पिप्थासे १०९) साष्वादने १०९, पडो ओधनीः पेरे सात चणगणा लागे, शन टेदथावेतने ओवे १०४) मिथ्यात्वे १०१ सा- स्वादने ९७) ते पएगी ओववत्‌ तेर्‌ एणाणा लागे

सघ गण नव सचिघु, उंटु अनवा असनि निच्छिपतमा। सासणि असनि सचिव, कम्मणनंमे। अणाहारे ॥९५

सज्य गुणस गणटाणां | भप्ति-अषतनि फम्मण-कार्मणक्षाययो- भप सनि-मय्य अने स~ | पिचछिप्मा-पमिथ्यात् यु- गीनो

भने परिपे णडाणा सरा भगो-भागो आओषट-मोयनी पेरे सासगि-सास््रादमे अणादरे-मणाहागैने पपे अभव्ा-भमन्य स्निव-समनिनी पठे

अर्ध.-नव्य अने सङ्गी वे मार्मृणाने विपे सर्गे गुण उणा दोय, रपां प्रृतिनो वैध रोधन) पेरे कटेवो, यन्नव्य मागैणाप्‌ ने असनि मा्गेणाएु तो मिध्यात्र गुएठणा सर, खा धथ करेया, थने सास्वादने यत्तन्न थने सच्चिनीपेरे व॑ध फदेवो तथा यणादारीने भि कार्थणकाय योगीनो नामो कदो ४॥ तिरददनिपां फेयलीने सत्र मन नमी से पादे मामो अने मोभापरी

कप्त अभिपपेयेा सहने शर्‌ गवा पटे पय अदी पेषडीने द्र्य नदे पिमस्तपे प्रतो फरो, पाटे ददु गुणगणं

११० ग्रतःछञ्य चित्तं विनान्नावं चित्तं स्याद संवत्‌

विनापिन्नाव चित्तुतु ॐयं केवलिनो नवेत्‌ ५२॥ एति वचनात्‌॥ अभव्य अने असं ओवे अने मिथ्यात्वे ११७ पाध, अभभ्यने तो एकन शणगंणुं सेय, सास्वादने असंत्ी ते संहञीनीपेरे १०१, वापि, असंशीने वेज रुणगणां होय, कर्मण काययोगोन अणाहारी रोय ते माटे गुणगणं {२-४-१३ चार होय दयां ओषे ११२; मिथ्यात्वे १०१, सास्वादने ९४, अव्रिरतिये ७५, सयोगीए एक दोय. तिपु दुसु सुक्षाई गुण, सग तेरत्ि बंध सामित्तं॥ देविदसूरिरखं, नेयं कम्मस्थयं सों ९५

तिषठु-्रण छेदयाये | चड-चार देविद्रि-देवद्हुरिये दुष-षे रेश्याये सग-सात , रइअं-रच्यु तैर्ति-तिर नेयं-जाणवा, सकाई-ण्छटेया ेरत्ति-तेर क्भध्ययं करमस्व गणा-एणगणां वंधसामित्तं-वधस्वामितव | सोई-ते

अथः-( कृष्ण, नील, कापोत ) चरण लेदयाने विषे चार गुणएठाणां होय ( तेजो अने पद्म ए) वे तेद्याने विषे सात गुणएठाणां दोय, शुक्ल लेदयाने विषे तेरयणठाणां होय (अयो- गीतो अलेश्ची दोय) एव रीते व॑ध स्वामिखपणं श्री तपाग- छाधिराज नहारक श्री जगचंडसू(रि शिष्य पटभरनाकर श्री दे- वैडुरिये रच्थं, जाणएवा निमित्ते बंधस्वामिसने कर्भस्तव सा. नषोने चित्तमां धारवो १५

इति बंध स्वामि नामे बनो कर्मगरय संपूण थयो.

१११

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नमोसिद्धं प्रय षमदीतिनामा चतुथं करम्॑रथ

नम्नाति = नमिख निए नि मरण, गुणठाणएु वग जोग तेता वंघप्प बद्‌ जावे, संखा करिमवि वुं नपरिभ-नपरस्कार फपने ( उवओग~-उपयोपदार | भाव~भाव ( उपश्मादि-

भिग-भिनेश्वरने जोग~योग पांच) निभ-्ीयस्यानक ठेसाउ-टेदयाद्रार सचि्ाई-पस्यातादि मगण~पागणाद्रार वध-वेष प्रिमिवि-फडकि

चणडण-दुणस्थानक | अष्दवहु-अरप वहतद्वार | बुच्छ-फदीश अर्थ॑-जीनेश्वरने नमस्कार करीन जीवस्थानक, ग- खादि मार्मणास्थानक, य॒णस्यानक, उपयोग्ार, थो- ग्वार, ठेदयाष्ार, वधार, अदपवहसद्वार, सावद्वार, २० सख्यातादि ( संस्याता, अत्तरयाता, सनता) नो विचार ददा दार स्वव्पमान्र कदी २॥ नमिय जिए वत्तघा, चञ्दस् निख उणएएञ गएठाणा। जोगुवखोगो लेसा, वधोदओ दीरणा सत्ता

वत्तस्वा-फरेवा शुणराण-गुणठाणां यथ-पथ

चथ्दस-चद्‌ जोग~-योग उदगो-उद्‌य

जीभगणेषठु-जीवस्थानने | उवभोगो-उपयोग दीरणा-उदिर्णा - त्रिपे ठेषा-खेश्या सत्ता-सत्ती

अर्थ.-जिनेश्वरने नमस्कार करोने वोह कदेवा चौद जीरस्थानकने त्रिप एक युणएठाणए, वीजा योग, प्रीजा उपयोग,

११६ चो तेरया, पंचमो मूढ घरङृतिनो वैध, वो उदय, सातम उदिरणा, आठमी सत्ता आठ प्रतिद्ार कद्यं ९॥ तद्‌ मलघं"चचदः मणण, ठाणेसु वा्षषि उत्तरेसु जिख गणएनोगु वगा, घेसप्पवहूं उहाणा १२

; त्तेन ~, - ` `` ˆ | `गासहि-वासट ` - जोग~-योग ~ पूर-मूल,. : ,. ~ उत्तरेषु-उत्तर ( मा्गणा | उवओगा-उपपोग्‌ चघउट्‌-चोद्‌ स्थानेन विपे ठेस-खेदया -ममंण-मागणा जीअ-जीव भेद अप्यवह-मसपब्रहुख उाणेघु-स्थानकने विपे | गुण~युणगणां छटाणा-ए स्यानक

धर्थः-तेमज वदरी मूठ चौद मार्गणस्थानने विपे अने वास उत्तर मागंणास्थानने विषे एक जीवस्नेद; वीजा यण उणा, जीजा योग, चाथा उपयोग, पंचमी लेद्या, ठटं खष्प- वहु, स्थानक कर्य ॥३२॥ चञ्दस गुणस जसखजो, गवसरग तेसाय वंधदेकय ्वधारख चज्खप्पा, बहंच तो लाव संखा ४॥

घउदसगणेषु-चोद गुण [| उवओग~-उपयोग अप्पा वहंच-अटप्‌ बहुत राणाने विपे ठेपाय-खेहया तो-ते पी

जिभ-जीवना भेद्‌ वंधदेउय-वंष हेत भाव~भाव

जोग~योग वंधाइयचडउ-वंधादिक चारं संखाई-षंख्यातादि

` अधः-वन्टी चौद युणएडणएंने विषे, एक जीवना मेदः वीजा याग; जीजा उपयोग, चोधी लेदया, पांचमा वंध देतु, ठछा वघ, सातमा उदय, आठमी उदरा, नवमी सत्ता, द- - शास्रं एलं अल्पवह्ुख, लार पठी अगियारसुं नाव. अने वारथुं

संस्यातादिकनो विचार कदय. रण गाथाष्‌ उवीत षार कट्यां ते अनुक्रमे कदेश ४१

११५ दद सुदुम वायरेभि, दि वि ति चर असति सन्नि पंचिदी, छपपज्जता पत्ता, कम्मेणए चञ्दस जिच्टाणा ४५१

श्ह-भ ति-तेद्र पल्त्ता-पर्यापषा सुहम-घ्म चउ-चौरिद्र कम्मेण-असुक्रमे मायर-बादर . असि-असनि परद्र | घउद्स-चञ्द्‌ एनिदि-प्ेद्र सत्नि-सनिपयद्रि निथष्णा जीवना स्पानफ विवेद अपज्ता-अपरयाप्ा

अर्थः-अरंश्यां ( आवी रते सर्वै ससारी जीवना चौद नेद थाय) सुम एकेढि अने बादर एकेढि वे, तथा वेदि, तडि ने चोर पांच तथा असन्नि पचि अने सन्नि पचि सात, सात्त पर्या्ता तथा सात खप्याप्ता प, अनु क्रमे जीवना चौद स्थान जाणएवां ५1 वायर सन्नि विगते, अपजजि पठमविख सन्नि खपजत्ते जय जुख सन्नि पजे, सगुणा मिह सेसेसु & घायर-ादेर्‌ एकप पदपविअ-पेदेख वीजु | सन्निपजे-समि पर्यीप्ताने असनि-भसनिपर्चद्ि | सन्निभपजते सतिपयााने| सव्वगुणा-सरवयणस्यानक विगणे-विगरेद्र अजयजुअ-अविरति युक्त | मिच्छ-मिध्याच गुणगण अपरजि-अपर्याप्ता , भ्रण गुणडाणां सेसेग्र-रेप भीवोने

अर्थं -( द्वे चौद जीवस्यानकने विपे शुणगणां कदेडे ) घादर एकेडि अपया, ससन्नि पचि अपयीक्ता अने चरण विकर्देड पयसा पाचने विपे येदेलु अने वीज्ु युएठाणए दोय तथा सन्नि पचि अपर्यापताने विपे अविरति युणठणा

# अरिजं सर्वं जीव सदाय पिथ्याली ते ठेज पण फोकमे परमवथी सस्यदत्ववमरीने अवतां घयालखा न्याये सम्यक्त्वनेा छेश्च आस्वादं उपति

१२० सहित एटते पदेषु, वीज, अने चों चरण णाणां होय; ( सम्यक्रव सहित जीवने उपजतां चों दोय पण अपयासाने मिश्र युलठाएै होय, मिश्र थका काठ करेते माटे (“न सम्ममिन्लो एकाहं एति वचनात्‌ ) अने सच्च पंच पयाानि विषे सवे चोदे णाणां हाय, ( तेने सवे शुनाश्रुन परिणाम होय ते मादे ) बाकीना ( सूदम अपर्या्षा, सूदमष- यौसा, बादर एके(ठ पयाता.वेदंयि तेदयि. चौरी(ख चण परयाता असन्न पंच पयौता) सातने एकज मिथ्याख युणलार्एु दोय ।६।

उप्रपयत्त उक्ति कश्पुर, तमो जोगा अपज्न सन्नस सविञ्व मीसणएसु. तण पज्ञेसु चरत मन्न 9

अपनत्त-गपर्यप्ना | अपल्सनतीसु-अपयीषा एमु-एमां बरी

छद्धि-छ जीवने विपे सन्निने पिष तणु पन्नेघु-सरीर पर्याप कम्पुरल-ओदारिककार्मण| ` ते-ते वे योगने ने षिपे मीस-ओदारिकि मिध | सविउवमीस-वेक्रिय पिभ | उरर-ओदार्कि योग लोगा-योग सरित जण योग॒ मन्ने-मानेे

अथः-( सूद्म षएकेडी, वादर एकैठि, वेदं, तेष॑णिः चोरी, असंज्ञ पंच ) ए-ठ अपयाता जीव चेदने विषे

अप्याप्ना अवस्थाये जीवने सास्वादनपणुं पामीये पण पडी होय, इहां एक- रण अप्यतो जाणवो पण छुन्ि अप्यप्ठो नही रुन्धि अपर्याप्ाने ते सास्वादन दोय नदी. अपर्याप सप्म पफेद्विमां पण सास्वादन होय, सास्वादन तो खगारेक शुभ. परिणाम रप छे अने सुष्ममांते अति संधि परिणामी उपने, ते मारे इहां कोक कहे के एफद्रियने सास्वादन नथी कद्यं एकेद्रिय सर्वं अज्ञानीन कट्या छे, अने विकर्डद्रियमां सास्वादन कहं ॐ. ते छतां ज्ञानी क्या तो इहां एदि अपर्यप्ताने सास्वादन केम कलये छो ? एनो उत्तर आगन “सासण भावेनाण गाथाये ग्रंयकारन केशे लां जाणवो. ( जीवविजनयजी कप्त ठवामांथी )

२१९ श्ौदारिकि कार्मण अने आदारिक मिश्र वे योग दोय (च्य तरार गतिये अने उस्पत्तिने पेहेवे समये कार्मणए योग दोय छने पठी शरीर पयीसि पूर थया पेदेला यौदारिक मिश्र योग दोय ) सन्नि पचेंड) श्यपया्ाने विपे पूर्वोक्त वे योग ने वैक्रिय मिश्च सित करता चरण योग दीय (स्या मनुष्य ति्य॑च अप. यार्षानि कार्मणए ओदारिक मिश्र एवे दोय अने देवता नार सीते कर्मण वैक्रिय मिश्रषएवे दोय वेने मीने चण दोयषु साते अपर्या्ाने ), शरीर अप्यीतिये पयौताने दारक योग पण॒ दोय एम अनेरा आचार्यं कटेठे ( ते मते अपर्याताने भ्रण योग दोय अने सन्नि अपयाने विपे चार योग दोय ग्रथकारे मतातर कद्यु पण दारीर पयीपने मभ्रषएु टच्यु स्यार आओदार्कि थोग दोयज, त्यारे सत खरो जणायठे)।७॥ हृपे पदर योग कदेछे-जीयने परिस्यदनादिर वीर्व ते योग की सल्य पनोयोग-अस्तिजीव इलयादि तथा सर्षमे हित चितन ते, एषा मनोयोग-नास्तिजोप इयादि तथा परने विप्रतारण बुद्धि ते

सद्याप्रषा मनेपोग-ते चये मिघ्र एटखे काईफ सल अने काक पूषा ते असत्पाप्रेपा मनोयोग-सलय पण नहीं असत्य पण नं विचारणा रप ते सत्य यचनयोग, पूषा वचनयोग, सत्यामृपा वचनयोग,८ असस्पापृषा बचनयोणु चौर बचनयोग मनायोगनी पैर जाणवां एव्‌ ९, गीदारिक काययोग-भसुप्य तिर्यचने उपजतां प्रथम समये दोषे १० ओदारि मिभ्र-तेन मदुप्य तिर्धचने उपनतां एऱ समय पटी श्ररीर पर्यापतति पूरी दरे स्यां खगी फा साये परिघ्रपणु ते ओौदारिकि मिप तथा कव सुदूाते वीजे च्छे सातमे समये ओदारिक मिशरराययोग होय ¶१ धेङ्िय फाययोग-देवता नास्फीने तथा लमन्िषदठ मुप्य, परद्र तिर्थच अने वायुने मेय

१९९

१२ बेक्रियमिश्र काययोगं-तेदीज देव नारफीने उपनतां कार्मण साये वैरियं पिश्र दोय तथा मुष्य तिर्थचने वेक्रियारभ काठ अने छांडवाने के ओदारिक साथे वेक्रिय मिश्र काययोग

१३ आहारक काययोग-चोद्‌ पूरव धारीने आहारक शरीर काययोग हेय

१४ आहारक मि्रकाययोग-तेने भारभ काठ अने छंडवाने काटे ओदाकि साये आहारक मिध्रकाययोग होय. `

१५ कार्मेण काययोग-अष्ट कर्मनो जे विकार ते कामेणकाययोग) ते जीवने अंतराठ गतिये अने उपनवाने पेेठे समये तथा केवगी भपुद्घोतने जोजे चोये पंचमे समये एं प्रयोजन ते

सवे सन्नि पते, उरलं सुदुमे सासु तं चञ्सु # बायरि सविवि §ग, पजसन्िस् बार उवच॑गा ॥५॥

सम्बे-सरवे सभासु-माषा सहित प्याप्ाने ) सनि-संग्ी तं-ते सविऽव्िदु -वेक्रियद्धिकं पनत्ते-पयाक्षा चउघु-चार (विगर्निक सा मेस (पदिन) | अने असनि पढ) | पसच पहासनिन उररं-ओदारिक वायरि-वादर (एद्रि # योगं (#

र्थः-सन्नि पचेंखी पयोस्ाने विषे सर्वं पंदर योगद. य, [ ओदारिकिमिश्र ने कार्मण बेतो केवली समुद्घाते होय अते वेक्रिय मिश्र मयुभ्य तिर्थचने उत्तर वे(कय करतां दोय, अने शेष बार योगतो यथायोभ्ये दोयज सूदम एके पयोत्ाने एकज श्योदारिक काय योग होय, विगलेंड खनं सन्नि प्चेयि चारं प्या्ताने ओदारिक योग अने भ्नाषा सहित एटले सत्यामृषावचनयोग वे योग होथ, बादर एकंढि पयोपाने विषे चदारिक साथे वैकरिय यने वैक्रिय मिश्च सद्ित करतां चरण योग दाय, वायुने वैक्रिय्टिक दोय, (दषे

१११

चौद जीवश्यानने विये उपयोग कहे ठे जीव लक्षण रूप य. वबोधु ते उपयोग करीर ते पाच ज्ञान, चण अज्ञान यने चार ददान एम वार प्रकारेठे ) पर्यास सङ्गी पचे दधियने विये चारे उपयोग दोय (अनुक्रमे दोय पण समकाठे दोय “जुगव- दोनिडबच॑गा एति वचनात्‌" )

पज चर्थारदि अस्सु, उदे दुखनाण दससु चख्विणा सेति खपज्ञे मणना, चछुकेवल छग विदएा ८॥

प्रलचऽरिदि-परथापठ ची- | दु मनाण-पे भहान यापने दघ-दशने विपे मणनाण-न पर्यवह्षान ' असननिष्ठ-अपनि पचेद्र | चड्सुविणा-चनु दगेन | चस्वु-चु दभन (पीपा ) विना केवरदुग-फेतनद्रिक द-प दर्भन सनि अपजे-पक्षो अप- | विहूणा-त्रिना अर्थ.-चजरिंखी पर्यास अने असन्न पंच॑) अपयोताने धु चद ये दश्चन तथा सतिश्रुत वे यक्ञान मी चार उपयोग रोय, तथा वाक्ीना दसने विपे (वार एकि, वे वे पदी, वे तेष्टि, चञरिखी अपर्य, अने सन्नि पर्ची य. प्यघने विवे ) चद्ध वर्रान विना (यचद्छ उयैन, मति ध्क्तान, श्रेत अङ्ान >) त्रण उपयोग होय, सन्नि प॑चेडि शपर्यात्ताने एक सन पर्यवक्नान वीं च्छ दर्ान चीञ्च केवछङ्ान चो फेवलददीन चार विना सेव साठ उपयोग रोय ९॥ सन्नि दुगि वेश्च अप, वायरे पठम चञ ति सेसेसु प्तष्ठ व॑धुदीरण, संतुदया तेरसदु १० ५५

१९९ सन्नि दुमि-गे सन्निने विषे| तिसेसेष-बङीनाने तरिषे | दीरणा टेस-छ देश्या जरण संतर दया-सत्तार्मथा उदय सत्त्-सात तथा आढ | अट-माट कर्मना पटमचर-मयमनी चार॒| वघुदीरण-वंथ तथा उ- | तेरसघ-तेरने विषे

अर्थ॑ः=( हवे चोद जीव स्थानके लेद्धा कदेठे) सन्नि प- चंमि पयता तथा अपया वेने परिप लेदेया होय, य- पर्याप्ता -वादर एकेट्धिने धिपे पेटी चार वेद्या दोय. (कृष्ण नील्ल अने कापोत चरएतो स्वने होयज, पए कोश्क तेजो लेद्याष॑तत देवता मरने पृथ्वी, सप तथा वनस्पति काथमां ख- पजे तेने श्रपयोपपणे तेजो लेदया रोय ते माटे चार लेया की ) देप अगिश्ार आस्यानके छण, नील अने कापोत तरण लेदया दोय. ह्वे चोद जीव स्यानके मृष्ट पछरतिनो व॑ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता कटैठे, सङ्गी पर्याप्तो व्जीने चेष तेर जीव स्थानकने तषे सात अथवा आठ प्कत्तिनो व॑ध अने उदीरणा दोय तथा तेरे.जीव स्थानकने प्रिषे आठ कम॑ सत्तायं अने उदये होय-ते केवी रीते ?

आयुर्धघ काठे आदे कर्मनो वंध होय खने ते आयु नं वाघतो दोय स्यारे सातनो वंध, एक जवे आघुर्वध एकजवार दोय अने सात कमतो जीव सदाये समये समये पि ठ. तथा यारे मोगवता नवसु आयु एक आवलि वाकी दोय व्यारेते श्मायुनी उदीरणा हय, स्यारे सातनी उदीरण दोय अन्य- या आठनी होय. तथा उपरांत मोद लगे आवे कर्मनी सत्ता ठे अने सूदंम संपराय लगे आठनो उदय वेने तेर जीवं स्थानकने विषे तो पदेषु बीजज अने चोधुं युणठाणं पामीये।र०.

१२२ सत्तष्ठ ठे वधा, संतु दया सत्त खषठ चत्तारि सत्त प॑चटुगं, उदीरणा सन्ति पतते २२१

सततढ-सात आढ सत-सत्ता पवदुभ-पाच भने षे ेग-छ तथा ष्क उदया-उदय उदीरणा-~उदीरणा पुधा-वप स्त छ-साठ, गाठ, सनि पनते-सन्नि पयाप्र

अर्थ.-तातनो, खाठनो, ठनो तथा एकनो चार्व॑ध संनि पंच पर्या्तने' दोय ने सङ्खी पचेडी परयातान सत्ता शमने चव्य ्याक्रीने सातु खाठनु अने चारु त्रणस्यान- दोय, तथा सन्निपचंठि पय्षिने उदीरणा स्थानक सात,

छार, ठ, पाच यने वे पाच' दोय ११ तेम आयु वर्जनि सातनं वथ ते जयन्यथी अतमुर्यलगे के तेरह सगतो पासे उणा, ते वरी पूर फोडने शरीजे भागे अप्रिक एगो रहे अरखाने वय फादे आटृनो, वप्‌, ते जय-ययी अने उर पण्‌ अत्त रहे भउलानो वधकराठ अत््वन होय ते पारे तपा आयु अने मोहनीय वर्जीनि षि, भूम सपराये ते जघन्यं एम्‌ सपय रहे, फोऽक जीव त्यां एक समय अयत्र व्रिमाने जाय त्यां अग्रिरति ुगठाणे अवदपर सतनो वक यापः से पाटे छनो पथकः जय-य प्क सपय रहे उषो अत्तं रहे षप सपसु- यत पुर्न मानरै, पटी एकन्ते यथक याय तया सादनो वधक पायतया ते प्र पहियी पाच भरतिना उपने व्ययटेदे एफ दाता उदमीयनेा उधर दाय, धन्पी एष समप, उपरम प्रीये उक्ष पणे देने उणी पूरवमोरो खे रह, ते- र्मे गृणढणे पएीते पेदेखायी सातमा शणराणा रगे सात तया यादो पथय, ब्रीज आदे नेये सातनोन्‌ पथ, दमे छने वधक, अमीभासे ष-

रमे तेरे एनो पयर दोय,

लां आदनी सा अभव्यने अनादि अनत, मव्यने आध्पी अनादर सात क्षेप नया रोदने सये क्ीणमोद्‌ गुणगराणे _सातनी सत्ता ते नघन्य अने उक्ष पण अनहव पेय, पातिकं चार पये चारनी सचा सयोपी एण- ठाणे चे जयस्य अतसुषट्त, उषएटपगे नव वरते उशी पूर्मरोदी हय, तया भानो उदुप यर्व्य याधीने अनादि यनन, प्य भाभोने अनादि सि होप वपव रिष पेल मध्य जापपोने सादि सति, ते उल्य जय-पपी भतदुहुर्तं उष

{२५

रेणौ थकी पदमे भहु एरी श्रेणी पलि रेने न्धि देते उणो अरप एुदग परावर्तं पएष्ठे काठे एरी म्रेणी करे. मोदनीय वर्जीनि सातनो खय ते उपरा मोहे तथा क्षीणमोहे पामीये, दयां जघन्य एकः समगर उपदान मोहे भातो दयी धने भदक्षये पडे ते पारो आदनो इउद्रयी धाय, उत्कटे अंतव्रहन, ते उपान मोए सीणमोष्तं मान अनहं पटी आठनो उदय याय, अयत्र चारनेा उदर्य थाय चार घाति कर्मने प्यं चारनो उश्यी तरम चरमे ुणटाण जधन्य अन रुतं उरे नव वरसे उणी पूममोदि चेय, एन पिमेप~- मिध्याखगरी पीने उपशा मोह लगे आनी सत्ता प्षीणमेदे सातनी सक्ता, मयोगी जग्रोमीपए्‌ चा. रनी सत्ता तथा मिथ्यास्रयी परश्म संपराय चरे जाटने च्य, उपरशान मेह तया प्षीणमेोहे सातनो उदय, सयोगी अयोगीर्‌ चारन उदय होय.

द्यां व्यार भोगवता भवर आयु एर आवच्िका शेष देय स्यारे अयु कर्मनी उदीर्णा हाय, एट्टे साननी उद्ौरणा होय, ते विना अनी उदीर- णा होय त्यां पिथ्याख यक़्ी प्रमत्त लगे सात अथवा आटनी उद्रीरणा, अने मिप्रेमे सदेव आठनीन दोय ^ मरणाऽभावरात्‌ » तथा अप्रमत्त यक मप संपन रायनी एक आविक याकवी होय स्यां छने वेदनीय आयु वर्जानि छनी खी. रणा ते आवदिका थाके मोदनीयनी उदीरणा रोय, आवछिका प्रतरिष्ट माटे तीहांथी यावत्‌ बारमानी आवरचिका धाकती होय लां लगे पांचनी उदीर्णा) ते प्षीणमोहनी आलिका याकते ज्ञानावरणी) द्नावरणौ अने अंतराय ्रणनी आवङिका प्रविष्ट थया मारे उदीरणा नलोप, स्यार नाम अने मोप वेनी उ- दीरणा द्येय एम सयोगीये पण वेनी उदीरणा अयेागीए अनुदीरफ दोय, यद्यपि अयोगीपए भवोपग्रारी चार्‌ कर्मनो उद्य ठे, तो पण योगने अभावे उदीरणा होय उदीरणा तो योगने वशे ते माटे।॥ ( जीवग्रिजयजी कृत भार्पातरमांधी )

एदि काए्‌, जए वेए कृसाय नणेसु संजम दसण तेसा, जव सम्मे सन्नि आहारे २१॥

गड-गति (खार) ` वेए-पेद्‌ (रण) ठेसा ठेष्या (छ) इदि-रद्र (पाच) कसाय-फृपाय (चार) | भव-भन्य (धवे) एअ-एवे (नव) नाणेदु-ज्ञान (आ) सम्मे-सम्यक्त (छ) काए-काय (छ) संजम-संयमः(सात) | सननि-सनि बै)

जोए-योग (भण) दंसण~-दर्दन (चार) आहारे-जाहार भ)

११५

छर्थः-( द्वे चौद भागैणास्थान कदेठे ) गति चार, द्ूधिपांच, फाय ठ, जोग चरण, ५वेद्‌ घरण, कसाय चार, हान ठ, सजम सात प्रकारे, दर्ग॑न चार, १०सेग्या ठ, ११ नव्य चे, १९ सम्यक्त ठ, १३ सन्नि वे, १४ आदारये, एम चोद नेद मृद तथा उत्तर वासठ नेद जाएवा २९

षवे चोद मूर मार्गेणा द्रारनां उत्तर यासढ माभेणादरार्‌ फे

सुरनर तिरि निरयगङ््ग विख तिख चडउ पणिंदि उकाया भूजल जलणा ऽनिलवण.तसाय मण वय तणु जोगा॥१३

छर~देबगति तिभ-तेश्द् अनिर-वाठकाय

नर मदुप्यगति चउ-चरिमि वग~वनस्पतिकाय

तिरि-तिर्गचपति पनिद्ि-पचदरि (ए पाच | तसाय-~त्रसश्य

निरय-नरकगति दिय मागणा) , | मण~मनेयोग

गहर चारगेति मार्गेणा 9 मागणा | वयण-यचनयोग परतन गं

(8 जल-अपकाय तु-फाययो

पिभ जल्ण-तेदफाय जोगा-प प्रणयोगपाणां

अर्थं -देवगति, मयुप्यगति, तियचगति शने नरकगति चार गतिमार्मणा, पकड, पेद, तद्रि, चीरिद्धि थने प- चवर पाचशद्रियमार्गणा, तथा पृथ्वीकाय, पकाय, तेठका य, वाउकाय, वनस्पतिकाय ने घ्रसकाय पए कायमार्गणा, शने मनयोग, चचनयोग शनेकाययोग प्र योगमार्मणा १३ वेख नरि त्वि नपुसग, कसाय कोद मय माय घोनिन्ति॥ म९ सुखऽवचदि मए केबलःविनग मर सुच्नाए सागारा १४

२२६

वेअ-ेदमार्मणा जण माय-~प्राया दिभम-िभंगत्रान

नर-पुरुपवेद ल्ोधित्ति-लेम | मटु-मति (अङ्गान) स्थि-खीषेद | मद्- पतिप्नान | नु भ~दखन (अदान) नपुंसग-नषुपक्वेदर | गृज-्रुतत्रान | नाण-त्ान (ने) फसाय-चार्‌ कपायमार्मणा अवटि-जवधिन्नान | सागारा-सासरोपयोग ोट-क्रोध ¦ पण~मनःपयव्तान ज(णवुं

मय~पान | फेवल-केवट्रान

अर्थः बेदमार्मणएा चण नेदे पुरृपतरद, खीविद्‌ श्यने नपुंस कवेद तथा कषायमार्मणा चार प्रकारे क्रोध, मान, माया, लो- त्त; तथा मतिज्ञान, श्त इन, ऋवधिद्ान, मनः पर्यवङ्ञान, केवलक्ञान, विन॑गज्ञान, सतिन्ङ्ान श्रुत्मक्ञान साठ कान माणा जाणवी, तेमां प्रभमनां पांच सम्वक्तव ्श्रीने थने ठेवा चण मिध्याख खआश्रीने ठे १४५ सामा ठे परिहा, सुहुम खदखाय देस जय खजया। चरु खचस्कू्‌ रोटी, केवलर्देसण अएागारा १५

सामाईय-सापायक चारि देसजय-देशविरति ओटी-अवधिदशंन उज-ठेदोपस्थापनीय | अनया-अविरति(ए सात्‌| केव-केवमदशन (गंगा) परिहार-पस्दरषिथुद्धि | संयम मार्मणा) दंसण-ए चारदशन (मा- सुहम-सष् संपराय | चख्ु-चकनुदर्ैन अणागारा-ते अनाकाये अदहखाय-यथाख्यात | अचरूखु-अच्ुदशंन पयोग जाणवो

अर्थः-सामायक चास्ति, ठेदोपस्थापनीय, परिदार तवि शुद्धि, सृष्ष्मसंपराय, यघाख्यात, देदाविरति, अने खव्रिरति तात संयम मार्मणा ठे, चद्छदर्शन, अचक्षुदरीन, शआवधिददोन अने केवछदसन चार दर्दान मार्भणा जाएवी-ददौनते अ- नाकारोपयोग जाएवो २५

१२९

पापायर चारि “सम केदैतां ज्ञान दन अने चारिनो ज्या "भाप कदै- ताम होय ते मारे सामायर चासि सवं सावद्य विरतिस्प प्रथम जाणवु,

छेदोपस्याप्नीय-जे पूर्वं पयाय ठेदीने वीना विशुद्ध पर्यायत उपप्याप्ने फरयु, ते वे प्ररारे छे (१) सातिचारते) शरी वीर तीर्यफरना साघुने दूषण खगे कै जे तत पर्यय छेदे, पुथ्ठे तत रष्वा निमिते सदूपण तत पूर्पीय छेदी उगमणी करीये (२) निरतिचार ते ची पार्वनायना रिष्य श्री वीर भगवान प्रासे फरीथी तत उचरे, पट्टे तीर्यं थी अन्य ती सक्रमण ऊरे लेम्‌ पा्वनायना साधु, केकी, मागेय अल श्री दीरना दासनमां अवी प्च पदाप्रत ऽचरी पूवं पयय खेदी नवो परयौय ग्रो तेम

प्रिदार विथृद्धि-परिरार तये विदेष स्यां साडानव प्रथ्‌ तो ओगणग्रीष पर्ष उपरत वदे, तेने नयमे गच्छ दोयते मये एर याचनाचार्पं अने चार्‌ सधु (परिहर ) दयन फरनार, सपण यार साधु तेसु वेयाच करना- य, ते छमासे त्प पूरण करे ते वारे चार्‌ पेयावची साघु हप आदरे अने तप॒ फरी रदेटा चार तेमु छमास सुधी पेखावचच करे पठी दादनाचायं तप परे अने आट साघु तमनु वैयावच करे परिहार शपनी प्रिगत~उष्णफठे न- न्यथी चोय) मध्यम छष्ठ अने उछ अहमूनेा सप्‌ करे श्रीत्तशठे जयन्प च, मध्यम्‌ अद्म अने उपकृ दकम तप करे, वर्फीकाटे लघन्प अद, म्यम दशप, अने उक्ष दुगार तप करे, पारणे आयशषिटि एरे एम पपु फरी जिन फरप पडियजे पथा गच्छमां आवे-ते प्रिद्यर पिशरदधि चारि जाणद्‌

पू सपराप--ते द्मे एणटामे देय, स्पा कपायना मप यद करे

यथाल्याव--ठेखा चार्‌ युणडाणे भी वीतसगवर निप्तिवार्‌ चारिनि

देशबिरनि-मिरयराय निरपेश्च सखी प्रप जोवने तदयु

अगिरी--रठे देशपिग्ति तया सथ पिरी येयो प्ते चासि जेन नपी

किणट्‌! नीता का, तेत पम्हाय सक जविञ्मरा वेखग ख्गुवसम निच्छपीस सासाए सन्निखरे ॥१६॥ रिण्ड-हृष्मनेश्पा | तेञ-तेनेचिदया भन्द्-मप्यं भील(-नीकटेध्ण परय -पृधरेदया इथरा~-अभग्य्‌ काज-एापोतनेश्या =: घुफ-छरगरेश्या | बेभग -बेदूक सम्भल

१२८

शवदग-श्षाय॑के सम्यक | मिस्छ-मिध्यात्व सम्यक्स भयत उवसम-मोपशप्रिक स- | मीप्-मिश्र सम्यक्छ स्धि-सन्नि प्यक | साषाण~-पास्वादन स~ | इअरे-असननि

अर्थः-लेदयामार्मैणा प्रकारे 2. कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म अने शुक. नग्यमा्ैषा वे प्रकारे एक ञ्य अने वीज सअनव्य तथा सम्यक्छ मेण प्रकारे ठे, वेदक, कायक, खपरामिक, सिथ्याख, मिश्र अने सास्वादन. तथा व्य अने खननव्य एम चे प्रकारे नव्य मार्मणा, खने स्वि तथा असन्न

एम बे प्रकारे संङ्ीमार्मणा जाएव १६ ठ्या जंबुदरक्चना श्रते जनाणवी जेष कोई पुरूष जु खवा गया स्यां एक जणे धितेच्धुं जाब इत्र थडमांथी छेदीए, ते कृष्ण ठेशवावत वीजे कलं के शाखा उेदीए, ते नी रेदयावंत, रजे कु के धु शाखा छेदो ते कापोत ठेरयावैत. चोयेकहयं के ग॒च्छ ठेदो तेजो टेश्य(वंत, पचे कदु के फल तोडी सयो ते पद्यखेदयावंत, चे कहु के नीचे पटेखां खहृए्‌ ते थु- वं देश्या्च॑त, , भव्यः-जे जीव कोई वारे इक्ति जवा योग होय ते, अने जे जीव कोई काठे पण सुक्तिए जाय ते अभव्य, वेदक (क्षायोपक्चमिक )--नव तसखनी श्रद्धाय करी जे सम्यक्स मोहनीयनां भदेश वेदे एटटे मिथ्यात्व भोहनोयनेा रसत सवं घात्तिओ उदय आब्यो धको भोगवी क्षयं फी, अने जेटलो उदय नथी आग्यो, ते उपशम्ो छे एना आंतरे जे आस्मानी तत्रुचि ज्यां लगे जागे तेने पेदैखं क्षायोपश्षम सम्यर्वत्व कीये, .. क्षाथक सम्यक्ख--श्री जिनकाटठे प्रथम्‌ संथयणी मनुष्य क्षपक प्रणी करतो अ- नतानुवंधी कध, मान, माया, लोम्‌ चार कषयं तथा चरण ॒दर्वनमौ- हनीय- खपावे ते वारे जे प्रथम कल्यो आत्मानो शद श्रद्धान भाव ते बीर पायक सम्थक्त्व, ते बद्धाय पामे तेनी अपेक्षाये तो चारे गति मध्ये पमीषं पदमक सम्यक्छ--उपरनी सति भृति रसथी तथा प्रदेशथी उपशाय थे . जे युद श्रदधानमाव ति बीं जोपशमिक सम्वत.

१५९ परिथ्पास्व~-पिथ्यासने उदये ले विपरीतस्वि ते चोधुं पिनपात, प्रिभ--गिभ्रने उदये जे मिथरचि ते पाचयु मिध. सास्यादन--ते सम्यक चपा जे मिथ्यात्वे नयी पचेच्यो सेनी यच्चेनेुदर , रचिते खु सास्वाद्न, हि ऊन प्राहारे खर नेखा, सुर निरय विनग सु ओहि इभे॥ सम्मत्त तिगे पम्टा, सुकरा सन्नीय सच्चिडुगे १७

आहार-अहाख पद~पतिक्षान मुफा-युक्छ लेशा इमर्इतर (अणादारर) | -शरुरेतान सन्रीषु-सन्निया मेआ-मेद आओदिदुगे-मवधिज्ञान | सनि दुग-समिष्रिक (घ. धुर-देवगति अवधि दुर्शन तिपि पर्याप्ता सिरय-नरकगति सम्मत्ततिगे सम्यक्ल त्रिक] अने अपरयप्ता विभग~विभगक्ञान पर्ा-पदटेदया

छअथः-खहारक अने अणाद्‌ारक वे आदारक माम णाना मेद द्वे वा्तठ सा्भसये चीव जीव नेद फदे वे. देबगत्ि, नरकगति, विजनगक्ञान, मतिक्ञान, शुतक्घान, अवधि. क्ञान, अवधिददरीन, एम सात. सम्यग्खयुँ त्रिक एम ददा यने पद्मतेग्या, गुरलेज्या थने, सन्नीया तेर मागैणाए सही पैव पया छने अपयौत्ता वे मेद जीवना दोय २७५॥ अहां ^ कामण फाययेगौ व्िग्रह्मति समापन जीय तथा अयोगी पेषी इत्यदि जीव अणाहारफ जाणवा अने जे ओनाहार्‌ ते अपयान वस्यै हेय अने रोगाय तया मक्ेपाहार वे पयाप्नावस्याये हेय एप जरण प्ररारना घुधा ऽपदमोदे ते आहारक नाणदा देवगतिं तया नरपति वे मार्गगाने विपे पपि प्पे अने कर अपयप्तो चेवा पेम रुधि अपापो जीव देव अने नारफी नदय मादे, प्रीजा विमगक्ञाने अपर्य अद्याये दिभगहानी होय, ति भपेप्तये छेबु तथा पेच सप्र वभे एफन भोवभेड मान समिपयोहानोन छे ते असनि मा पौरेपी भाग्यो जे देवो अने नारक तेने अप्याहावस्पाये िभगहयन चृ"

१२० होय, तेथी ते अपक्षापै एकज भेद रीधो ठे, विदेष ठे मतिज्ञान, शरुतङ्गान,` अवधिज्ञान बणङ्ञान अने दशन मागेणा माहे एक अवधि दक्षन चार मागणाद्रारे सनि पेचेद्रिय करण अपर्याष्नि जीद तरण हन सहित सम्यक्‌ अवतर, ते अपक्षाये अपर्याप्त टीधा, तथा बीजा सनिपर्याप्ना सम्यक्षष्टि जीवने पण क्य. एष्टे पे जीवभेद दोय,

चण सत्यक्त्वे पण वे जीवभेद दोय, लां पद्धायु सात प्रकृति मोहनी ख- पावी चार गति माहि उपजे लां अपर्याप्त अवस्याये क्षायिक सम्यक्ल दोय. ते अपेक्षाये एक संननो अपर्याप्ना ठेवा तथा उपशम प्रेणीये उपकषम सम्प्रकटष्टि पण मरण पामीने अनुत्तर वासी देवता थाय, ते अपेश्ायेः पीना संजी अपर्याप्ा पण रेवा अटी भं कोई एम कषे जे संश अपर्याप्राने उपश्चम सम्यक्त्व केप हेय तेनो उत्तर जे अदींकरणअपयौप्ता जेवा एण रन्िथपर्यष्ा कवा,

वेदक सभ्यक्तवे, पश्चटेश्याये, शककटेदथाये तथा संज्ञो मार्मणाये पए यार मर्गेणाये तथा उपर नणावो ते नव, एम तेर मार्गगाये सनिभाना पर्वापो धने अपर्यप्तो पे मेद दोप, लां अपरयाप्ना उपजवी वेषु करणयी ठेवा, जे भणी छनि अपार्याह्ठा तो तथात्रिध, विथुद्धिने अभावे तेर मा्गेणाद्रारे पए. तेर मार्गणाये जीवभेद क्या अद वेदकं अने क्षायोपशमिक सन्परक्ं एकज षे. तेर मार्भणा कदी.

तमसन्नि अपज्ञज्ु खं, सरे सवाथर खपज्ञं तेञद्‌ थावर दृरभिटि पदमा, चञवार असन्न ड़ विगते ॥१८॥

त~त ये भेद | वायर्‌ अपज-वादर | वार-मथमना वेर मेद भसन्नि-असमरी | अपयाप्ना सहितं | असतक्नि-असंङ्गीमां हेयं अपज्--छटिध जपयाप्रा | तेउए-तेजो छेष्मामां द्येय दुदु-वे वे जीवभेः

घु भ-युक्त) साईत याव्रर~स्थावर्‌ ( पांच) | विग -प्रस्येक (कख नरे-पलुष्यं गतिने विपे | इगिदि-एकि | मादाय

सं-तेषें पढम।चउ-पेरेटी चार |

, . धर्थः-ते वे नेद्‌ असंज्ञ (ध अपर्य सहित, ( एटति सन्नं पर्या्ो, सं्नेखप्यातो अने असंङ्ीलन्धि श्रपयति पु

१३६

त्रा नेदं ) मतुव्यगतिने विपे होय. छने ते वे नेद चादर चः पर्याप्ता सदत तेजो लेभ्याने तरिपे दोय थने कायमा्गणामांथी त्रतकाय विना पाच स्थावरकाय चने एखियमार्गणामाथी एकै चाषा ठने वरि परयमना चार (सूम एॐडि पर्यातो तथा पर्यास एवे, तथा धार एकेछिय पर्यासो अने सपाप एवे मची चारन्नेद)जीबोना दोय तथा (सन्निप यपर्यापता अ- ते अपयाता विना) जीयना भ्रथसना वार मेद असनिमा होय ने वे वे जीवभेद प्रव्येक विकलेखिमा दोय (एरले पेऽ सा्भैणाये वेष्टडिपयीषा ने अपरया वे जीवननेद, तेम माणाये तेडि पापा खमे सप्याता, सने चोरिद्रि माग. णाये चरि पर्यातता चने अपयीत्ता जीयन्नेद पासीये ) ॥१०॥ दसचरिम तसे अजयाःदारा तिरि तु कसाय अनाणे! पटम तितेसा नविञखग, अचु नपु मिति सेवि॥ १९१ एष चरिम-दस रघा तिरितियेचगति मार भपिमर-भवय मेथा ते-माय मागि | कवा मति | अचरद -जचनमा० अभप-अविरति मागणयि| दुञअजनाणे ये अज्ञान माग- | नपु-नधुसक वेदमा० माद्रारक-माहर मा- | पलप-प्रयपती (णाये | प्रिप्ि-मिन्यात्वमा०

मगा विटे शरणरेशपा मागेणा | सन्वेि-परवं जीवभेद

शअर्ध-जीवना ठन वेष्वा नेद चसक्ायमार्गणाये पामीये

तथा यत्रिरत्तिमा्मणा, खाद्एर्कमा०, तिर्येचमतिमा०, काययोगं सा०, चार्‌ कथायम।(०, चे यक्ञान मा०, परचमनी चरण ( ष्ण, नीक्त, कापोत ) तेरयासा०, नव्य तथा अन्नव्यसा०, धचद्ुद्‌- दनस।०, नपुं्क्येदमा० मि<गसमा०, अडार मागैणाने त्रि जोयना। सं एट्त चोद मेड पामीये

९२५

वार यणएठाणां देवगति तथा नरकगतिये जाणवां वाकीनां दया युएठाणां चवधर्ययेज त्रिरतिने यन्नवे तेमने दोय. ). मतष्यगति, संदी, पचेंडिय, जय्य यने चरस पांच मार्यणाये वोदे एुणटाणां दाय, तथा एकेदिय त्रिकनलंछिय, पुथ्वीश्प ने वनस्पति सात्त मा्गणाये पेदेलां वे युएखाणां दोय. ने गति त्रस ( तेछकाय तथा वाउकाय ) तश्रा शयन्नव्यने विपे एकः (मेण्याख एणं दोय. २२

वे ति कसाय नव दस, लोन अज दुति अनाणतिगे नारस अचु चसु, पटमा खहखाई्‌ चरिमि च॥९३॥

तेभति-त्रणवेदे चउ-चार अचर्तु-अचकदरगनायं कसाय~त्रणकषाये अजद्‌-अकरिरति मार्मगाये 1 तिये तथा जरण अहखारचसिम-यथाश्यात दस-दश्च अनाण-अत्रानत्र् | चासति क, 0

लेभे-लोम्‌ प्रागणाये | षारस-वार्‌ | चउ-चार

अर्थः-त्रणएवेदे यने लोन विना चण कषाये नव यणां दोय अने लोन मागणाये दश्च युणएाणां होय, चार णण अविरति मागणाये होय, चे तथा च्रष युणठाणां अङ्ानतरिके . होय, तथा अचद्खदशीनीय अने चद्छुदशैनीय जीवने परथमनां चार युणएडाणां होय. अने यथाख्यात चारि उचा चार युणए- वाणं होय. एम चच्ीसर मागेणा घषर ९३ : नघमा गुणटाणा पथेत रण वेद्‌ अने तरण कपायन्ये उदये, तेथी प्र

कृतिना उदयत जीवने प्रथमनां नव शुणटाणां होय, अने दक्षा गुणरणा सथो छोभनो उदय छे तेधो खोभी जीवने दश गुण्दाणां होय,

र२य्‌ मणएनाणि संग जया, समर्‌ ठेखं चञ्च छनि परिहारे केवल दुगि दोचरिमा, जयाई्‌ नव मद्सु उदि दुगे ॥९४॥

मणनाणि-मनःपर्यवज्ञान | दुनि-पे अजयाड नव-अविरति सग-सात परिहारे-परिदार्‌ विद्धि आद्रि नव जयाटू-परमनादि चासि | मदृ्-मतिज्ञान मार्मणाने समदृम-सामायर केवर्दुमि-केवण्िक (कष िपे छेअ-ठेदापस्थापनीय | वलन्नान तथा केवलदरशन) | ओदिदुगे अवधिन्नान अने घउ-चार होचरिमा-ये खा अवपि दर्नने विषे

अर्थं -सन पर्यवङ्ान मा्गणाये पमत्तादि सात युणठाणा होय सामायक अने उेदोपस्थापनीय चारि चार शणगणा होय परिहार विद्धि चारि वे शुषठणां होय, केवलज्ञान अने केवलदर्न मारगणाए्‌ ठल्ला वे युणठाणा दोय तथा अविरति आदि नव युणडाणा सतिङ्ान मार्गणाने विपे तथां वधिक्ञान छने अवधिदशनने धिपे जाएवा

चारिपरियाने अप्रमत्त युणटाणे मनप्वक्नोन उपने ते वी भमत्ते जवे ते अपेक्ताये परम्त एणा पण अने ते पठीना शुणडरणाए ते साघु उपशम शरेणी तथा क्षपक प्रेणी परे ते अपेक्षाये सात गुण्ठाणा रमि

सापमायफ अने ठेनोपत्यापनीय ये चारिित्त जीवने परमत) अप्रमत) िषटत्ति अने अनिरत्ति चौर रणटाणा रामे एमे चारि प्षायोपश्चमिर भावे तथा उपशम प्रेणीये नयमे गुणटाणे विद्मि चारि होय) तेने मते ओपश- पिक भाये तथा कषप्रप्रेणीये नयमे णडणे प्षायिफ भावे एम तण भावे दोय,

परिहारं विथद्धि चासि भषत् अने अगमच एमे णडा हेय परिमि उपरमयेगी तया क्षपप्रेमो वेह भरेगी नोय तेथी भागल पुण्‌ चासि नेय, वासि क्षायापश्रमिके भावि हेष,

१५६ प्रमउवस्मि चञ वेखमि, खष्टए शकार पिन्त तिमि देसे। सुहुमे स्स्ाण तेर, सजोग आहार सुक्षाए १५॥

इकार-अगियारशुण्धणा | पानके टय उवसपि-अपशमिक्र छतिगि.-पिः ठेरस-तेर गुणं चउ-चार गुणठणां | देसे-देश व्रिरतिं योग-त्रणं योप परा्गेणा वेअगि-वेदकसम्र्दटणीये | श्रमे -मृक्षम संपराय | आहार-आह्यर पर्णा खःए-प्नायक्र समक्रिते | स्सद्ाण-पोतपोताने गण-| इकाप्-गुकृटेदयामा्गणा

सर्थः-( चोधाथी अगि्ारमा लगी. ) आठ गणगणं उपद्चम सम्यस्खे दोय, ( चोधाघी ढम्‌! गी ) चार युषः उाणां वेदं सम्यक्‌ दिने दोय, कायक क्षम्यकसे ( चोथाथी चोदमालमी ) अगार युएगणां दोय. मिष्यात्, सास्वादन शमने मिश्र त्रण तथा देदाविरति अने चृद्म सपरायए पांच मागेणा पोतपोतताना युणएस्थानके होय, अने योगनी शरण गणा, तथा आहार मागण अनं ुष्कदलरया मार्या पाच मगणाये पेदेलां तेर युएठाणां दोय. २५

मनोयोग, वचनयोग, अनेकाययोग जण योगे सनान्य नये पिध्या-

स्वीथौ छइ तेर गुणग्रणां लाभे अने वरिकेप अपक्षाये तो एक सत्य, वीजो अ“ सत्यामृषा वे मनोयोगे अने एज वे षचनयोगे तेर ग॒णराणां हेष, अने ' वीजा मनोयोगे तथा वचनयोगे जे चार्‌ योव धायते चारं योगे वार्‌ शुगगणां जाणा. ओदारिक मिश्र काययोगे. मिथ्या, सास्वादन, अरिरति अने सयोगी चार गुणटाणां नाणत्रां तथा क्रिय काययोगे पेहेखां सात गुगगर्णां जाणगं वैक्रिय पिधकाययोने., मिथ्या, सास्वादन, अगिरति देशविप्ति, अने ममत्त पांच गुणठणां जाणवां आहारक काययोगे पमत्त अने अप्रमत्त पे गुण्णा नाणवा. आहारक मिभ्रकाययोगे एक अमत्त युणगणुं नाणु तथा क्मगयोगे एक परिथ्यात्व) वीं सास्वादन, जीं अविरति चोपुं सयौ धार गुण्‌ षणा हप, ?

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१२४ असच पष छगं, पठम तितेसासु उच इदुसत्त ` ५. हि ५. < पटमेतिम छग अजया, खणदारे मग्गएादु गला ॥१६॥ असनिु-भसदही मर्मणाये) दृ्ट-तेजो अने पद्य यै ] अनया-अगिरति पदु पेल! वेएणयणो केदयाये अणहारे-मणाारफ मा पदपरिटेसादु-पेदेरी तरण, सत्त-सात गुणाणां मगगाघु-मा्मणाद्रीरने टेश्याये | पदभतिमहुभ-रेदेखा घे = धिषे खच-ठ गुणमणा अने रेवै | गुण-एुणठाणा अर्थं -यसङ्खी मागैणाये धरयमना वे यणएगणा दोय, पेदेली छरप्णा(दि चण देया मागणाये रएठाणा जाणएवा श्ये तेजा तथा पद्म एु चे लेऽयाये सत्त यणखाणा दोय, घथमनां षे युए. छाणा चथा ठेह्ला वे युणठाणा चार तथा छव्रिरति एम पंचं षदं अणादारक मार्गणये जाणा रोत्ते वासड मार्म- एाषटरि यणएठाणा बिवरीने कष्या ९६ अणादारक मा्मैणवयि परिव्यास, सास्वादन अने अत्रिरति सम्पर्‌ 1 भ्रण शणराणं अरजा वक्रगति पथ समनी करता वचा तेग पमु अथा चार समथ अगाहूरी हेय, ते अपेक्षये जग गुणडाणां यरि वेदता पीव प्ये पारमे तथा केयटी, सथद्‌जत आद समयनो करे ते मपे भोजे चोवे अने पामे रग समये पापरैगयामो भण अणदारो देय ष्टे तेरु शुग दण॒द्येप, तथा अयोगी णर च्रयुज,§ञउुञलृपएया पाचन अश्र उचर्त दोप तेख्गे फन अणादाप देप अयशा अतारि अतन पिद नपे पण योगने यमात जगाहरफ परु देव योजा सथं नोर एफ समम भान्‌ एग ममार न्‌ देय दे शष्ठ मर्णणादरि पटर योधकटेषे स्चेखर मीस अस, मोस मएवय विजविद्रा 1 1 १९. उरं सीष्ठा कम्मण, इ्जोगा कम्म अशहारे ॥९४॥ १८

१२० सथे-सल्यगनो योग॒ ¦ मण~मनोयोग वम्पण-कार्मणयोगे , १अर-असलयमनोयोग | वय-व्चनयाग ¦ इअ-एम मीस~मिश्र; (सलयामृषा- | विउव्वि-यैक्रिययोग , जोगा-जोग मनो० ) | आदारा-आहारयोम ¦ कम्प्-फार्मणयोग असचचमोत-असत्यागृपा- | उरच्-मदारियोग | अणहारे-धनाहापी माम मना | भीप्ता-जदाकि पिध्रयोग| णाये

अथंः--सत्य सनोोग, असत्य मनोयोगः, ( तेमज सत्य वचनयोग, सस्य वचनयोग ) सस्यामुपा मनोयोग, असत्या स्रषामनोयाग, ( तेमज सत्यातृपा वचनयोग, अस्या मृषा वचनयोग ) वेक्रिययग, आारकयोग, दारिकियाग, खदा रिकिमिश्रयगि, वेकरियमिश्रयोग, आहार्कमित्रयोग, अने का- मणयोग, एम पंदर्योग. ते अनाहार भाग॑ंसाये दोय.

अनेकातपणे सत्य वस्तुन चितवगं ते) सत्य मनेमोण (२), तेथी विप रीत ते असत्य मनगयोग (२), तेम साचा वचनं आसराने जोश ते सल वचनयोग (३), तेथी दिपरीत ते असत्य वचनयाग (४), कोईक सत्य अने कारक असत्य वितवघुं ते सत्यामृपा मनोयोग (५), अने ते प्रमाणे वोचं ते सत्याम धचनयोग (६), अने जेमां साच नथी तेम जृढपण नथी जेम॒ अष्टक मागपतने फहेवादु चतवं केँआ वस्तु ख, ख्द्‌जा, ते असल्यागृषा मनोय (७),अने ते प्रपाण ते असलयमृपा बचनयोग (८) चक्रिय अरोर साये आलानी धक्तिने जोड ते वेक्रिययोग (९) तेमन आहारक शरीरनी साये आलाने जोड ते आहारक योग (१०) ओदर शरीर साये आसने नोऽगो ते ओदाकि- योग (११) जणेने मिश्र एठे अदासं कामण साये मिम यतुं ते ओद रि मिप्र (१२) आदार सपे वेक्रियद्ं मिघ्र यतुं ते वेक्रिय मित्र (१३) ओ- दाख साये आदरं मिध थरं ते यहासपित्र (१४) अने कर्मद से आस पदेशं मण्डं तेणे करी परमवारिकथी आगमनशषक्ति ते कार्मणयोग(१५) पेदर्योग (अदी भां तेजस अये कारण शरीर जीवने सदा सर्वैर दोय तेथी

फार्ैणयोगज टीथो के अने तेनस तेनी अंदैरमं समजवानो ठे, मादे जरर 7ण्यो नभौ)

१३४ एम षद्रयोग कथा, द्वि पा्णद्रारे क्रं ििरण परेद द्यां प्रथष सणहारी मगेणाये एक कार्परण योग सोय, चीना चोदयोगे वर्चो जीप आहारी हेय अने कार्पणयोने वत्ततो जोव आहारौ हेष तेम अणादारी पग हेय जे भणी प्रथम सपय क्ार्पणयोगे आहार होय नर पणिदि तस तु, अच्‌ नर नयु कपायसम्मदुगे सति व्लेसा हारग, नव मर सुख उदि उगिप्वे ॥२८॥

नरगई-पतुप्याति मपु-नपुकवेदं भष-मव्यमा० पर्णिदिय-पर्द्र कसाय-रपाय मईु-मतिङ्ञानमा० तप्त-प्रसकाय सम्पदुगे-सम्यक्छद्विक | भुम-युतङ्गानमार रशु-फाययोग संन्नि-सदीपा० ओद्िदुगे-भवधिक्षानपा५ अचरुूबु-अचमुन्दन | छकेसा-छरेइया तथा अपि दीन मार नर-बुरुपषेद्‌ हार-भादारकमा० सनेव

अर्थं --सनुप्यगति, परे त्रसकाय, काययोग, अच छदर्दीन, पुशुपवेद) नयुक्तफवेद, चार कयाय, एम अगीथार मार्गण, अने सम्यकख मा्गणामध्ये कायक छने कायोपनमिक सम्यस्छ मार्गा तथा सङ्गी मगंला तथा लेग्या मार्मेणा, आ- दारी मार्गणा, जब्यमागणा, मति, शुत अने खवधि ्रण ज्ञान मार्गणा तथ! अवधि ठन मायैषा, ठवीसमागैणाद्ररि स्र योग होय रीते सत्तावीप्त मागैणादवरि योग कल्या २८ तिरि इच अजय सासण, अनाणए उवसम खमयमिचेसु तेराहार उगणा, ते उरल उगुए सुर निग्प्‌ ९८॥

त्िरि-तिक्ष्चगतिपा० | मप्रस्व्वपार ते-ते (भ पेथी) शप्ि-द्ी वेदा अभनय-भुमव्यपा० ,| दरनदुपग मीदासिदिरि अनयं-अगिरतिमा० पिरटघु-पिष्यालमार ओट करता सामण-सा्ादनमा० | तेरादारर दुगमा माद निःप-देषता अने अनाण-प्रण अनानप्राए रणदविरु उणु ररता | उ्नए-दवता उत्रसम-जशषमिर तेर्पतोणदोप नारक़ीने

२४०

` अर्थः तिर्थैचगति मार्भणा, द्ीवेद भा्गणा, श्चविरति सगणः, सास्कदम सगण त्वा तरषपन् [नन] श्रपण मागषा एम्रमसघात त्वचा अपशमिक्र सम्पद माग्षा, अनन्यमागणा मिभ्याल मागा, दद्य सग्णाद्रार (पदरथ) आं द्ारकट्निक उं करतांतेर योग द्यत तर योगमा दारिकिधिक खवा करतां अगिश्यार्‌ याग दवता तथा नार कीने होय ( कारण के तेमन आादारिकः रीर दतां नथी. एम संवे सनौ उगणचातीपत सागणाद्रारं याग कष्या १९८ ` वाट बरहेनं वे थने वन्वे जीवने काममयो निप्र, तया सीने येव संमद्‌ रातां पेदे चरण समये होय, तथा ओदारकि पिन्रयोष जपर्यप्ावश्थाये रोय, तथा ओदरासिकिदिकि अगिभार्‌ योग पर्व्ावप्यायि प्नेप, दां येक्रिष भने सैप्रिय पिश्रयरोण तिद उत्तर यक्रिय फर, ते अपेन्नाये कया ड, शेप आदार पादास परिश्र एवे योगचास्िने अभावे चोद्‌ पूर्वत्रिना नदोष. चने परासि दोय पग तुच्छता माखवहुल्माश्ि देषा करीने वेदरपूं भणपु निषेध्य छे. तथी तने पग आञरक तथा आदार पिधररवेयोगनदोय दधता तथा नास्फोने परभवभी आवरतां कामणयेग पए सपय ठखमीन देय अने लयारपडीज्यांव्गे से पयि पुगीनन्येद्ेमलवां चुषी वैक्रिष मिध. योप दोय अने प्याषिो पुरी यया पञ चार्‌ मनेयोग, चारं वचनयेाग अने

वेक्रिययोग एम नव यो दोय कम्मुरल्तडगं थावरि, ते सविवि उगपच द्ग पवणे

असनि चरिम वयजुख, ते विवि दुगृखचड विगतं०

कम्बुरलदुगं-कापण तया | पंच-प्चियोग चय-वचनयोग

, . ओदाणिरदिकि | इग-एपद्रिन अयुक्त

यौव्रि-गतियावर | पवणे-वाउकरायने तरिपे | त-ते मध्येथौ

ते-ते बणयोगने | छ-खयोग व्रिऽचििदुगूण-वरकरियद्ि

र्वि उव्वदुग -चेक्रियद्विक असन्नि-असन्नि मा + ; ~, साधे करतां | चरिम-ख्टा चउ-चारयोग

वरिगठे-विफठेद्रिने

१४६

अर्थः-कांणयोग, छोदारिकयोग तथा श्ओदारिकमिध- योग घ्रषयोग गतिथावरने होय, ते ्रणयोगने वेक्रिय उने चक्रिय मिश्रयोगे सहित करता पाच योग एफेढि ने बा- कायने दोय तथा पाचने ठेघ्ला वचनयोगे ( असत्याश्रपा- वचनयोगे ) सहित करता योग असन्नि मारीणाने त्रिपे रोय. ते ठ्मांयी वेक्रियघ्टिक उण्णा करता चार योग (वेकलिने दोय।३०

अदी तेउकाय मतिथावरमा मणिये फारण फे उषनाद्रिफ सयोगविना पेवफाय स्थानातरे जाय अने वाउफायतेा पोनानी परक्तिये सेँकडा जोजन जाय पाटे वाउस्षयने गतिनप्त फरीए एथ्ठे तेना प्रिना पृथ्वी) अप तेड अने

सनस्पतिफायने उपजना कार्मणयोग होय वी एने अप्ा्ावस्थाये ओदासिकि पिध्रपोगर सेय अमे पर्याप यथा पछी एक ओदासि योग लेय

वादुर षारकाय भ्वजाने आकारे उत्तर वेतक्रिरप करे ल्यारे परिय अमे भरक्रिय प्रिधषएवे योम घधारे दोय तथा पार्मण अने द्राति पिपएुये योगं अपर्य वस्याये हेय तथा ओदाि योगता मूग शरीरी अपक्षाये हेष पमं पच येग घाडकायने दोय,

करमभुरलमीस्तविएु मए, वय समश्य ञेख चु मणनाणे उर दुग कस्म पठम, तिम सए वय केवल इगमि।२२।

एम्म-फार्मण धीयो | कम्प-कार्मण षरल्गीस-ओदाखिमित्र | ठेअ-देदोपश्यपनीय | पदमतिम-पदेरोभनेटेटा बिणु-पिना चारिीमो मणवय-मनयोग तथा पण~मनपोगी चरूपु-चक्षर्मी वचनयोग वेय-कचनगेषी मणनागे-मन.परयवज्ञानी | केवल दुगमि-केवखद्धिक

समईम-सामायक चारि उरन्दुग-भीदारिफद्रिर

अर्धं -एक कामण छने वीजो अओदारिक मिश्र एषे योग विन! चाकीना तेर योगं मनयोगी, वचनयोगी सामायकं

२४२

वारी, ठेदोपस्थापनीय चासी, चद्धदद्नी, छने मनःप- यव क्ञानीषएु मा्गलाद्ारने विपे होय दारक श्चन परौदारिकि मिश्र तथा कर्मण प्रण काययोगः चने पटेल तथा वलो वे सनयागम तथा वचनयोग परते सत्यमनोयाय तथा असत्थमुपा मनायाग तथा असव्यामृपा चनया ) एमं सात योग केवलक्तान अयने कवल्तद्न्‌ एवे मार्मणाये दोय, एम सत्तावन मागणाद्रार पयां. ३१॥

मएवय उरला परिहा, रुहुमिनव तञ मीननि सविखा॥ देसे सविवि दुगा, सक्म्मरल मीस खदक्ाए ॥२१॥

मणवरय-मनोयोगवचनयोन मीति-रिप्रसमद्धिति मार्म- ' सदिति फरीपष्‌ उरटा-जदार्किकाययोग णाये ¦ सकम्धुरलमीत-कामण ~ परिदार-परि (1 सवि्व्या-देत्रिययोग | मने यौढारिकि मिथ सष्ठित सुहुमि-मृकषमसंपरायचासि। ~ सि करीष स्ट नवनव | देसे-देखरिरनिमार्मणाये | यदृख्चाप्-यथाल्यात [~ य्‌ भ, तेड-तेने | सविउव्विदृगा-येत्रियष्निक। चारि मामेणये

च्प्थः-चार सनोयोग, चार वचनयोग, एक ओदारिकि क्राययोग्‌ एम नवयोग परिहारविद्युद्धिचासिमागणाये चने सू- द्मसेपरायचारिचिमार्मणएये दोय, ते नवयोगने वे किययग सहित करतां दद्र योग मिश्र ससकित मार्मणायेहोय. तेज नव योगने धेक्रिय (छक एटले वक्रय ने वैक्रिय मिश्र काययोग सदित करतां अगिच्रार योग देद्य विरति मार्गएये होय, वढ्धी तज नवयो गने कासं अने दारक मिश्रयोग सदत करतां ख- निखार योग यथाख्यात चारित्र मा्मणाये दोय रीत बासव माभेणाघ्टरे योग कड्या ३९

१४३

परिदार विशद चासि अने श्प सपराय चोर उपर कधा तेनव योग सौय षाङीनाछनदोयकारणकेषु मरे चारिमने पपे वर्चमानसाधु दषते खनि प्रयुजे नदी, तेयी वैक्रियना ये अने आहारकना पे एु चार योगन रामे फेम परदार विद्धि चारिविवागने उक्ृष्टु शुत नय पूर्य पैन हेय अने आश्रक शरीर तो चौदपूीं बिना हेय वी वक्रियटयिपि परयुनयानी चासि आत्ना- नेथी तथा जपयप्ावस्याये काण अने ओदारिफ मिभ्र योगहोय त्याचासिि देय अने येवो सशुदुघात मये तो यथाख्यात चासि देप तेयी सषटद्‌ धात मिश्र तो यथाख्यात चासि सेय तेथी ते स्ुदूधातनी अपे्ाये पण एवे योगप चासि सभवे मारे रेप नव योग लाभे

इवे पास मार्गणाद्रारे उपयोग करे ठे

ति खनाणए नाण पण चर, द॑सणवार जियल्कणुवछगा विएु भणएनाण दुकेवल, नव सुर तिरि निरय खजएसु \

ति-त्रण निअ-जीयस केवन्प्र्शन अनाण-अह्गान लप्खग-~लप्षण नव-नपर उपयोग नाणपण-हान पच | उपओगा-उपयोग छरतिरिनिरय-देषता, ति घद-चार त्रिणु-गरिना थच, नारी दस्तण-द्र्धन मणनाण-मन'पथय्ञान | अनपएप्र-भप्रिरति सभ्पङ्‌ घार-पए वार दुपे ज-पे गहन तथो स्ट भा

अर्थं -्रण अज्ञान, पाच कान अने चार वदन वार उपयोग जीजु लद्ण जाणबु ( उपयोग एटले वस्तु परि- दक कानन ) 1 वारमाथी मन पर्यवङ्ञान तथा केवलक्ञान अने केवलदर्गन घरण पविना नव उपयोग सुरगति, तिर्य॑चगति अने नरकगति चरण गत्ति मागणा तथा अविरति सम्यक्टषि सार्गणा चार मार्मणाये दोय 1३३

उपयोग प्रफ़रेे, एफ सारार, योनो नीगकार तपा पचि इवान अनै रण अश्न आर साकार तथा चर दुीनने अनाङार्‌ कदी, प्य पिष्पाली

४१४ धि चण अज्ञानं अने चु तथा अचकु एवे दर्यन, एम प्च इपयोगे ठामे अने सम्यक देत्रादिक चार र्मणा मध्ये चरण नान तथा तरण दशनप खड. पयोग लाभे, एक समये जीत्रने एफ उपयोग देय एण ओध मात्रे कया,

तस जोञ्प वेखघुक्षा, हार नर पणिदि सनि नवि से नयणे अरपण तेसा, कसाय दस केवत हुगूएा ॥३४॥

तस्-त्रसक्राय नृक-यृकल ठेघ्या पथिदि-पर्चप्रियजाति

जोअ-तरण योग आदार-आहारी मा० | सननि-संतरीमा्ेणा

वेअ~्रण वेद्‌ नर-मनुप्यगति | भव्रि-भन्य मार्गा

सन्वे-सवं उपयोग पणटेसा-पांचन्ध्या | दैवलदुगणा-केवल द्विक

नरणेअर-चक्ष टर्न अ-| कसाय-कपाप हीन करतां चश्वु दर्शन दस~दभ |

अर्थः-एक असकाय, अएजोग, प्रणवेद, श्ुकल्तेदया, या- दारीमार्भेण, सयुप्यगति, पचचडियजाति, संज्ञोमार्गेणा अने प्रव्यसा्मण, तैर माभणाद्रारे सव (वारे ) उपयोग पामीएा। चद्ुदशन, अने अचद्छदद्यैन, शुक्ल सिवायनी पांच तरया, चार कषाय दम अगीच्ार मागणे केवतदद्यन शसने केव- लक्ञान उंजा करतां ददा उपयोग पामीए ३४॥ चररिदि सनि दख नाण दुर्दैस्त इग विति ` धावरि अचग्क्‌ | ति अनार दस्ण दुग, तप्रनाण तिनि आरव्प मित गे ॥२३५॥

चउरिदि-चैषिद्रिमा० | वेदु्रि-तेद्र , अन्नाण तिगि~त्ण अङ्गां

असनि-असननि मा० | भावरिपरंचे थावर | मार्मणा

दूअनाण-वे अज्ञान | जचर्लु-अचश्ुदशेन | अभन्व-अमग्य मा सपे दशन | तिअनाग-जण अज्ञान | मिच्दुगे-मिष्याख तथा

ट्गवरिति~पंद्र | दं्णदुगं ~त द्शेन सासादन्‌ मा

१४५

अर्थ.-चजरि(ड तथा असन्नि वे मागैणादरे, मतिख- ज्ञान तथा श्रुतयज्ञान वे अज्ञान; तथा चठ छनि अचछ् एवे दरीमन एम चार उपयोग दोय तथा एकेडिय, वेषक्धि, ने तेष्ूछि चरण इंडिय,मारीणा, अने कायमागणा मध्येन पाच स्थावर, एम आव मागणे मतियज्ञान, अत अङ्ान ने अचक्चुदङन व्रण उपयोग दोय चरण ्क्तानमा्गणा छ्न्नव्यमार्भणा, मिभ्याल मा० अने सास्वादन एठ मार्गणाये मति, श्रुत खने विन्नग त्रण अक्ञान तथा चक्षु, अच्क वे ददन एम पाच पयोग दोय, जे णी अरथा सम्यक्त्व पामीए, तेथ हेष सात उपयोग दोय ३१५

केवलम तिच्‌, नयतिखनाएविणुखशखञ्दरए दैसण नाण तिगदे, सि मीति खन्नाए मीसतं ॥६६॥ पैवरदुग-केवरद्विरे | सकष्म-स्ायक समप्रित | देसि-देश विरति मारमणा्‌

निभदुग-निन्धिकि अदखाए-यथाख्यात चा | पीि-मिध्र मागेणापए नव~न चि अन्नाण-अक्नाने फरी तिथनाणपिणु-त्रण अह्ञान| देस्णनाण तिग~त्रण ज्ञान। मीपत-मिभ्र

परिना तथा प्रण द्वन

र्थं केवलज्ञान अने केवल दर्ञन घे मागेणाये तेज वे उपयोग पामीए. तेथी निजद्रिक कदय (जे प्रणी घाकीना गब्मस्थिक जे दन्न उपयोगे ते केवलीने दोय ) इवेवार उपयोग मभ्येथी तरण अक्तान विना नव उपयोग फायक स- म्यक्त्व ने यथाख्यात चारि वे मार्गणाद्वारन विपे पामीए, (तेम मतिज्ञान, श्ुतक्षान, अवधिक्तान, मन.प्यवज्ञान, -च्ु दर्वान) धवष्ुदरीन, अने भवधिददोन, सात उपयोग शमि.

१४६

आसते अने बारमे युणएठणे यघास्यात चाखत्र दोय ते पेये स्तेवा अने केवलक्ञान तथा केवलददैन बे उपयोग केवदीनी अपेद्घाये यथाख्यात चारघ्र ठे माटे लेवा, विरति चणी अक्ञान ` व्रण होय. ) एक केवल ददान विना अचणएदरोन तथा मति, श्चुत अने अवध रण क्ञान एम पयोग देशाविरति -आर्मृतये पामीए, तेज उपयोग मिश्रमार्गणाये दोय, पण एरु विरोष के चरण क्ञान ते अङ्ताने करी मिश्र त्ेखव्वां. व्यं मतिङ्घान मतिच्यक्ञाने मिश्च, यने श्रुतज्ञान श्रुत्ज्ञाने मिश्च `तथा विंग अज्ञान अवधिज्ञान मिश्र दोय एम तरण दर्घन पण {सश्र ल्वा. एम उपयोग निश्रमागंणाये पासीये ३६ मणनाणए चु वजा, अणएदारे तिनि दंस चञनाण चनाण संजमो वस्त, वेच्पगे 3हि दंसेखप २७ , मणनाण-पमनःपर्यवद्ञान | तिनिदंस-जण दर्दन | बेअगे-वेदकसम्यक्ल मा०

चस्सु-चुदरशेन चउनाण-चार ज्ञान ओहि दंसेभ-अवयि दशन वन्ना-वर्जनि सजम-संयम मा० भा०

अणहारे-अणाहार मा० | उवसम-उपद्ापप्तम्यक्त्वमा अथः-मनःपयवज्ञन ने चच्छदरोन वजीने वाकौनी दश उपयोग अनाहारक मागणाये होय. तथा चच्छ, खचद्ं छने अवधि एः तरण ददन तथा केवलज्ञान विना चार ज्ञान एम सात उपयोग अगिच्ार मार्गणाषारे होय ते कदे 2, केबढठ तिवाय चार कान मार्गण छरेःतथा सामायक.उदोपस्था- पनीय, परिदार वुद्धि अने सूदंम सेपराय चार चाखिि मार्गणा टारे, आठ तथा नवमी उपशम सम्यक्त्व, दशम वेदक' सम्यक्छ अने अगीसारमी सवधिदैन माणा 'ऋअगिसार मार्गण हरे उपरना सात उपथोग पामीद ॥३७॥

१४४

ह्व प्रण योगं पार्मणाने विपे लीवस्यान, ुणध्यान योग अने उपो आध्रपीने मतांतर्‌ कदे छे,

दो तेर तैर वारस, मणेकमा अशठ चञ चयणे चरडपण तिनि कार, जिखगुण जेगोवञं गेनने ॥२५॥

दोपे प्ड-चार निअ-जीवस्थान तेर-तेर य्यणे-रचनयोगे शण-एणस्थान , षारस~ार पण-पाच लोग-योग मणे-मनयागीने विपे कमा-अलुमे तिन्नि-रण उपग~स्पयोग अदटर-आद फाए-फाययोगी अत्रे-वीना आचार कटे

चरथं -ये जीवननेद (सन्नि पचभियपर्यासो थने पयो), भथ सना तेरयुणएवाणा (कामण अने चढारिकि मिश्चए वे योग जिना) तेर योग, अने चार पयोग अनुक्रम मन योगीनि विपे पामीष चरण विव अने श्सन्नि पचढि चार परयाता ने चार अपर्याता एम ) माठ जीय नेद, भिष्याख अने साः स्यादन ए) वे गुणगण, ( दारक, ्रीदारिक मिश्र, कर्मण, ने यस्तपयामृषा ) चार योग, छने ( मति अङ्गान, शृत ्ङ्ञान, चङटशषेन अने अचदु दर्शन ए) चार उपयोग, वचन योगीने पिवे पामीए ( सम पयाप्ा्ते छपयौत्ा तथा वादर्‌ पयोषा ने खपर्थाता ) चार जीव नेद, ( मिथ्या छने सास्वाटन ) बै गृणठाणा, छरोदारिक, श्रीदारिकं मिश्रः चक्रिय, चेत्रिय निश्न, यने कामेत एम ) पाच योग, छने (म- ति थङ्घान, श्रुत श्यङ्ञान तथा चदु दर्हन ए) शरण उपयोग ष्‌ एकज काययोगने तरवे पामीप्‌ रोते मतातरे योग माम णाये जीवनेद, गणठाणएा, योग छने उपयोग चार योल धर्यं चार्यं कचेठे ते क्या, 2०

२४८

हवे मार्गणारे देश्या कहे ठे. कारण के मा्मणास्थित जीवनी उपयोण शुद्धि ठेदया शुद्धिए करी जणाय मारे,

ठसु वेसाघु सगणं, एमिदि असनि जृदगवणेसु पटमा चे तिन्नञ, नारय विगल्लगम्मि पवणेसु ॥२९॥

छषुटेसासु-ख रेश्याद्मरे | दग-अपङकाय मा९ नारय-नारकी सदाण्-स्वस्थान वणेषु-वनस्पतिकायपा०्ये | विगल-विगर्टेद् पठमाचउरो-प्रथमनी चार | अगि-अ्रिकाय मार [ष [.] --घ ण्‌ ले [षं ।- | ु-वृ्वक्षाय मा० तिननिड-चरग लेया पवणेषु-वाउकाय मा

अ्थः-ठउ वेद्या सा्गंणाष्टारे स्वस्थान ते आप आआपणी एक लेद्या होय, एटल्ञे कृष्ण द्या मागगणाये कष्ण खेदया ने नील वेद्या मागंणाये नील वेद्या दोय, एकेठी मागंणा, असंङ् मागण, पथ्वीकाय मार्जणा, अपकाय मागंला, वनस्पति काय मार्गणाः, पांच मागणाद्वारने विषे षयमन श्चारखेदया दोय. कृष्ण, नील अने कापोत व्रण तेरया अश्न परिणामे होय, ते नरकगति माणा तथा विकलैष्धिय मार्मणा, अने पंचमी अग्निकाय मार्गणा तथा ठद्टी वायुकाय साभा मागेणा दवारेए पथमनी जण लेदया दोय. ठणए सार्मणा (स्थित जीवं शुम अध्यवसाय स्थानके वते ठे ते णी एने अह्न लेश्या भ्रण होय रोष तरण दन तेद्या दोय ३९८

% अकिं जण टेद्या से्ेजे होय; जे यथी इनोख्या सो पृथ्वी अप अने वनस्पति मदि सौधर्म इशान देवलोकना देवता चवीने अचतरे, जे भणी ते

देवता पोताना भवनी ठेश्या शेष होय, तेनी साये चये तेथी एेद्रियादिक मध्य तेजेखिकषया "पीप. -

१४४ अइखाय सुटुम केवल, इमि सुका गवि सेस गणे

नरनिरय देवततिरिखा, थोवा असंखणंत गुणा 1४० अषवाप-यथास्यात चा | सृ्ल-गुक्ट खेदया देव-देव सि

छावि-ठ तिरिभा-तिर्च घ॒हुम-मूम सपराय चा | सेस्गणेसु-पारीना स्था योवा-थोदा &। नके दुबे कैवज्दुग-केवन्हान अने। नर्-मनुप्य असल-अ्त्यातुणा द्दीन निर्य-नाररी अणत्तणा -मनतगणा

अर्थ.-ययारयात चासि, सूषद्दम संपराय चारि, केवल- ज्ञान, केवल्रददौन चार मा्ेणाद्ारे एर चङ लेव्या दोय; कारण के दा अति विशुद्ध अध्यवसाय दोय ठे अने एकता- खी मागेणाद्ररे ( देव, मनुप्य, तिर्यच, पचेग्रिय, चरण योग सार्गणा, घ्रसकायमा०, जण वेद मा०, चार कपायमा०, सात ङा मा०, पांच सयम मा०, चरणद्तंन मा०, नव्य माण, य- न्व्य मा०, सम्यक्स मा०, सक्तो मा०, यादार्क मा०, अने अनादारक माण्ये ) छेद्या दोय अदां अनव्यादिकने असुद्ध॒ परिणाम नणी शयलुदर वेदया दोय पण उ्यवदरे शुनयोग प्रवृत्तिये करी, जेन शुद्ध च्य कियाद करी नवमा परमेक सुधी पदोचे ते माटे एने शु लेया कदी चवे पदैः मागणाए्‌ अस्प बदु फे ठे, त्यां घथम गति सार्मणाये सवं जी्रथी मसुप्य गतिना जीर थोमा तेथी नरकगतिना जीय स्यात गुणायधिक दोय वेथी ठेवगतिना जीय असर्यात गुणा दोय शने देवततायी श्नतगुणा तिर्थच द्य ( तियंचमा जछचर, थकचर, खेचर

१४५९. योरि, ते्िः वेदद्धि, एकेठि सवं जाणएवा ४०॥ अदी मनुष्य गततिमां गर्भ मनुप्यनी संख्यान ओगणत्ीपत आंक रखीये छीये ७, ९२, २८, १, ६२, ५१) ७२) ६, ३, २३७, ५९, ३; ५७) २९) ५० ३२६, एटा आंकनी संख्याए मर्मन मसुप्य लाणता अने उष पदे तेथी अ- संरुयाता समूच्छिम होय, समूच्छिम यचि असंख्याता तथापिं ते अघ्रुवे जे भणी तें आयु अतयुहरचयुं होय तथा देखाय नहीं अने तेने उपजवानो िरह- काठ जघन्यथी एक समय तथा उत्कृष्टी रोवीस सुहृत ठे, तेथी कोडवारे होय अने कोडवारे पण होय, अने गर्भजने षिरहते जषशेय. ते ता सदेब होय अने ते पण वणी संख्याता होय असंख्याता होय. ते संख्यताना असंख्य भेद छे तें अकष प्ररूपण करे छे, कोई संख्याने देनी ते संख्याए गुणीए ते रेन्ये वर्मं फदीए्‌. लां एकनो चमं होय अने वेनो वर्मं २५८२४ थाय प्रथम वर्ग, अने चारनो वगं ४२८४ -२६ वीजो वं. सोरनो दग १६८१६-२५६ भीनो वर्ग, २५६ वं २५६०८ ५६-६५५३६ चोथो वर्ग, अने ६५५३६ नो व्य ६५५३६ >८ ६५५३६-४२९१५९६७२९६ पंचमो वर्ग) अने तेनो वगं १८४४६७४४०७३७०९५५ ११६१६ छठ वम, तेने पाचमा वर्गं सये शु- णीए सारे पूरक्त ओगणत्रीस आंकनी संख्या थइ एटे सात कोडाकोडी कोडा कोडी, वाणु लाख कोडा कोडी कोडी, अहावीस दइजार कोडा कोडी कोडी, वासर कोडा कोटी कोदी, एकावन लाख कोडा कोडी वेतालीस हनार कोडा कोदी छं कोडा कोडी, तेंताङीप कोडा रोडी, साड्रीस राख कोडी, ओगणसाठ हजार कोडी, जणे कोडी, चोपन्‌ कोडी अने उपर ओगणचाटीस खाख, पचास हजार, चरणसेने छनीस यया, अथवा एकने छन्तुवार -गाणा बमणा करीए. तो पण आंक थाय. एम पन्नवणामां कलं ठे एटा जघन्य पदे गर्भ॑ज मनुष्य होय अने जेवारे समूच्छिम दोय ते साये गणीए, तेवारे उक्छृष्ट पदे असंख्याता होय.

पणचञति एद्‌), धोवा तिन्निखदिच्पा अणतगुणाण तस थोव असं खग्ग नूनलानिल् अदि अणंता ४२

पण पंच | ति-ेइ्द्रि ` ` | एरी पेद चड-चौरिद्रि द-प इद्र योवा-थोदी

रर्‌

तिनि-भण रशी चौद योब-थोडा लल-भयक्षाय

तेद ग्व असखग्ी-अप्तस्यात गु-| अनिल -वापुाय अद्िभा-अधिक णा अग्निका | अदिग-अपिक अणतगुणा-अनतेणा | यू-पृथ्यीफाय अण्ता-अनतगुणा तप्ठ~त्रस

इद्रिय मार्गणामध्ये अख वहू द्वार कदे छे, अर्थः-पचे@ि, चरि @ि, तेदडि, वेश्य अने एकि तेमां सोथी योभा प॑चेयि, तेथी चरि, तेधि अने वेष्टयि व्रण राद्ीना जीव एक चीजाथी विदेपाधिक ( चभणा होय द्यां सुधी विदेपाधिक कडेवाय ) जाणवा अने वेदिथथी एप(& खनत गुणा जाणएवा कारणएके निगोदीया जीय ए्े(खमां यावी जाय ठे, द्वे चीज काय मागैणामध्ये सर्वयी योमा चसका- यीया जी, ते करता असरपात गुणा अग्निकायना जीव ठे तेथी पुथ्वीकायिया जीव विदेषाधिक ठे तेथी खपकायना जीवर विरोषाधिक तें वायुकायना जीय विशेषाधिक ठे ते थकी वनस्पतिकायना जीय अनतयुणा जाणएवा मण चयण काय जोग, थोबा अस्तखगुणा अनत रुणा पुरिसा योवा श््थी, संखगुणा अणएत गुणा कीवा ॥४९॥ मण~परनयोगी अप्तखगुणा अस्तरयातगुणा| योरा धोडा

रथण-बुचनयोगी अणतपुणा-अनतशणा | इत्थी-तीवेदी

परिसा -पुरुपयेदी कीवा-~नपुस्वेदी

अर्थ-ट्वे चो योग मागेणा मध्ये मनोयोगी जीन स- मथी थोमा जाएवा (ञे नणएी सङ्गी पचे जीव मनोयोगी दोय ते सर्व योगा ठे), ते यकी वचन्‌ योग भ्रात

१४५९ गुणा जाएवा ( बेट, तेदडि, चोरिि असन्नि पंचं ने सन्नि पंचेिए सो वचन योगी 3 तेथी ससंख्याता ञे). ते करतां काययोगी जीव अनैत गुणा ( कारणएके निगोदादि- कना अनंता जीव पण काययोग ). द्वे पां चम वेद मार्गण मध्ये पुरषषेद्‌] जीव सवंथी थोमा जाणएवा, ते थकी खीवेद जीव स॑स्यात गुणा अधिक जाणवा ते थकी नपुंसक वेदी जीवर अन॑त- यणा जाणएवा. ॥४९॥ कारणक एकेद्वि, विकलेंयि, तथा समूजिम मुभ्य अने तिर्थ॑च तथा नारक) सवै नपुंसक वेदी>े मारे.

माणौ कोह मा्‌, तोन अदि मणनाणिणो थोवा॥ रोहि अक्खा मर सुख,खहिञ् सम अरसंख विनंगा४२

माणी-मानी मणनागिणो-मनःपयवज्ञानी ` सु अ-ष्ुतङ्ञानी कोरि-क्रोधी थोवा-थोडा सम-सरखा माई-मायी ओहि-अवधिज्ञानी असख-असंख्यातरुणा लोमी-खोभी असंखा-असख्यातएणा | विभेगा-विभेगह्गानी अहि भ-अधिक मह्‌-मतिज्गानी

सअर्थः-हवे उष्टौ कषाय सार्मणां मध्ये सवैथी थोमा मा नीजीव जाणवा, तेथी कोधी जीव विद्ेषाधिकठे, तेथी मायी जीव विरषाधिकठे, तेथी लोन जीव विरोषाधिकठे. कारण के ठदमा युणएठाणा सधी) पए लोन होय माटे. इवे सातमी कान माभेणा मध्ये मनःपयव कनी जीव थोमा जाणएवा, तेथी स- वधिङ्घानी असंख्ययुणा, तेथी मतिज्ञान तथा श्रतक्ञानी विशे- पाधिक जाणएवा, मतिक्ञानी तथा श्र॒तज्ञानी एवे मांदोमादे सरखा जाणएवा कारण के बे साथे होयढे, तेथी विनन॑गज्ञानी जीव असंख्यातगुणा जाणवा, ५.४३.

२५२ केवलीणोणंतगुणा, मश्सुख अन्नाणिणंत गुण तल्ला सुडुमा थोवा परिहा, संख अदखाय संखगुएा \\9४॥

केवठीणो देवलङ्गानी जीव| अन्नाणि-अक्षानी सख~सर्यात्णा अणतगुणा-अनतष्णा | ठ्ा-बरोपर अदर्ाय-यथारूयात

षपति (ष्ानी) सुहुमा श्रम सपरायवागी | सखदणा-सख्यातयणा भुभ-थुते (अद्वानी) परिदार-परिदार षिशद्धि छथ -विनगक्तानीथी केवलक्ञानी जीव अनतयुणा जाष- धा (कारण के सिद्धनाजीव पण॒ केवलक्षानी ठे ) ते केवघङ्गा- नीथी मति श्ङ्कानी भुत अज्ञानी अनत गृणा ठे, (कारण के निगोदीश्रा जीव सिद्ध थकी अनत गुणाठे तेमने मति यक्ता अने श्रुते अङ्ञान 2, ते वे मादौमादे सरखा ठे, कारण के जेने मति क्वान तेने श्रुत अक्ञानपण ठे. | इवे आ्राठमी सयममार्गणा मभ्ये सृदम सपराय चारि वाठां जीव सर्वथी थोमा ठे (कारण के ते उक्छएा एक ससय- मां रत पृथक्ल पामीये) (पुथक्छ पटले वेथी नवनी सङ्ञाजा- एव. ) तेथी परिदार विश्यद्ध चाख्रीया सस्यातयुणा दोय (कारण के ते सदस पृथक्छ लाने) तेथी यथास्यात चारिनीया सरयातगुणा जाणवा ( कारण के तेकोटी पृथक्व लाने गष वे समश्य सखा, देस असखगुणऽणंत गए अजया॥ थोव असं दुणंता, दि नयण केवल अचं ॥४॥ एेजा-टेदोपल्यापनीय अप्तखप्णा अप्तरफातद्यणा| दुणता-पे अनतत। सपदृभ-सामायक चारि | अणतदुण~भनतणा ओदी-अपपिदश्रनी भ्रीपा | अजया-अव्रिरति नयण-चदलद्नी संत्रा-तेरयातयुणा = | योवनपोश केवस-फेवलष्ठानी

-देशमिरति अत -अल्यातएणा | भवस्पू-अश्ुदीनी #

१४५४

र्थः-ते थकी ठदोपस्थापनीय चारि्रीया जीव संख्यात शुष्ण जाणवा, (कारण के ते शतकोटी एयक लाने मादे) ते थकी सामायिक चास्विीया संख्यातगुएा जाएवा, ( कारण के ते सदसरकोटी एयक्छव लाने) ते थकी देन्न विरति जीवर अ- संख्यात गुणा जाएवा, ते थकी वटी अविरत जीव अन॑तरु- णा जाएवा, ( कारण के प्रथमना चार गुणे वर्तता जीव सवं अविरति ठे) रीते आठमी संयम मागेणए अद्प वहु त्ष्यर कल्-दवे नवमी दद्येनमागंणमादे वधि दन्ननी जीव स्थी थोमा जाएवा, ते थी चद्खं दनी जीव असंस्यात गणा, तेथी वे अनंता करेवा एटते तेर्थ। केवलददानी अनंतः गणा अने तेथी अचद्दरोनी अनत्तगुणा जाणएवा कारण के ए- केडि्मादि जीवोने अचद्छदशचेन दोयहे. रीते नवम) दद्रान मागेएाये सद्पवहुखष्टार कलय. ४५

पत्ताए पृत्िं तेसा, थोवा हैऽसंख्ण॑त दो अहिद्ा परनवि खर भोवऽणंता, सास्ण थोवोवसमरसंखा॥४६े

पएच्छाणुपुविव-पशातुपूव्वि | अणेत-अर्नतगुणा -. | योत्र-योडा

(देच्छेथी पेदे आबद) | दो-ये स्थानके अणेता-अनेतगुणा टेसा-लेदया अहि-विशेपाधिक | सासण-सास्वादनी थोव्रा-योडा अभव-अभव्य मार्मेणाये | उवसम-जोपश्नमिक ` दो-मे स्थानके , | इअर-भव्य पागंणाये | संखा-सेर्यत्एणा

भसेख-अतंख्यातयुणा

अथः-द्रामी लेदया मार्गणाये पश्चाचुपूर्विं एटटे लेदयाथी मांगने इृष्लेर्या लगे अदपवद्भस लेवुं ते बतावे >. शुहधतेदयावाक्ा जीव स्वय चोमा ठे कारण के शुङ्लेदयाः

१४५५ वाठा जीन प्तक देवललोकथी मामी अनुत्तर विमानवासी देवलोक सुधीना देवता तथा सकर्मभूमिना मयुप्य अने तिर्यच तथा कोष्एक सख्याता आयुयवाला सयुष्य तथा तिच दोय 2. माद तेथी पद्म तेदयावाा ओव असंख्यात रणा दीय ठे कारण के सनत्कुमार, माड, बहमदेवलोकना देवतायतने पद्म लेदया दोय ठे छने ते लोकातिक देवोथी अस्तस्यातयुणा दोय ठे तेथी तेजो तेव्यावाका जीव असस्यातयुणा जाणवा कारण के सोधर्म, श्ररान ठेवलोकमे तेजो लेग्या दोय ठे अने ते तेमनाथी असंस्यातगरणा होय ठे माटे वे स्थानके असस्यात यणा सेवा.कोश्क वेकाणे वे रा्ीना जीव संस्यातदुणा भ- धिक ्षसेला ठे > तेथी कापोत लेग्याना जीव अनतदुणए जा- एवा ( कारण के निमोदौश्या जीवने पए कापोत लेदया दोष ते ) ते थी पे स्थानके विरोपाधिक कटेवा एटते कापोत तेःया यकौ नीचेक्ज्याना जीत विरेपापिक जाणवा कारण के नारकी भ्रष्ठ नी्चलेठयाना जीव मादे मेठवीए टले विशे. पाधिक थाय, ) ते थकी ङप्णतेग्यावाला जीव विरोषाधिक जाणवा केमके धणा जीने कृप्णलेदरया ठे प्रमाणे लेर्या मागंणये यदप वडुखदार क्यु )

द्वे यगीयारमी व्य मार्मणा म्ये घन्नव्य जीवो चोमा दोय ठे ने तेी जय्य जीवो यनतयुणा ठे (कारण के अनत काठे पण॒ अत आत्रे एटल्ला नव्य जीवो ठे, के सुक्ति मार्ग सदा बदेठेतो पण कोष्वारे मव्य जीप ची शून्य सोक थमे न्द )

२४५६ द्वे वारमी सस्यकस मेणा मध्ये सास्वादनी जीव स्वथ थोसा जाएवा (कारण के युणएगणे उपदाम सम्यक्‌ स्वथी पमतां कोष्टक जीव दोय मारे, ) ते थकी श्चौपदशमिक सम्यक्टषटि जीव संख्यातयुए जाणएवा ४६ भीसा संखा वेखग, असंखगणए खश मिच्छ इणंता। सन्निखर धोवशंता, अणहार थोवे अर असंख।॥४१॥

मीसा-मिश्रषटि दु-वे अणंता-अनंतयुणा संखा-संख्यातगुणा अणंता-अनंतयुणा - | अण्टार-भणहरी वेअग-क्षायोपश्मिक सन्नि-सनि इअर-आदारी खद्भ-क्षायक सम्यक्छ | इअर-असननि असंला-अपख्यातदणा

मिच्छ~मिथ्यादषट थोव-योडा '

र्थः-ते ्ओपामिक सम्यक एेधी मिश्ररषटि जीव संख्यात यणा जाणवा ( केमके सम्यकूत्र थकी पण जीव मिश्रे अवि ने मिभ्यारष्टि जीव पण मिश्रे आवे मादे.) ते मिभ्रदषटि णक) क्ायापरामिक सम्यक्टषटि जीव अरससख्यातयणा जे भरणी तेनो स्थितिकाल असख्यातगुणो ठे केमके उर्छृष्ट गसव सागरोपम फणेरा वेदक सम्यक्स्वे जीव रदे ठे ते अपेक्षाये कष्या ) ते थक] एक कायक सम्यक्‌खी तथा वीजा मिभ्याद्ट वे अनुक्रमे एक वीजाथी अनंतयुणा कदेवा ( एटले क्षायो- परमिकथी कायिक सम्यकूटष्टि जीव अनंतशुणा ठे. कारण के सिद्धना जीव अनंता ठे तेने सम्यक्त्व ठ, ) ते थकी मिथ्याली जीव अ्नंतुएा 3. ( कारण के निगोदीा जीव (सेद्धथी नं तथुणा ठे ते से मिथ्यास्वी ठे. ) दवे सन्निससन्नि भागेणा मध्यं सङा जीव धोगाठे ते धक ससंज्ञी्ा जीव श्नंत

१५५ यण इवे आद्ारक मागैणाये अणादार जीव शोमा ठे, ( कारण के विग्र गतिये वर्त॑ता रए समय लगे जीव अखणा- हारी टोय तथा जिद्धना जीव अणाहारी दोय ठे ) ते यकी आदार जीव असख्यातयुएा जाणवा, (जे नणी जो पण अन॑ता जीव ठे तो पण आयुःस्थिति असख्यात समयनी होय स्यां पकेकं समयोतपन्न जीव अनता दोय, तथापि सस्य सप्यो- खन्न असख्यातयुणा कट्या जो पण लिद्धना जीव श्ननता अणाद्ार ठे तों पण ॒निगोदी्माना अनता आगत सिद्धनु नतु कोई लेखामां नथी तेथी असतस्यातयुणा दोय ) ॥४७॥ द्वे चौद्‌ स्थानके जीच स्थानादिक दश बो फदे ठे जिखठाणए मिच्छे, सग सासणि पए अप सन्निगं सम्भे सन्नी विह, सेसेसु सन्नि पज्ञत्तो ४०५ सव्बनिभटाण-सवे जी | पण~पाच सतिदुविदो-वे मेद्‌ सन्निना व्यान | अपल-अपयापा सेसेष्ठ-पाफीनाने विपे

मिच्छे-मिव्वात्वएणडाणे | सननिदटुग-सतिदधिक सत्निपलततो-सनिपर्ाप्त सग~-सात सम्मे-(अविरति) सम्यङ्‌ साप्तगि-पाखादन दि एणगणे

सर्थ.-रया प्रथम मिन्याख गुणडठे एकैदियादिक ष्ौदे जीवनेद सर्वं पामीए (केमफे सर्वं जीवने मिव्यात्वीपएठ ऋ- वर्य होय. ) यने वीजे सास्वादन गुणठाणे, वाद्रएकैणि, बे- षयि, तेय, चेरेखि, अने खसन्चि पचे{खिय पाच करण- पर्यासत ने सन्नि पर्व पयास्तो तथा अपर्याप्ो वे मेद्‌ सन्निश्याना एम सात जीव मेद दय (एटते एकं(छयादिक मध्ये सम्यक्त वमतो जीय अवतर, तेथी अपर्या्ावस्थाये सासवा.

२४५

दन गुणठाणुं होथ अखने सन्नि परयातान य॑यिनेद्थी पतां सा- स्वादन होय. ) तथा चोधे अविरति सम्यकू गुणएठणे सः न्नि्ो पयते तथा अपथाक्षो वे सेद दाय (केमके सभ्य- ` क्सवसदित आवीने अवतरे ते संज्ञी करण प्रयासो दोय) पूर्वोक्त चरण गुणएठाणांथी रोष र्यां जे खगिख्ार गुणठाणां तेने विषे सन्नि पर्या्तानो एकज मेव दाय ४०

- ह्वे चौद्‌ शुणटाणे योग कदे छे,

मिच्छ.डगि अज जोगा, हार उगणा आपूत्र पणगेड मणवय उरल विखघि, मीस सविवि ऽगदेसे।४९॥

मिच्छदुगि-पिथ्यासख अने मिभ्रयोग | उर -ओदारिकिना सासखान उणा-ओडा सवेऽग्वि-यैक्रिय सरिति अजई-अविरति सम्यक्द्टं अपूज्वपणगेउ-अपु्वीदिक करीये जोग-योग पांच गुणगणां सी-मिभ्र गुणराणे सविरन्विदुग-वेक्रियद्विक आहारकदुग-आहारक | मण~पनना | सिति योग अने आहारक | वय-~वचनना देसे-देशरिरति शणटणे

अथैः-मेथ्यास अने सास्वादन तथा अविरति सम्यक्‌ हृष्ट अण युणएठाणे आदारक ने आहारक मिश्र बे याग होय वाकीना तेर योग दोय. ( वीहां कर्मण अने खोदा मिश्र चे योग अपयांतावस्थाये मसुष्य तथा तिर्यचने दोय

क्रयमिश्च एक थोग्‌ देवता नारकीने अपयाप्तावस्थायं दोय. शेष मनना चार, वचनना चार, ओदारिक अने वैक्रिय दश योग पयौप्तावस्थाये होय अने चारित्र चरण युणगणे नथी. ते नणी आदारकष्िक होय ) तथा अपु्वादिक पांच युणगणां एटल्ते खपूवंकरणः, वादरसंपराय, सूदमसंपराय, उप

२५९

शात मोद, थने दीए मोह पाचं युणठाणे मनना चार योगं, तथा वचनना चार योगं अने दारिकः नव योग पामीए (ए ्पूर्ाठिक पांच खणठणे यति वद्ध चासि जणी वै- क्रिय तथा आदारक इारीर करे ते तेना चार योग एने दोय श्यरहीच्ा अपयीस्तो दोय साटे ओदारिकमिश्न अने कामण वे योग पण दोय. रोष नवयोग दोय ) अने चीजे मिभ युणडणे ते परवोक्त नव योगने वेक्रिय स{इत करीये ते वारे वदा योग दोय ( कारण के देवता तथा नारकीने पण मिश्र णग होय, तेथी तेने वैक्रिययोग पण दोय ) तथा ठेशवि- रति पाचमे युणठणे पूर्वोक्त नवयोगने वै क्रिय {छक सदित करीए तेवारे अगियार योग दोय ( त्या एक वैक्रिय छने वीजो वैक्रिय मिश्रषए बे योग लब्धि धत्य होय ते माटे मनोयोग चार, वचनयोग चार खौदारिकियोग एक अने वैक्रिय योग वे एम अरगियास्योग दोय ) ४८

सादार छग पमत्ते, ते विखवादार मीसवीएु इरे कम्मुरल् उगताष्टम, पएवयणए्‌ सजोनि अजोमि॥५०।

साहारहुमा-आहारफद्िक | विशम मणययण-मनयोग अने सदिति | इभरे-अपपत्त गुणगणे बचनयोगं पपते-परपत्त शुणणे | पम्डुरछ-~फारमण तथा | सनोगि-सयोीशुणगणे चै~ते ओदासििमित्र | न~न दोय पिउव्वाकशषसमीत-वे्रिय | दुगि अनोगी अयनी गुणडाणे

तथा आहदारफपिभर | अतादम-परेखा अनेदठेडा अर्थं ~प पूर्वोक्त अगिखारयोगने, यादारक ने थादा- रकम्िश्र वे योगसददेत करीये, तेनारे तेर योगं षमत सय-

१६० तनामे उठे यणे दोय, ( केमके अदी्ां आदारकना वे अने वैक्रियना वे एवं चार योग लब्धि पत्यये हाय त्यां लन्धि प्रयुजतां मन्त दोय ते माटे ) ते तेरयोग मांडेथी एक दा रकममिश्र खने बीजो वेक्रिय मिश्र ( एवे योगखप्रमत्त युणएठाणे दोय. जे न्नणीषएवे योग वैक्रिय तथा आहारक ्ारन्नतां होय, तिहां तो ल्धि प्रयुजे तेवारे पमत्ते होय पण अप्रमत्त लधन प्रयज नथी वेथी भ्रमन्ते दोय पण वे दारीरठतां अप्रमत्तपए आवे ते अपेकाये वेकरिय अने आहारक वे योग क्या. अने एना मिश्च दोय. मारे) वे विना प्रमत्तथी पत्तर जे अप्रमत्त युएठाणएं तेने विषे अगिश्मार योग हो. एक कार्मणं अने बीजे ओदारिक मिश्र प्टिक तथा पेदेला अने वेला वे मनयाग ( सत्य मनायोग अने असव्यासषा मनो- योग ) तथा एज बे वचनयोग एम सात योग सयोगी नामा तेरमे यणएठाणे दोय ( तीहां मनोयोग अनुत्तर विमानना देवता जेवारे संवद्‌ प्रश्न प्रठ तेवारे उत्तर आपवा निमित्ते तेजस्पे नोडग्य परिणमते स्यां मनोयोगनुँं कार्यं पये अने वचनयोग ध्मदेराना काथं काके होय अने खौदारिकि मिश्र तथा कामंण बे याग केव समुटृघातमंहे दोय अने खदारिकथोग मृ देय अयोगी युणएठाणे चपलता टी ते मादे एके योगन होय >) ॥५०॥ , इवे चौद गुणडाणे वार उपयोग विषरे ॐ, ति नाण दुर्द॑साश््म, इगे अजय देस्िनाण द॑सतिगं॥ ते मीति मीत समणा, जया केवल दु खत दुभे॥५१॥

१६१

विभनाण-वणजङ्ञानं | देति-देशपिरति समणा-मन पथैव जान दुदस~चक्षु अचक्षु थे | नाणदपतिग-ज्ञानदर्धन सदिति दशन त्रिर्‌ | जयाई-प्मत्तादि आमदुगे-आद्ि वे शण | ते-ते केवलदु-केण्क्ञान तथा उणे | मीति-मित्र दैवल दशैन अजेय-अविरति भीस-मिभ्र गुणगण अतदुगे-2ेषलौवे एणगणे

अर्थ -त्रण अङ्तान अने चश्च खचछ्छ वे दर्शन पाच उपयोग पेदेला वे ( मिध्यात अने सास्वादन ) युणडणे दोय. ने चोथे अविरति युणएठाणे तथा पाचमा देगविरति एवे ( मति, अने अवप्रि ) तरण कान तथा ( चङ्‌, अचद्ु' अने अवधि ) त्रण दर्चन एम उपयोग टोय यने तेज व्रण ज्ञान ने चरण अक्तानन साये (मिश्र धयेल्ा पएवात्रण क्तान, तधा तेमज त्रण दर एव जपयोग मिश्र गुएठणि लाने ते पूर्वोक्त उपयोगने मन पथेवक्घान सदत करीये एटले चार कान छने चण दर्न एम सात उपयोग प्रमत्तादिक एटते प्रमत्त शुणठाणाथी मामीने वारमा ङीएमोद्‌ यणजणा सुधीना सात यणठाये वत्तैता जीप सर्वं प्रिरति दोय तेथी एने मन,पवङ्ञानं पण लाने मटे सात उपयोग दोय अने सयोगी तथा अयोगी वे ठेघ्ला युणणे केवल्टङ्ञान अने केवलदरशन वे उपयोगं दोय. रेष दरा उपयोगी उद्मस्थिक ठे ते पद्‌ दोय ५१॥ हषे पूर सम्पतपे वेरा एक योज अदीभा फर्मग्रयेनयी पान्याति देखदि ठे,

सासणए नवे नाण, विख गादारगे उर निस्त ` नैभिदिसु सास्ाणो, नेदादि गयं सुख मयंपि ५२॥ २१

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२६२ हवे चैदं गुणटणे रेश्या करे छे,

ठसु सघा ते तिग, एमि उसु सुका अजोमि यदघ्वेसाधं वधस्स मिल अविर्‌ कसाय जोग त्ति चञ हेड ।५३।

छष्ु-उ गणडाणाने विपे < अवरिरह-अविरतिषणु ,. स्पार अजोपि-भयोगि कदाय-~फपाय + पैउनिग-तेनो, पदम अने | अदेप्ता~-खछेद्या होय | लोप-~पोग शुष तेण [व्थिषरस-पापवाना तिचउदेऽ-इतिचार वेध षमिप (भप) ने पिपे। मिच्छ-परिपाल {9 3.1

अ्थैः-पेेलां युएडाणनि विपे सै (©) लेर्याओो रोय, छने तेजो पच्च तथा युपल रए वेद्या एक प्रमत्त सातमे यणठाते दोय, अने आठमायी तेरमा सुधीनां युणएठाणे एक श्युग्ज लेज्याज होय, तया अयोगे युणठणे योगना अननावे छेश्या दोय कर्म चाधवाना मूल चार कारणत (२) मिथ्या (९) अविरति (३) कपाथ ४) योग घ्रण, ऽति चार मूल बध देव कद्या ५२॥ अदं प्रमाद, विकथा वगेरेनो समाविश चार मध्ये यायठे ध्वे मूढ चार पय देहुना उत्तर मेद्‌ सत्तावन फटे छे अनिगदिञख मणन्िगदिखा, जिनिवेसिख सस्य मणानोगा पण॒ मित्त वार अविर्‌, मण करणाऽनि- अमु जीखवहो ५४

अभमिगहिभ-अभिग्रहिति | मणाभोगा-अनामोगण | फरण-इद्रिपो पणभिगरहिम यनसिग्रहित | पणमिच्छ पाच पिथ्याच्च| अनिभषठु-निबक्तपरि नं अभिनिपेसिय-भमिनिषेश्‌। यारयविरई-प)र अ्रिरति। उमिशवहो-ठ फायभी ससदुभ-सगपिक | मण-मननी अपरिरति यनौद्ध

१६९

शर्थः-न्निभरितः अननियदित, श्रजिनिकेच, सारायिक शने अनान्नोग पांच प्रकारे मिध्यात्व, दषे वार श्यविरति कट्टेठे ' एक मनन अविरति ( मनने विप दिसा(दिकना संकष्ष्प करे ), तथा पांच इदियोने पातपोताना विपयथी निवत्ताववानों परिणाम करे ते पांच प्रकारे प्॑चियनी सविरत्ति, तथाजे ठकाय जीवनो दसा विरमवानो परिणाम नदीं ते ठकायनी श्यव्रिरति, वार विरति थर. खरपावादादिक विरमण ते पण चार प्रक्रारनी अत्रिरति मध्ये च्ैत्नवे. कारण केज्यां दिया विषय) विरम्पा त्यां मुषावादादिकथकी अवदय त्रेरम्या जाएवा. ५४ अमिग्रहित-परीक्षा कया तिना पोनाना धर्मनो कदाग्रह मूके नही. अनभिग्रदित-तव धर्मने सरता नाणे पण कोऽने विशेष जाणे नदी. अमिनिवेश-पोतानो मत यापवा मार सूत्र यर्थ व्रिपरि करे

सांकयिक-जिन वचनमां शंका धरतो रहे, अने गुर गीताग्रनो साप्री मद्या छतां पूरे नहीं

अनामोग-कोईपण दथनने भद युद जाणे नहीं जेप मू पापेलो मतरुष्य कडबो भटे रसन लणे तेनी पेटे, एङद्रिय जीरो अनामोगिकि मि ध्यालवेत छे

नव. सोत कप्ताया पन, रि जोग इखञत्तरा उसगवस्षा

र्ग चञ पण ति गणेसु, ति इग पचः बंधो ४५

नवसोरकसाया-नव तथा चउतिदुर्ग-चार) तण; "` | सोर मठी पचीप्त कषाय पाच," ्रण एक,

एनरिजोग-पंदर योग | गुणेद्ु-गुणेगणा साये | पचबोवंधो-प्रत्ययि ओज इर्भततरा-प उत्तरभेद्‌ अनुक्मे मेव सेय

(4 ४५ भ, सु 3

छर्थः-नव नोकपाय तथा सोढ अनतानुधैधीयादिक मढी पर्ची कषाय, मनना चार, चनना चार अने कायाना सात

पढठर योग, पमाणे पांच िध्याख, वार अविरति, पचचीस्त

कषाय अने पदर याग सत्तावन उत्तर मेद थया सत्ता-

वनने आश्रव पण कदीए द्वे चौद रुणडणे मूल वध दैवं कदेठे. एक, चार, पांच यन त्रण एम तेर युणठणे अनुक्रमे चार घरण वे अने एक प्रस्यधि्रोज वध दोय ५५

पिष्याल एणाणे-परिम्यात्व, अत्रिरति, कपाय अने योगप चार भूक चथ देतु 2,

साखादन, इमि) छअग्रिरति अने देशपिरति-भा चार गुणडाणे अविरति, फपाय अने योग एए प्रिपलपिभो वध दोय अदी पिभ्याल्र ल्यु मारे पिथ्यात्व वध देतु स्लेय

प्रमत्त, अमत्त, अूरवकरण, यादर सपराय अने २० सूम सप्राय-आ पाच शुणठणि एर फपाय अने वीजो योग द्विपस्पिभो वध नाणवो कारण फे अट अपिरतिपणु टद्यु 2

११ उपशातमोह, १२ प्ीणपोद्‌ अने १३ सयोगी-आ तण. एुणगणे एक योग भस्पयिभोव होय फारण के अरहीं कपाय रदो छे,

अयोगी शुणराणे चार मदेखो पए पण देहु नथी मारे रुने अभावे वध पण दोय वे एफसोने वीव उत्रकर् रति आश्रोने भूर वध हेतु विचारे खे मिच्च (मत्त अविर्‌, पच्खा साय सोल पणतीसा॥

जोगविणएु ति पचद्टखा, दारग निए वज्ञ ससा ॥५६॥

च-चार साय-श्चाता वेदनीय पचर्भा-पर्ययिषफ पि्छ-पिप्याल्र गुणगणे| सोख-सोख आदारग-आदारकद्िक प्िच्छ-परिध्पात भरलययिरी, पणतोप्ता-पतरीतत जिण-जिम नाप फर्म

सवि र-भविरतिं जोव्रिु-योगत्रिना यज-पर्जानि भषषभा-परययिक्गी ति-घ्रण (वधदेदु) सेसाउ-रेप

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0 7 [4 वधाय क, शथः-दाताषेदनीय चारे वध हेतुये कर वंधाय ( एटि चार देव महिना गमे ते एक देतुय करो क्ातविदनीव चंघाय ) सोढ ग्रति भिध्याल्ने उदय व॑धाय. तथा पां्रीस्त प्रकृति (मेध्या तथा अभरिरतिना (ए वेमांथी ममे ते एकना ) उदये वधाय; तथा आहारकषिक अने जनना वजीने दीप पंसठ [2 5 (६ प्रकृति याग्रिना चण वंध हेलु ( मिन्याल, अविरति नेकः षाय चण ) परत्यपीरी वंधाप. ५६

अर्हां वोजा पदना जण पदं समै परथमनां जण पद्‌ जोडीपएु एट्टे एकर शाता वेदनीय चार वंवदैतुये कगे ववौय, दयां प्रिथ्रा्य युणयणे पिय्पाल पत्ययिकी वंपाय), ( कम वेदरोयनी धति पिध्याद्थी पांडो सयोगो गुणद्णा लगे वंधापछे. ते माटे मिध्यातवे मध्या धलयिकी, सास्वादन, मिश्र, अवि- रति अने देशषविर्ति चार रणखाणां सो अविरति भ्रत्ययिरी अने प्रमत्तादिं पांच युगडाणे कपाय परत्ययिङ्ती भने उपश्चान भोद्यरिश् चरण शुणटाणे योगर प्रलय णि वधाय एम ज्ञातवेदनीयना वंध माहे चार देतु मेटो एकदे होय त्यां खगे पण वधाय ते पारे चतुःप्यविक्रो वंगा. ) अने \ नरकमिफ, एद्द्रिव- दिक चार्‌ जाति, थाव्ररनाय, मृदपनाय) अवर्याह्ठनाप अने साधारण नाम स्थावर चतुप्फ दुडसतस्थानः यतपनाम, नपुसकवेद, छेषं संघ्रयण, अने मिथ्या मोदनोय सोर प्रकृति मिथ्यास्रने उदये वधाय पाटे ) सो परह्ति मिथ्या पलयिङ़ी कटेवाय, तथा ( अनेतासुधीया चार, मध्य संस्थान चार्‌, मध्यसंय- यण चार, इखगनि, दामपैग्यन्रि फ) ति चतरिक्, मनुप्यधिक, ओदारिकष्टिक, सरीषेद नीचेगोत्र, थोणद्धोजीर, उग्रोननापक्र्म, वचक्रपभनाराच संघयण्‌, अने अप्रल्या- ख्यानी चार कषाय पतत्री प्रकृति मिभ्यासर युणटाणे पिथ्याख भत्ययिङी वधाय अने पिथ्याखथी जगल ुणठाणे अविरति परत्ययिक्ी वधाय एम पिथ्पा र्व तथा अशिरति एवे माहेलो एक देतु षेय तो पण वधाय परह बिना जा देुये वधाय ते मारे पात्री भक्ति मिथ्यास्व तथा अव्रिरति भलययि फी वधाय. तथा आहाखद्विक अने जिन नापकर्मं यजने रोष ( ज्ञानावरणीयनी पांच) दशनावरणीयनी छ, अज्ञाना तेदनोयनी एक, मोदनीथनी पदर, नामनी

१६१

मवी, उचर्गोत्रनी एक, अने अतरायनी पाच पास प्रति तथा देशशिरति यदेथी जे सदस प्र्तिनो गथ छे ते महिथी श्रादादेदनीय तथा जिननाम षे अदत दिना शेष परस प्रहृत जेवारे प्रिन्याच गुणणे वधाय तेवारे मिथ्या भ्रत्ययिषी कटेवाय अनने जेवारे सास्वादनादिफ चार्‌ गुणटाणारगे बधाय तेवारे अदिति प्रप्ययिकी नयाय रीते) पास्ठ प्रति एक योग वधदेतु व्रिना एफ मिध्याल वीजो अविरति अने जो कषाय तरण वध दैत भव्ययिरी वधाय आहारयश्यीर अने आद्मरक्ञ्गेापागपएु वे पटति निरवद्य योगरुप सरागं सयम श्रत्यये करी वधाय तथा निन राम सर्मनो अरिदरतानिफ मक्तिरूप सम्यपत प्तेष्ये करी वधाय, परतु प्रशस्त रामे फरी यवाय तथी पण परमाय फपाय भ्यपिरी हेय एम सर परप्ययिकी सृति एरसेनेषीस वध योग्य ठे) तेना मूख भैष देतु विदायी, जीय वरिजयनोपएता जण प्रति चार्‌ देतु मादैला पोः दैत वधाय, माज एक स्म्यवष्व शृण्ज यरी वधाय एम टर «सम्मत्त रुण निम { खयर्‌ सजमेण यादार इति वचनात्‌

हवे सौद गुणगण उत्तर वधदेतु षदे ठे, पणपन्न पन्च तख ठ{, अचत्त गुण चत्त चञ इगवीसा सैदसदस नवनव, त्त हेखणो नर अजोगनि ॥७॥

पणपत्न-पचाय्न छचउदुगवीता-उवीत) | सत्त-सात परस॒-पचाप्त योसत अने चाबोप्त

हेरणोनउ-देतु नथी तिय~तेतारीष सोलप-सोत छदिभचत्त-2ेताटीष | ठम-दश गणचत्त-ओगणचारीपत | नव-नव गण

श्यं -मिन्याख युणएवाणे पचावन सास्वादने पचास मिश्रे तेत्तालीप्त, अबिरतिये ठतालं।स, देशत्ररति युणणे गण. चालीस, अने प्रमत्त, तथा खधूवैकरण रण गुणठ(णे छु. कमे ठस, चोवीप्त अने वावीस, अनितर ्ति वारे सोल, सुषम सपराये दद, उपदवा सोदे नय, दीणए मोदं नव अने सयोग

१९० सात, व॑ध हेतु ज!एवा. अयोग गुएठाणे व॑ध हेतु नथी.५७॥ पणपत्च मिचिहारग, डगुण सासाणि पत्न मिल वणा वे (८ व्‌ मष इग कम्म अणविणु, तिचत्तम।से खद ठचत्ता ५०५ पणप्च-पंचावन प्न-पचास अण-अनंतातर बंधी पिच््-मिथ्याच एणटागे | मिच्छविणा-पिथ्याल | विणु-वरिना चं सेय | तिचत्त-तेतारीप्त हागगदुगूण-जादारक से-मिथ मीसे-पिध्र युणटणे कि रीन | मीसदुम-मिध्द्िक अहवे

साप्तागि-साख्वादने दम्म-कार्मणयोग छचत्ता-ठेतालीस

सर्थः-(मिथ्याख युएठाणे आधे सं जीवनी पेक्य आहारकष्धिके दिन पंचान कर्मवंधना डतु होय (केमके तेने विष्ट चारित्र नथी. तेथी आहारक लब्धि होय, मादे खा- हारक दारीर अने आदहारकमिश्र एवे योगन दोय रेष मि ध्यात पांच अविरति वार सने कषाय पच्चीसत तथा योग तेर एम पंचावन कमवेघना देत पामीये ) अने बीजे सास्ादन युएठाणे पांच मिध्याख होय माटे पचास बंध देतु धे दाय, अने मश्द्धिक ( दारक मिश्र अने वेक्रिय मिश्र) तथा चरीजो कामं, चरण योग॒ अने अनंतासु्ंधिया चार कषाय सात कर्मवंध विना रेष तेंतादीत वंध देतु ओधे मिश्र युणएठाणं होय. इवे चोय युणएठाणे ठेतालीस वंध दहेतु दोय ( ते खागल्ली मायामा कदरे >) ५५

हौं मिथ्या युणडाणे विशेषादेशे एक जीवने एक समये जयन्यपदे दश वेधदतु दोय अने उच्छा अहार्‌ कर्मवधना देतु दोष अने सास्व(दन गुण- ढाणे जघन्यपदे दश्च अने उरछृष्टा सत्तर वंघहेतु पामीये अने मित्र गुणगणे जघन्यपदे नव अने उल्ृष्ठा सोल हेतु पामीये तेनो पिस्तार ( भगा सिति) भीमसी मणेक्बाजा करण रताकर भाग चोय(मांधी जोई ठे,

१६४ संङमीस कम्म अजए्,अविरह्‌ कम्ुरैलं सीप्त वी कप्ताए मुतु गुण चत्त देसे, उवीपत सादर पमत्ते ५४

स-सितं फम्म~-कापणयोग गुणचत्त-ओगणचाीप दुमीस-ये मिघ्र उरटपीस-अोदारिकिमिध | देसे-देशत्रिरति गणगणे फप्म-फार्मेणयोग वीकषाए-वीजा चार | स्वीस~च्पीन अजए-अपिरति शर कषाय सादारदु-आदारकदटिषः अपिरई-अतरिरति महु-गटीए पमरत्ते-परमत्त शणगणे

सर्थ.-( (मश्च युएवणे तेतालीत देतु कट्या तेने ) एक पेक्रियमिश्न, वीजोोदारिकं मिश्र अने चीजो कर्मण प्रण योग सहित करीषे तेवारे अविरति यणञणे ठेतालीक्त वध देत श्मोपे होय, कारण के अपयी्ावस्थाये एण गुणगण दोय ) (अने विरोषदेरो तो जघन्यथी मिश्वनी परे नव वध देत्‌, खने उच्छा सोल 'टोय अने वध स्थानक मिश्ननी परे शठ दोय ) दवे देगविरति युणएठणे ठेतालीसमायी, एक ध्रसकायनी अविरति, कर्मण तथा ओढारिफ मिश्रयोग, तथा वीजा अघ्रस्यारयानावरण चार कषाय, सात टाीए तेवारे श्ोगणचालीस वंध देत दोय तथा प्रमत्त युणठणि ठवीसं वध देव दोय ते एवी रीते के यओगणवचालीसने आहारक तथा खा हारक मिश्र सदित करता एकताली थया ने तेमाथी पंदर खग करवा ते आग गाधाए कदेवारे ५९

दिशेषादेशे अ्रिरति शुणढाणि जध-यथी पिध्रनी पेरे नद बयदेहु होय अमै प्ट सोल द्यप द्यां वध स्यान मिश्रनीपेरे आरे होय, अने देशत्रिरनि धरण. ठाणे दिकनेपादेश जधन्यपदे, पांचकाप मध्ये एक कायने वध शद्वियनी भिरिति पर्ये पूरेद्रिपनी अदिति, एकं युगठ, पएफयेदः चार्‌ फप।य पथ्ये एक कपापनां मे अने अगिभार योग मध्ये एफ योग एम्‌ भाद षपहैतु रामे, द्द्‌

१३५९. अविर दरगार तिकसा, यवज्ो अपमति मसं छग रद्य चठवीस पुव पुण, ढवीसर खविडधि आदारा ॥६०॥

अविरई-अविरति अपमत्ति-अप्रमत्त गु | पुण~वटी

इगार-अगियार मीसदुग-मिश्द्धिक दुबीसत-व्रीष

तिकसाय-त्रीजा चार | रहिज-रहित अदिडन्वि आहारा-वैक्रिय कषाय चउवीस-चोषीष अने आहारक एवे

वल्ल-वजवां अपुव्वे-अपू योग हेय,

अ्थः-( पांचदखियः, उष्टं मन तथा पांच थावर ए) अरगीश्ार अविरति, तथा च्रीजा परत्याख्यानावरणीय चार कषाय, पंदर वंधहेतु वजवा तेवारे उस वंधहेतु भ्रमन्त यणे होय, अप्रमत्त यणठाले आ्दारक मिश्र अने वैकरिय- मिभंषएवे योग दोय. (कारण के आदारक तथा वैकरिय दारीर करवा .मांगतां तेनी पर्याक्षिये अपयौक्षने योग होय, त्यतो लब्ि प्रयुजवा जणी प्रमत्त होय. ) तेथ। ( कषाय तेर अने योग अगिखार एम > चोवीस बंधहेतव दोय, तथा आमा खपूर्वकरण गुणएठाणे वेय अने आदारक ये योग दोय त्यारे ( सेज्वलन चार कषाय, वेद चण, हास्यादिक ठ, तथा योग नव सत) ) बावीत्त व॑ध हेतु होय, ॥६०४

' . प्रमत्त शुणणे पिकेषादेशे ्णवेद मध्ये एक वेद्‌, संज्वटनना चार कषाय पध्ये पेहेलो अथदा वीजो एक कषाय, हास्यादिक युग मध्ये एक युग, तेर योग मध्ये. एक योग पांच देतु जधन्यपदे एक जीवने एक समये रामे अने “उत्कृष्टा सात होय, तयां सीवेदे आहारक अने आहारक मिश्र वे योग नहोय,

` अप्रमत्त गुणडाणे विकेषादेशे एफ जीवने एक समये जधन्यपदे संज्वलनो एक -

फपाय, एक वेद्‌; एक युगल, अने अगिआर योग मध्ये एक योग एम रपांच वर्धं हेतु हप,

२.७२ अठ ह्‌स सोल वायरिुदुमे दस वेख संजलणं तिविणा खीणु वसंति खल्लोना, सजोगि पुवत्त सग जोगा ॥६ २१

भ्रछठहास-हास्यारिक वेअ-वेद्‌ चरण अरोमा-रोपन दोष पोल-सोनः ~ सजठन-सञ्वख्न चरण सजोगि-सयोगी धरणटाणें धायरि-परादर सपरा | विणा-विना ज्खुच-पूर्वोकत छुमे-षं सपराये | खीणुवरसति-स्ीग मोह | सगजोगा-तातयोग दस-दश तथा उपन्ात मेदे

शर्थ'-नवमा वादर सपराये हास्यादिक नोकषाय होध तेवारे वावीसमायी काठता, सात कषाय अने नवयोग एव सोलन वधदेतु दोय, तथा सृह्टमसपराय नवमा युणठाणे वेद श्रण तथा संज्वलन कोध, मान अने मायाएवठविना ददा (एक लो्न छने नव योग ) वधदेतु दोय. ने शीए- मोद , तथा चपद्रातमोदे लोजविना नव योग वधदेतु दोय तथा तेरमा सयोगी खृणठणे पूते क्या ते प्रमाणे वे मनना वे बचनना अन घरण कायाना एव सात चधरेतु सा- मान्ये दोय, ६१

मयमा शुणणे विशेपदेरे जय-यपदे एक जीने, सज्वलनो पफ फषाय तथा एक योग वे पध देतुना स्थानक दय अने उक्षे एर वेदं सदित चरण हय, अने सूक्ष्म सपराये जघ-यपदे एफ जीवने एक समये वेवे वध देहु होप अने उल्क पण एक सञ्वलन लोभ अने एक योग एये ववे देतु होप, "अ- गीभार्मे तथा बारे शुणठाणे िेपादेदो एक जीवने एक समये जयन्प्पदे पथः; योगज पथ स्यानक हेय अनै तेरमे शुणठाणे पण एक योगज यध दतु स्थानक होय

सत्ताबन वधदेतुये करी आद कर्मना वध दोय ते वारपरठीतेर्षायां पर्मनो विपाक फाठे उदय होप, ते उद्रीरणा करणे करी उदयापखी मादे पदे-

शये तेने उुदीरणोय कदीए अने ते सरव कर्म सत्ताये होय, ते भणी चौद्‌ छणि ज्या जेटला वधादिफनां स्थानक सभये पै फटे 3.

११२

.प्रपमत्तता सत्त, एस्मीस खपु वायरा सत्त वध्‌ उस्सुह्ुमोए, सुवरिमाऽ वेधगा जोग ॥६२५ अपपरत्तंता-अप्रमत्त गुण- | षायरा-वादर युणटणे | एमे -एकनो

ठाणा परैत सत्त-सातनो उवरिमा-उषछा गुणठणे सत्तह-साते आठनो व॑ध | वंधई-वपि अवंधग~-अर्दधक मीस-मिश्र शणरणे छं-छनोवंप जजोगी-अयोगी गुण°

अुव्व-अपूर्वं गुणठाणे सुहुमो~सूमसंपराये

सर्थः-मेश्रविना िध्याखथी मांसी अप्रमत्त युणएगणाना खतल्षगे ( युकम वांधेतेवारे ) आठ कमनो बैध होय, अने युन बांधे तेवरे सात कमनो वंघ हाय, चरीं मिश्र, साव्मु अपूत्रकरण ने नवमं बादरसंपराय चरण युणएठणे (आयु. वैध होय) तेथी सात कर्मनो वंध हाय, अने दद्म सूददम- संपराये एक आयु अने बीजं मोहनीय वे क्म अतिविदयुदध शअष्यवसायज्नणी बंधाय तेथी कमं वांधे, अने तेथी उपला उपशांतमोद, हीणमोद अने सयोग त्रए युणएढाणे एक वेदनीय कमं बि तथा अयोगी य॒णएठणे कोष कम बांधे ते मारे अर्व॑घक होय. ६२}

द्रेक शेणाणे उदय अने सत्तानां स्थानक कटे,

आसुहुमं सतदए, अषटवि मोदविणु सत्त खीणंति॥ ` चरिम उगे खट, संते उवक्तति संतुदए ॥६३२॥

आपुहुम-सूरप सपराय | सत्त-सात अहउसंते-आाठ तथा सा- गुणठाणा ठगी खीर्णति-त्तीण मेहे. | तनी

संतुदरए-सत्ता तथा उद्य | चउ-चार्‌ सतुदए-पत्ता तथा उदय

अंहवि-याठनो | चरम दुगे-ङठेखा मे शु- | उवसंति-उवकांत मोदे

मोदबिणु-म्येहनी विना णदणे

१७३

अर्थः-मिध्यात्वथी मांसीने दरामा सदमसतषपराय लगे चयि कमनो उटय तथा आवे कर्मनी सत्तापण दोय, यने एक मो- दनीय विना शीणमोदनामा वारमे युणएठाये सात कर्मनो उद्य तथा सात कम॑नी सत्ता दोय. (कारण के व्या वीतराग ठेते मदे मोट्नीयनो उद्य दोय तथा सत्तापण दोय ) अने ठेष्ठां वे य॒णठाणे नाम, आयु, गोत्र अने वेदन चार कर्मनो उदय तथा चार कर्मन सत्ता पण दोय अने अगीश्रारमा ऊ- पद्चात्तमोहे भोद्नीयनों उदय नथी तेथी मोद्‌नीयग्रिना सात करन उदय अने आठ कर्मनो सत्ता दोय कारण के अदं मोद्नीप उषशम्यु ठे तेथौ उदय नथो पण सत्तामां ठे ॥६३॥

हये दरे गुणटाणे उदीरणा स्थानफ फटे ठे,

उष्ट्ंति पमत्तता, सगण मीस वेख खआञ्विणा ठग खपमतता्‌ तञ, पच सुडुमो पणु वतंतो ॥६४॥

श्दति-उदीरणा वेज-पेद्नीयपमे भरण युणदणे पमरचता-परमत युणडाणा | यआउ~अयु कम पच~ तथा पाच र्गी विणा-रिना खुदुगो-घक्म सपराये सगद~सात, आट टेग-छ पण-पाच मीप्रह-मिप्रे आद अपमत्तानमो- अपरमत्तादि। उवसतो-प्पतमेोरै

र्थं -८ मिश्र विना मिथ्यालथी मामीने ) प्रमत्त युण उणा क्षगे पाच शुणठणे श्ाठ कर्मनी उदीरण दोय, तेमा ठेल्ली सावलीये खायुकर्मनो उदीर्णा दोय तेवारे >ेप सात कर्मनी उदीर्णा दत्य. मिश्र युणठणे कालन करे तेयी श्ा- युन ्यत्यावल्तिका पण त्यां दोय तेथी स्वा याउ कर्मनो. उदीरक दोय. ने सथमच, अपरवैकरण यने निवृत्ति

२१५६

रण शुणठति एक वेदनीय चीं आयु वे कर्मनी जद. रणा टोय (केवढ उद्यज दोय) तेथी ते विना शेष कमनी उदीरण होय. यने ददरमा दूकष्मसंपरये मात्र एक सआवदी वाकी र्दे स्यां सुधी कर्मनी उदीरणा दाथ अने ठघ्ची ऋअवलीये सोद नीयनी उदीश्णाटले तेवर तेप पांच कर्मनी उदीरणा रोय. तथा उपदयांतमोहे (पर मोहनो उद्य नथ तेथी ) पांच कर्मनी उदीरण होय. ६४

परण दो खीए जोगी,ऽलुदीरगु अजोग थो उवसंता सख गुण खाण सुमा, नि खट खपुव सम्म अहिश्या पण दो-पाच तथावे | अनोगी-जयोगी गु | सुहुमा-मूष्मसंपराय

खीण-क्नोणभे योयो निभद्टि-निहृत्तिवादर दु-,एन) वे कर्मनी उवमेता-उपश्ानमोदे | अषुव्व-रूर्मकरण जोगी-षयोगोए चखगुण-षंख्यातषणा | सप-सरखा अणुदरीरगु-अबुदीरक खोण-प्रोणमेहे अष्िभा -विश्ेषापिक

अथः-वारसा ीणएमोठ्‌ युएठाणे पांच तथा 'वे कर्मनी

दीरणा, सयोगं युण्ठाणे खनुदीरक दोय. ( इवे अद्प बहल

कदेठे ) उपरशांतमाद्‌ ग॒णएठाणे वर्तता जीव सर््यकी योगा

=

दोव, ( कारण के उपध्रम श्रेणीना आस्नक उ्छर्टपदे चोपन

पाच-कर्मनी उनेरणा सीम सान वन्न

पाच.कमनी उदोरणा क्षीण मोह गणटाणानी अंलावलखिका यक्ता स्मे

दोय अने छट आवलोये ज्ञानादररणोय, द्नावरणीय अने अंतराय जण क. मनी उदीरणा टे दारे शेप बरे कर्मनी उदीरणा रोव.

पिरया, अ्रिरपि, देब, मत्त, अप्रमत्त अने सयोगी युणरणे वचता जीव, छोक् मध्ये सदास्वदा पामीए्‌ तेथी गुणटागा अशुन्य रेज दोप आठ गुणा्ाना जीन देवारेक छोक्र मध्ये पामीये, अने कोई वारे शुल्य-

पशुं पण परामीे, तेवी तें असप बहुल यत्नियतपणे सेय.

#

१७५५

जीवं पामीये ), तेथी संख्यातयुणा अधिक वारमा हीणएमोद्‌ गुणडाणे वत्तेता जीय, ( कारेण के छपकश्रेणी पन्विजता जीप एकसोने आठ पामीये ते खपेक्ताये उच्छृषटपणे लेया श्यन्यथा विपरीत्तपणे दोय ) तथा, दशमु सू्मसपराय, नवसु निवृत्ति वादर, अने आम अपुवैकरण रण युएठाणाना जी मारो- माहे सरखा जाणवा ने क्तीएमोदयरी विन्नेपाधिकः जाणा. ( एटले चरण युणठाणे वत्तताजीव उछृषटपटे एकसो वासव पामीए ) 1 ६५ जोगि पमत्त यरे, संखगुणा देस साप्णा मीत अविर अजोगि मिचा, असंख चञये उवेणएता !३६। 0 सासणा-सास्वादन | पिन्ा-मिभ्यादट इइ 5 मीमा-पिप्रगुणयणाना | असस -मरपातुणा सखगुणा- सग्यातुणा अगरिरई-अव्रिरि चञरो-चारपदे देष-देश्मिरति अजागी- अयोगी दूवेणता-वरे पदे अनंता

स्थं -सयोगी य॒णएठाणे वत्तैताजीय स्र्यातयुणा जाणवा, (कारण के कोटी एयक्छ उच्छा पामीर्‌ ) तेय अप्रमत्त णछाणे वर्तता जीप सस्यात्तयुणा (कोटी सद्ख एयस्त्र प्रमाण >) जाणएवा, तेथी तर धमत्त युणठाणाना जीर सरयात- गुणा जाणएवा, तेथो देतविरति णएवाणाना जीय असर्यातयुणा, तेथी सास्वादन गुणएगणाना जीव खष्ृष्टपदे य्तपवातगुणा दोय ने को्यारे पण दोय, थने जघन्यथी कोश्यरि वे प्रण एम पण दोय, तेथी निश्रषुएगपाना जीय श्रतर्पातयुषा दोय, तेघ श्चपिरति युणएणाना जीय श्सर्पातगरणा ठे, तेघी

१५६ अयोगी गुणकाणाना जीव अनैतयुणा 3, तेथी मिभ्याद हि जीव अर्नेतयुणा ठ. रोते चार युणएढणे असंख्यातयुणा अने बे गुएठाणे अनैतगुणा कटीये. ६६ उवसम खय मीषोदय, परिणामा दु नव ठार हगवीप्ता तिञ् नेख सन्नि वाख, सम्मं चरणं पठम चवे॥६७॥

उपसम-ओ प्चमिक परिणामा-पारिणाग्कि | सम्भ॑-सम्यक्त ओपशमिक

क्षय-क्षायिक 1 वे नघ| चरणं-चासि ओपशमिक

मीस-मिभ्र पटमभावे-पथप ओपशषमिक एकवीस अने चण भेद

उदय-अद्यिक सतनिवाईज-सन्निपात भावना वे भेद्‌

अर्थः-ोपत्तमिकः, दायिक, मिश्र ( कायोपश्मिक )., ओदपिक तथा पारिणामिक जाव एना अनुक्रमे सादि ना- ` दिवे, नव, खसटार, एकवीस चने तरण मेद जाणवा. खने ते- माना बे जरण चार चाव एका मरे तेने सन्निपातिक जव जाएवो, तेमां पेहेल्ला जावना सम्यक्त्व खने चारित्र वे नेदठे. हनीयना उपदामथी परगस्थो एवो जे जीव स्वभाव तेयु नाम ओपद्मिक भाव तथां जे कर्मना क्षये यक्की एटठे भर उच्छेदथी थयो एषो जे जीव स्वभाव ते प्ायिक्‌ तथाजे दय आव्यं करमनो त्य कर्यो अने जे उद्य नथी अन्यां तेना अनुदये रसने अवेदवे तेना अंतराछे परगय्यो एवो जे जीवं स्वभाव तेने क्षायोपरिमक अथवा मिध्रमाव कदीए कमना उदयथी थयो जे जोवेनो पर्य ते ओदायिक भाव जाणे.

आदयिक्‌ स्यभाव पणे परिणमवुं, ते पारिणामिक भाव, तेमाना बे जेण चार भाव एकडा मटे ते सनिपातिक भाव.

१४१ ओपपिकः भावना ये मेद्‌-(१) ओपदामिक सम्यत एटठे अन॑ादुव॑षी चार्‌ तथा दर्मन मोहनीय प्रण सात धरकृतिनो रस तथा पदेश्च नहोय वे ओपशपिकफ फरीये अने तेथी प्रगदीजे तलरचि तेने ओपदापिक सम्यक्स फदीप्‌ तया हप पीप मोह परदृतिनो उपशम थवायी जे स्थिरता स्प चारि पट यायते वोज ओपपिक चाछि॥

बीए केवल जु खलं, सम्म दाणाई्‌ सध पण चरणं तए सेसुवखंगा, पण लद सम्प विरर्‌ दुग ॥६०॥

वीए-यीना प्षापिरुना | षरण-चाखिि्एण पणरभ्यी-पाच रमि केवलजभल-केवटयुगल | तदृए-रीना प्षायोपश- | सम्म-सायोपशमरिफ स- मिकमावि स्पवत्व दाणाड्-दानादि सेषठवभोगा-वाफीना दश | विर्दग-विरिद्िदि- ठद्विपण-पच खमि उपयोग | श्रित, स्यं बिरती)

अर्थं -दूवे वीजा शयिक नावना केवल युगल (२), (प ये उपथोग ) कायक सम्यक्त (२), पाच लब्धि (५), तथा का- यिक चासि (२) एु नव नेद ठे तथा जा स्तायोपरामिक प्नावना अडार चरेद करेठे (केवलयुगल विना) रोष ददा उप. योग (२४), तथा दानादिक पाच लन्धि (५) (उदयस्यनी), श्त योपश मिक सम्यस्स (2), छने विरतिष्ठिक 2), टार ॥६०॥

अन्नाणए मसिद्धत्ताः ऽस्जम तेसा कसाय यष्वेखा मिते तुरिए नवा, ऽनघत्त नित्त परिणामे ५६९

अन्नाण-अद्रान ग-गति(चार) मध्या-भन्प अपिद्रचा-मतिदव | देआ-वेद्रण) अभव्यत-भमभत्पये असमम्-असयप्‌ पिन्द्र-परिध्पा् निभत~नीदत्र भे्ा-देस्या (ए) | इरिए्-चोपाना परिमामे-राणापिक 1 |

कप्ाय-त्पाप धरो)

२५४

` अर्थः-यज्ञान, यसिद्धख, असंवर्म, उलेदया, चार कथा य, यारगति, च्रएवेद, तथा मिथ्या एम एकवीस नेद चोधा श्मीद यिक ावना ठे; तथा नव्य, सननव्य अने जीवस तरण ननेद पारिणामिक जावना ठे ६८

मिथ्यालीद्रु हान ते अङ्गान जीवने संसारी पर्यायपणुं ते असिद्ध, अप्र त्यास्यानावरणी चार कपायने उद्ये असंयमपणु.

ले शक्ति जावा योग्य जीवेखभाव ते भवग्यषणुं सहन सिद्धे. शक्ति जानाने अयोग्य जे प्याय ते अमभन्यत्नाम अनादिं अनंत पारिणामिकभाव अने द्रव्यप्राण तथा भवमराण धारण खमाव जे जीवपर्याय ते जीवत्व, पण अनादि अनंत सिद्ध छ, परंतु कोदनो कर्यो नयी, चञ चज गस मीसग, परिणमुदएदि चछसु खष्एदिं उवसम जुएहि बा चञ, केवलि परिणामुदय ख्ए ५७०॥

चडउ-चार भेद चरसु-चारने चउ-चार गतिनाजीवने चउगड्प्रु-यारगतिआश्री | खडपर्हि-त्तायकभावे | केवलि-केवठिने मीसम~विध्रमावे उवसमजुएाहं-उपशम स- | परिणायुदरवखः ए-पारि- परिणा्रुदपदि-पारिणा- मक्षितयुक्त | णामिक, ओदयिक अने मिक तया ओद्पिकमावे वा-अथवा प्षायिकमावे

द्वे ओपदमादिक पांच भावना ष्टि संयोगे दक्ष॑ अने त्रिक संयोगे दश््भंग तथा चतुःसंयोगे पांचम॑ग अने पंच संयोगे एक्मंग मीने छन्रीष भगा थाय ते नीचे पमाणं

द्विक .सयोगीया दशमंग, ¦ क्रि संयोगी दश भय, | चतुःस॑योगो पचमग, ? ओपङमिकः क्षायक ओपश्नमिक. पायक, | > ओपक्षमिकः, पिर; प्षा- आपदापिकः मित्र॒ | गिघ्र यक अने ओदयिक

ओपशमिक,जदयिक्र | ओपश॒मिक) प्नायक्र, | जौपपरिक, पिर, क्ष अीपदमिक, ष।रिणा- | ओंदपिरर यिक अने पारिणामिक

उपशमिक; क्षायक) ।,२ ओधश्षमिकः प्रायिक;

पायक, मिथ

प्षायक, ओद्पिक

प्षायक्‌, पारिणामिक

प्रिर, ओद्पिकः

प्रिध, पारिणाफिकि

% ओदपिकपारिणापिक , तेमये सातमो भागो सिद्धनो वस्रतो जाणयो,

शेष नव भागा चुन्द,

१७९

पारिणागरिकि

उपम, मिश्र, ओद्यिरे उपशम, मिश्र, पारि-

णापरिक

उपशम, ओदयिक्र,

रिणामिफ

क्षायिऊमिभमौदयिक

क्षापिर परध) पारि णामिक्र क्षायिक, जओदपिफ, परिणामि १० मिश्र, जोदयिक, ष१ा- रिणापिक ते मध्ये नवमो भामो केवरीने हेय भने दशमो भगो चार गतिना नी- घनेष्ेयते परिनाशेष आठभग शून्ये

ओदपिक अने पारि णामिक ओपरामिक, पश्र; आओदायिक अमे पारि णिक कषाये, मिश्र, जीद्‌- पिङअनेपारिणापिहह ते पाच मध्येथी एक ष्वोथो मम चार गतिना उदम समरित शष्ट नी वने होप अने पचमो भागो चार्‌ गतिना प्नायफ समर्गित दृषटिजीवने हष वाङ़ीना शून्य छे

दीसमो प्च सयोगीभो ( ओपशषम, क्षापिक) पिथ, अ(दयिक, अने पारिणामिक ) सानिपातिक भाव ते, उपरम प्रेणीर वर्तना मभुप्यने नवमे दमे, यने आीञारमे, ए्‌ जण शुणदाणे शेय उष्रना छन्यीस्पाथी जे घण भागा चार गतिना जीव आभी षप्राषे,

तेना =*३-१२ थाय ते गाथामा कदी देखादेे

श्पर्थ.-( तमा त्रिक सयोगीशरो दशमो जग मिश्र थोदयि- ने पारिणमिक) तेना चार गतिथ्ाश्री चार नेद थाय ( सदुप्य गतिमा मसुष्य ) मिश्रा पारिणामिक नवे अने श्यीदयिक नावे दोय (ते एक जग, तेवीज रीति चीजी श्रं गतिश्याश्ची चरण, एम चार जलग यया) तथा तेज चार सतिना

१६५०

(सन्नि पैचेंडि ) जीवने (पूर्वोक्त चण जावनी साथे चोथो ) छ्यायिक जनाव मेलवतां चतुःसंयोगीस्ो चांगो थाय (तेना चार गतिसाभ्नी चार जागा ) तेने उपशम सम्यक्त्व सहित करीए त्यारे पंच सथोगी्ो नागो धाय. (तेना चार गति्ाश्री चार सांगा एम वार ग्‌ थया) तथा केवलीने एक पारिणामिक, यदयिकः अने कायिक त्रिकरसंयोगीशो एक नामो होय तेर जंग थया ७०

उपर चारगति आश्री जे विकरसयोगीपा, चतुः संयोगीथा अने पच संयो गीथा भत्र क्या) तेमाना दरेकः भवना कया कया भेद कड्‌ गति आश्री होयतेकदेखे. ,,

(१) पिश्रमावे-्ान, अज्ञान अने दक्षन रन्धि. (२) पारिणामिकमावे-जीव- पुं तथा भग्यपणुं (३, ओदयिकभावे-(ले गति आश्री दोय ते ) गति, रेया, वेद अनेकपाय (४) क्षायिकभावे-प्नायिक सम्यक्त (५) ओपशमिकमावे-ओ- पशमिक सम्यक्त्व.

खय परिणामे सि, नराण पण जोगु वक्षम सेदीरए्‌ र््प्र पनर सन्िवाश्ञ्प, चेच वीं असंनविणो ॥७२॥

खय-्षायिकमभावे पण-पंच इअपनर-ए पदर्‌ परिणामे-पारिणामिकमावे| जोग-परेरपि . सननिवाईय-साननिप(तिकना पिद्धा-षिद्धना जीवर | उवसमसेदीए-उपश्षमग्रे- | मे यावी -वीसमेद

नराण मनुष्य णीये असभविणो-अ्मावी

अथः-सिद्धना जीवने ( द्विक सयोगी्रा मांहेलो सात- 9 4 न, मो छ्ायिक पारिणामिक जांगो पामोए, जे नणीसिषठने ) ज्ञान, ददन अने सभ्यक्त कायिक जावे ठे, अने जीवसपणुं पारिणामिक जावे ठे ( सिद्धने वेनो मेढापक >, वीजो कोय संन्वे चोद नंगा थया ) तथा जे (उपशम सम्यर्टष्ट)

१०२ सनु्य उपदाम श्रेणी करे, तेने उपशम श्रेणीने विपे (८ नवमे दशमे छने खगी्रारमे चएठाणे एक जीवने विपे एक समये) पाच जनावनो मेलाप होय, पदर नेद साच्निपातिकना ठता दोय. दोष वीरानागा यसनावी एटले शल्य ठे, कारण के ते सगा कोद जीव पामता नथी उ२॥ अर्धा उपशमभावे चासि देय, प्षायफ भावे सम्पक्स होय, मित्रभावि

कानद््रनादिक दोय, ओद्यिफमाये मनुप्यगत्यादिङ होय, अने पारिणामिक भूवि जीवरवारिक हेय,

षवे ओपशमादिफ पचाव आढ कर्ने विपे पिवरीने देग्ादेे भोदोवसमो मीसो, घादसु कम्मसु असेसा धम्माई्‌ पारिणामिख, नवे खंधा उद एवि ॥७प्४

मोहेव्तमो-मोदनीयने | अहकम्पघु-सर्व आडे स- | पारिणापरिभमावे-पारि- उपशम होप मैने विषे णागमिकभापे असेसा-रोप राते | खथा-खथ ने पिपे | धम्माई-धर्मासिफायाि | उदएवि-दयिकमावे छ्थै.-मोद्नीय कर्मनो उपशम रोय तथा कयोपदम चार घातीखां कर्मनो दोय, दोपरद्या जे चण नवते ये कम मे विपे दोय, तथा जीवनी पेये (धमास्तिकायादि पाच ख्व्य पारिणामिक जावे ठे, तेमा ( खनतप्रदेदी ) पुद्गल स्कध ते श्ओौदयिक भनवे पण दोय ७२ मोहनीयकर्मने विपे पांच भाच होय जने उानावरणी देर्शनाबरणी अने अ- तरय भरण कर्मने प्िपे एर ओएदामिर विना चार मावर होय ठे, तया नाय, गोघ्, आयु अने वेदनीय चार कर्मने विपे पर क्षायिक, पीनो ओद्पिक भने भीजो पारिणामिक ष्‌ भाव पामीर्‌

१६४२९

अजीवनी अपेक्षाये पांच अजीवरदरव्य अनादि पारिणागिक्र भावे छे केके ते पोतपोताने भावेज प्रिणम्या ठे, पण परमावे परिणमना नथी ते महि पण पद्‌ गल द्रवणुक्ादिक खध ते सारि पारिणामिक भावे दोय अने अनैत परदेशी पुद्‌- गलस्कंथ ते ओदयिक भावे पण दोय.

हवे एक जीषमे जे ने गुणटणे जेवा जेच्ा भाव होय स्यां स्यां तेरा भाव कहे छ, मूकभावनी अपेक्षाये मिथ्या सास्वादन अने मिध एत्रण शुणगणे परिभ्रमावे अङ्गानादि दश्च उपयोग दोय अने ओौद्यिकभावे गत्याषिकि दोय, तथा पारिणापिकर भावे जीवचादिक होय. त्रिक संयोगीओो भागो शेय एटटे क्षायो- परिमफ, ओदयिक, अने पारिणामिक चण भाव दोय,

सम्माद्चखसु तिग चछ, नवा चञ्पणु वसामगुवसंते चञ्खीएएाऽपुे ति, चसे गुणएठाणमगे गनिए्‌ ॥७२॥ सम्पाड-सम्यक्छादि | उवस्ामग-नवयं तथा | अषुञे-अपूर्करणे

चरघु-चारने विषे दशमं रणटाणु | तितन्नि-त्रणभाव

तिगचउभावा-त्रण अथवा। उवसंते-उपश्नातमोहे सेसशणगणगे-शेष पाच चारभाव दोय | चडउ-चारभाव गुणगणे

प्वउपण-चार तथा पांच खीगा-क्षीणमोद | एगजीए-एक जीवनेविपे

अथंः-सस्यक्ठादि चार युएणे एटल्ते चोथे, पांचमे, ठे अने सातमे ) चण अथवा चार चाव होय तथा नवमे, दशमे यने अगियारमे युणएठाणे चार तथा पांच जाव दोय, वारमा क्तीणएमोद्‌ यणठाणे तथा अपूवैकरण आठमा रुणे चार नाव दोय, देष पांच युणएठाणे ( चिक संयोगी दशमा जगना >) चण चाव हाय, एम एक जीवने एक्‌ समये एटला प्राव दोय ७३

४-५-६-७ चार गुणठाणे जो क्षायोपक्चमिक्र सम्यक्त होय तो क्षांयो- पशमिक आदयिक अने पारिणापिक्र चण भाव होय. अने क्षायिक सम्यक््‌- दष्टनि क्षायिक, प्षायोपशमिक, ओंदयिक अने पारिणामिक चार भाव दोय,

तेभन ओपमिक सम्यर््टिने पण क्षायङ सम्यर्रटिनी पेर परणं तथा चौथो ओपथमिक सम्यक्ख चार्‌ भाव दोय

तथा ९-१०-११ जण शुणणे एर जीवने उप्र प्रणी करता क्षायो एमि, योदयिफ, पारिणापिर, अने ओपदामिक चार भाय दोय तथान्त नीय क्षायिक सम्यक्त्वे उपरम प्रेणी पडिवञ्जे तेने पाचे भाव होय, तथा <~ १२ पये गुणडाणे क्षायिक, प्षायोपवमिक, ओदयिक अने पारिणामिक चार भाव हेष, तेषां आये गुणटाणे ओपदामिक सम्पग्लीनि क्षायफने वदे ओप- धरमिक भावे ओपरापमिफ सम्यप्तव होय, शेप पाच गुणटाणा फभ्येथी पेदे जण एणडाणे ओदयिक, पारिणामिफ, अने प्षायोपश्षमिङ तण भाव होय तथा चेर्छे ये शुणठणे प्षायक, ओदपिक अने पारिणामिक तण भाव रोय

ते मूल पच भाव द्रे गुणठाणे कथा तेना उत्तरमेद्‌ भरफरण रत्नाकर ोथा मागमायी जोह ठेवा

ये सरूयाता अस्तरप|ता अने अनताना भेद फे 8.

संखिजेगससंख, परित जुत्त नि पय जु तिविद्‌ं

एव मएंतपि तिहा, जहन्न मञ्द्युक्सा सवे ७४॥

स्िनेग-सरूपापोएफ ¡ युक्त नहत -जघन्य अप्तख-असरयातोरार तिविद-तण प्रकारे मजल-मयम परिति-प्रत्येक सख्याह एषे-ए रीते उकपरा~-उच्ृष जुत्त-युकत सख्यात्‌ अणतपरि-अनतापण पथ्ये-पम

निमपृयजुभ-पोताना पट तिदा-तेज तण प्रकारे

र्थं -सरयातो काल एकज जाएवो, अने यसरयातो काल तरण प्रकारे ठे एकं प्रत्येका सख्यातु वीं युक्ता सरयातु ने प्रीज्ञे पोताना पदय॒क्त ण्टले असरयाता सरयातु रीते अनताना पण तरण नेद जाणवा, एरले सात नेदं थया तेना घी दरेकनाः जघन्य, मध्यम अने उष जण नेद होयते रीते एकवीस न्नेदं थया ते एकवीस सेद श्रागल्ती मायामा विवरीने देखाभे ठे, अर्दा एकन सस्या गणनीमा लीधी नधी,

१७१ वदु संखिकं इचि, खर्परं मज्जिमंतु जा गुरुं जंवृद्धीव पमाणएय, चठपनघ्च परुवणाई्‌ इमं ७५

टहुसखिजं-जयन्य सै- | मन्िमतु-मध्यमसख्यातु ममाण

स्यातु | नागुरभ-यावत्‌ उच्छृ | चपट - चारपाखनी दुचचिअ-वेथी घुधी | परणामं -प्ररपणाये अओपरं-ए.उपरांत जयुदीषपमाणय-जवुद्रीप करीने

अर्थः-जघन्य संस्थातु वेने कये अने वेथी उपरांत या-

वत्‌ खच्छरष्टा संख्यातामां एक रूप दीन दोय स्यां सुधी मध्यम संख्यातु कदीए, ते उच्छष्टु संख्यातु जंबुद्रौप प्रमाण चार पा लानी प्रपणाये करीने जाएं ते कडठे ७१५

जंुद्रीप जेयो एक राख जोजन खतो पोद्चेगो, तथा फरतो पसि तो तरण राख सोल हजार वने सत्ताचीसर जोजन तरण कोश एकसो अष्टावीप्र धचुष्य तेर आंगल एक जव, एक जू, एक टोख, अने एक षाखाग्र, सात चरसरेणु पांच परमाणुं एष्टो, अने एक दजार जोजन उंडो तथा आट जोजननी नगति (कोट) अनेते उपर ये गाउनी वेदिका एट्छे एक दजार्‌ साडाआढ जोजन उडो अने पफ खाख जोजन वचेथो लंग णेदेगो एवो एक प्याखो करपीए ते प्याो सरसवना दाणावडे टोच सुधी एवी रते भरीएके तेमां एक दाणो पण उपर ठरे नदी, ते प्याखाने उपाडो तेमांथी अक्को सरसवनो दाणो एक एक द्रीप स- ुद्रने विषे भूकता जदृए, पो जे द्रौपे अथत्रा सषु ते प्यालो खाटी थाय ए- वडो, पटे जेटली सरसवना दाणा तेष्डा द्वीप तथा सखद पाह समाई जाय तेवडो एक बवीनो प्यागे कस्पीएु तेयं नाम अनवच्िन प्पाछो कए पल्नाणवष्िञ सितता, ग्‌ पमि सित्ागा महयसित्तागख।॥

नके [1 (र जोयण सदसो गाढा, सवर्‌ खत सिह चरिच्पा ५६ पटाणवहि भ-अनवस्थित ¡ महापिलछागस्खा-महा सवेइअता-वेद्विकाना अंत प्पाो िखाका | सहित

सिराग-शषखाकाप्याखो | नोयणसहसो-हनारनोजन। ससिह-शीग खुधी पटिखरागा-प्रतिशिलाका गादा~-उडो भरिभा-मरीये `,

एय्‌

र्थ.-पेदेलो अनवस्थित प्यालो वीजो शताकाष्याल्ो, प्रीजो परतििाकाप्यालो चने चोधो मदा्लिलाकाप्याल्लो, चार प्याललाना नाम कष्या ते यनव स्थिततप्याल्लो एक इजार जोजन उसो देदिकासदित वेदिकाना यत्त सुधी सीम सुधी सरसवे करी जरीए ७६ तो दीषु दिसु श्क्षि,क सरिसवं छिविख निष्ठे पठमेष पठम॑वतदतंचिख, पुण नरिए तम्मि तद्‌ खीशे ॥७०॥

सो-ते व्ालने विविअ-पूतां तःतचिअ-तेना अत धी दीबुदहिए-दीपसुने ^ निहिभ-निरे(लाटी याय) कौ पग मरवि पक्षिक-एक एफ पदमे-प्हेखाना तम्मि~ते प्पारने पण

सरिसय-सरसव पदमव-पेदेरानी येठे तदीणे-तेमज मूको जाय

शयर्थं -ते प्यालाने ( कोर देवढानव ) उपामी तेमांथी पक एक ्टीप समुखने विपे एक एक सरसवनो दाणो सुकतां भे रौप समुख्ने विपे ते प्यालो खाली थाय तेवमों एते वचमानाष्टीप ने समु ते मध्ये समाऽ जाय, तेवो वीजो प्यालो कटपीने पेदेलानी पठे फरीने नरीए, तेने पण तेमज (एके सरसय एकेक दीप सम॒डे > सकता खाली थाय. तेवारे करीष ते कटे ठे, ऽ8 चिप्पह्‌ सिलाग पचे, गु सरिसवो सिघ्लाग खिवणेएं॥ पुसो बीच त, पुव्चपिव तभ्मि उशरेए #॥ ७४

निषद-नालीये तिगरण~एलाङा प्यालो | तओो-ते वार्‌ पी पाला, चिपगेण-नासीये ुव्वगिवि-पूरषनी पेर एथपरिमयो-फ सरमय | एणो-करीनि वन्वे

एव-दु पकारे दीभोभ-~बीनो द्धरिए-लष्ए्‌ १४

| १५६ अर्थ॑ः-(.तेवारे तेन संख्या निमित्त ) शलाक नाभा बीजां प्याक्ताने विषे एक सरस्व नांखीए, प्रकारे वती बीजो अनवस्थित प्याल्लो कद्पीये ते खाल्ती थयेथी वीजो सरसवः सल्लाका पट्यने विषे मकीये, एम अनवस्थित प्याल्ला जरी नरीनेः खाली कर्तां अने एक एक सरसव शालाकापस्यने विषे मुकतां ते दाल्लाकापद्य शिखा परयत जराय तव्थारे रालाका पल्यने जपामी जं एिपसमुढ ठेघ्रा यनव स्थित प्याल्लानो अंत आव्यो ठे स्यांथी शलाकापद्यने विषेथी एक एक सरसव नांखता जु, ते' राल्लाकापव्य खाल्ली थाय स्यारे ञं करीए ते कटे 3. ॥७८॥ अही ओं अनवस्थित प्यानं गणन्री मारे जे शखाका पस्यने विषे सरसव मुचामां जाच्यो, ते पावतमां कोई आचार्थनो मतं एवो ठे के वीजो सरसव रेषो अने कोडकनो मत एवो छे के ते अनवस्थित प्याामांथोन ठेवो, त्यां तव केवरी -नाणे तथा कोई एम पञ के पेदेखा अनवस्थित प्यालो भरायो ते बखते एफ सरसव दठाकापस्यने विपे केम नांख्युं नदरी! अने वीजाथी नांखवा मांडयुं? तेपु कारण के-अनवस्थित ट्टे जें परमाण नयी. ते, पतु पेखा प्यारा परमाण तो जंबुद्रीप जेरा विस्तारवाद्धं बतान्युं छे, मारे तेने अवध्थित करीप

अने-बीजा प्याङाने अनवस्थित करीए, माटे पेदेखो प्यारो वर्जने बीना ग्रण कुछ

खीणे सि्तागि तश्ए, एवं पठमेदि वीयं जरसु

तेहि तङ्ं तेहिञ, तुरि्जा किर फुमा चञरो॥ ५९ चिणेसिखाग-शाका प्या| वीथयं-वीनो शाका | जाश्भिर-जे निधे

खो खाली यये | भरसु-भरीये फुडा-स्फुट(्िखा सहित) २ए-तरीजा , | तेहिअतईञं-तेवडे ओजो | चउरो-चार एवं-ए रीते तेहिथतुरिअं-तेवडे चोथो

अथः-एम करतां ते इलाका प्याल्लो ठालो धाय स्यार ्रीजा प्रतिदालाका पल्यने विषे एक सरसवः स॒कीष. एवी रीते

१५७ (अलच्रस्थित प्यालाए करी रालाका पल्य चरीएन्खनेनते ) नञः छाकाये करीन त्रीजो पतिदालाका पट्य नरीए, ते श्रीजा, अति श्लाकाये करी चोथो सदातलाका पल्य येए, ते बोधो पयालो यां पठी, चीजो प्यालो साली थयेलो"ठ ते पूवैन रीते जरीए, ते पठी बठी पूवैनी सीते अनवस्थित ध्यालाये करी वीजो शा लाका प्याघ्लो नरीए, ते पठी ते रणे प्याला जे छीप ससुडना शनवस्थित प्याले जरा रया ठ, ते छीप समुरः परयत खनव- स्थित प्यालतो कल्पीने सरसपे करीन नरी ए. एटले'ए मिश्च चारे प्याला फु एटते शिखा सदित सपं जराया " ७९॥

पटमति पट्ट सिय, दीडुदद्‌ी पललं चज सरिस वाय॥ सवोषि एस रास, रूवृणो परम सखिङ ००-॥ पदमनिपष्ट-पेदेला रण॒ पटुंचञ-चार प्याछाना राषीपांयी ,

प्याछे फरी सरिसवाय-सरथोनी | स्वूगो-प्स्प करीष

रिभ वदं सब्धो्िए्तरासी पमं | परममव्विन-उ्छृषपतर पातु दियददी-दरप सथा स्र | बोविपतर छ्तरपातु

र्थं -पदेला रण प्याते करी जद्धर्या जे ष्टीप समुड तेनो सरसव एटले प्रथ्रथी सरसव ञे छीप समये सुस्था. तेना -सरसवनी सस्या अने ञे चार प्यात्ला जयी रदा ठ, ते मिला सरवन सग्या एकठी करीये, सवनी राद्ी (एकग) करता जेरछ्ता सरसव चाय तेमांथी एकरूप एटले एक सरसव चंग करीये तेवारे उसकृष्ट संल्यालु चाय ॥। ५०

ते उक सर्यातामायी एकरप ओट फरीए दायी उहता प्रगनी स्या

शथी मभ्यम सत्याह करीर अनै ठेनी मण्यातते जय सरयातुषरीते सप्या- तान घ्रणमेदेक्त्रा

=

१४४ खूब जुखंतु परति, ऽखं लहु यस्सरात्ति अश्रासे जुत्ता संखिज्लं तहु, पवलिया समय परिमाणं ॥५२॥

स्व-(एक) रूप अस्प-एने ; युक्त असंख्यात थाय खअत्र-युक्त करता | रासियप्मामे-गपि अभ्या आदवद्टिया-आ्ररिना करतां समय-मयं } र-जपरन्य < सहु-जयन्य जुत्तासंखिजंटटु-जः | परिमाणं प्रमाण

थः-ए उत्कृष्ट संख्यातामां एकरूप मेढवतां जघन्य भ्रसयेक संख्यातु थाय,ए जघन्य परस्येक यसंव्यातानो रारि च- न्यास करतां जघन्य युक्त यक्तख्यातु थाय तेटला एक आव. लिना समयस रमाण धाय. ते मांदेथी एकरूप दीन करीये तेवारे उक्छृष्ट प्रयेकं यरसख्यात थाय, तथा जघन्थ भरव्येक श्संख्याताथी मांमीने एकरूपे दीन उक्र रत्येकं ससंख्याता गे सव मध्यम परत्यक असंख्याता जाणवा. 1 ८१ अद्धा रादी अभ्यास पट्टे कोई संख्याने तेनी ते संख्याए ते्डीवार गुणी एटटे जेम पाचने पांचरार पांच गणी स्यारे पाचनी रा याय. साते

यातव्रार साते गुणीषु चारे सातनी सशरी थाय. वारने वार वार्‌ वार्‌ गुणीये त्यारे वारनी रात्री थाय

वित्तिचञ पचम गणे, कम्मा सग संख पटम चञ सत्ता एता ते स्य ज॒च्मा, मज्ारूवणए गरू पा ॥5५॥

संख-संख्यातु भेगीए्‌

(क पटम ~पदे मजा-मध्यम युक्त असं-

री | चउ-चोधु ख्यात्‌ सत्त-सातरं स्वृण-एकरूप उण करतां

गुणगे-रयिथभ्यास करतां ` पाद्य ,

कम्मा-अनुक्रमे णना-अनंतानतु गस्पन्छ-पाणट प्रत्येका

सग-सानयु | तेस्वज्या-तने एकरप संख्यात

१९ अथं -वीज्लै जघन्ययुक्त असंरयातु, व्रजं जघन्य अस॑- रूधाता सस्याठु, चोथु भ्रसयेकानलु थने पाचमु मध्यमयुक्तानतु तेनो रा्ि अन्यास करता, अनुक्रम सातम जघन्य ससं ख्याता सख्या, पदे जघन्य धत्येकानंतु, चोधु जघन्य युक्ता- नतु छने सातु जघन्य अनतानतु धाय ते जघन्ययुक्ता संर्पाताने वढी एकार सूपे युक्त करीये तेगारे मध्यमयुक्त अरसंख्यातु दोय अने एकरूप दीन करए ते वरि पाठड्ु उसका ्रस्येका सेख्या दोय ०२ वी जयन्प अप्तर्याता अप्तस्यातामा पएकरूष मेगीए्‌ तो मयम अस्षरया- तो अस्तख्यातो थाय तथा एकरप फादीये तो उच्छृ युक्तापरर्याह्न होय एप कषधन्य परत्येकानता मादी एकरप फादे यके उच्छृ अप्तरयाहु हेय अने एक स्प सेख्वेत पथ्यम प्येफानतु होय वेः ते सख्यातु असप्याहु अने अनहं प्रणना एकवीस भेदनी स- मण नीचे भरमाणे भेनी सख्या ते (१) जनयन्यसस्पातु, घ्रणयी मदीने जवुदीप प्रमाण वार्‌ प्यालाना सरसवनी सख्या जे उपर की तेमथी वे ओग करतां (२) मध्यम स्पा, अने एक ओद करतां अथवा मयम सख्पाना फरता एक प्रधरेते (३) उृए स्याह, प्रण नमेद्‌ सव््यानाना इक्क सरयातार्मा एक सूप पधारतां (१) जयत्य मत्येकासर्यातु, नषन्य पर्येका सरयातानो यि अभ्यास करने तेमाथी ये ओग करतां (२) मध्यम भ्येकार्॑र्यात,) मध्यम प्र्येकापरुपानामां एक वधारता (२) उच्छ पत्पेण- सर्व्यातु, अने उक्षा पत्येकाप्तस्यानायी एफ चारे पुष्टे लघय भत्येगास- स्यादाने रारि अभ्यास तेनी वरोपर (४) जय पयुक्तासर यातु, नयन्ययुक्ता सप्पाताना रागि अभ्यासरप॑पी वे ओज कता (५) पपपयुक्ता सरपाहु, अमे प्क मोषो करतौ अथवा मयम युक्तास्रपातामा एक वधारा (६) इक्रष्टु- क्ता प्रपातु थाय, अने तेमा एक वधार एटठे जयन्ययुक्ता सर्पातानो रात्रि अभ्यास करता (5) जय अमत्याता सरपाह्‌ पाय, भपन्प भमस्या-

१४४ -ता संख्पाताना राश्चि अन्याक्तपाधो वे ओद्य करतां (2) मध्यम अततश्यतापं- ख्यात याय, अषंख्यानासख्यरातापां एक वरधारतां ५) उष अस्तरयाना-स- श्व्यत्ु याय, पुनव असरूयादाना मेद्‌ यया.

जघन्य यप्रख्पाना संख्यानानो रानि अस्पास कनां पटे उक्र असं- ख्य(ता संख्यातामां एक वधारतां (१) जनन्य ध्रसये कानत याय, एप उप्रभ- माणे अनेताना पणनवर येद्‌ सपनी देवा परे (२) मध्यम्‌ भरस्येकार्नतु, (३) उक्षा प्रत्यानं, (४) जघन्य युक्तानतु, (५) मध्यम उुक्तार्नतं, (£) उच्छृ युक्तां, (७) जयन्य अर्ननार्नत, (८) पथ्यम अन॑तानतु, (९) उक अनेता्नतु,

द्य सुतुत्तं अन्ने, वमि मिक्सि चर्थ्यय ससंखं दो₹ असंखासंखं, तहु सूवजुखं तु तं मज्लं ॥०२॥

इयमृलुत्तं-ए गर्रोक्त ¦ चरध्ययं-दोगुं | स्वजय-एक सूपुयृक्त

अन्ने-वीजा ¦ अंखं-अघंल्याह्‌ ¦ दुत-ते बारे ते

वगिथ-वग करए , दोट्-दोय मन्रं-मघ्यम अ्मरूयाना

इकसि-( नवनो वे ) ; असंखासंखंछटु-जघन्य | संख्यादु- पए्क्यासी असंख्याना संख्यातु

अथंः-एु सूपत्रोक्त एटले संख्यात्त, असंख्याता यने अ- नतानां खरूप अतुयोगद्वारादि सू प्रमाणे कष्या. बोजा खः चार्यं प्रमाणे कटे ठे. चोधा जघन्य युक्ता संख्यातानो वर्भं करीये, (वं एरक्ते कोद संख्याने तेन) ते संख्याए . युणीए, जेम नवनों वर्जं एक्याश्ची ) ते वारे जघन्य यसंख्याता संख्यातु थाय, यने तेमां एकरूप जे्लाए तेवारे मध्यम असंख्याता संख्यात थाय ४ण्द्‌॥ `

रूवृणए मामं गरू, तिवम्मिच्मां तच्चिमे दसखेवे त्ोगा गास पएसा, धम्माधम्मे मजि दसा ८४

सणं-एक सूप दीन | दस-द्श वे्णा-धरमस्तिरायना आइम-पेदेद सेवे-मेलीये अधम्नो-अधमौस्तिजायना गुह -त्छषट , | रोगास लोराराशना | एगजीज-पएक जीवना

तिविशिमो-त्रणवेडा वग तदपिमे-तेमा 1 | पर्सा-पदेय | देसा-पदेद

छर्थ.-वछी ते जघन्य खसस्याता असरयातामाथी एकं रूप कादीपे तेवारे उच्छ युक्ता सैस्यातु थाय तेमाथी वटी एकाद रूप दन करता मध्यमयुक्ता सस्यातु चाय वीते जघन्य असर्याता असंस्यातानो ्रणएेल्ा वर्गं करीए ( एटते जम वेनो प्रथम वर्म २२४, चारनो वर्ग ४.४-२६, सोनो वर्म १६५ १६-२य६ एवी रीते करीए, ) तेमां (द्वे कटेवान्े ते) श्ना दन्न यसंख्यातानी रारि चेढीए (१) लोकाकादाना भरदेदा, )} धमास्तिकायना, (३) अधमस्तिकायना, ४) तेटलाज एक जीयना भ्रदेशा, तथा ०४

पोका काशना परदेण ए्ठे एक अर भगराण आकाशसट मादेथी समये समये एकक प्रदेया रए तो असख्याता उत्सप्पिनि यपमधिणि फाठे ते अघल भमाण आङाग्रखद निर्टंप थय, तत्रा स्रं लोफारावाना प्रदेश अने तेटगज पर्पसिङायना तया तेटसाज अधर्मास्निकायनां अने तेटराज एक जीवना देदा छे, चोर शादि अरूयातानी सरी जाणपी ते तथा वीनी वीचेनी मायामा कदेव,

चि वधज्वसाया, खणएुज्नागा जोग ठे परिनागा इष्टय समाणए समया, पत्तेख निगोखए चिवघु ॥८ त्रि्ठप-सिथितिर्थना | छेअपदिभागा-टेद्‌ परि ¦ ममया-समय

1 भाम (न अगुभागा-भदुमाण दृष्या | निगोमप्-निगोदना भोग~योग ¡ समाग-समान्‌ | पिवमु-मेतीप्‌

२०२ खर्थः-(५) स्थिति्वधनां अध्यवसाय स्थानक, (६) अर्तु- स्नाग (रतत )नां स्थानक, (७) याग ठेद पलिनाग स्थानक, (5) बे ( उस्सर्िणो, अवसर्पिणी ) ना समय सरखा ठ, तेना एटके एक कादचक्रना समय, (९) ( साधारण व्जीनि ) परस्येक जीवना शरीरनी संख्या, तथा (१०) सूदम अने वादर निगो- दनु एक साधारण शारीर एवा निगोदीस्ा जीवनां सरीर (ए दश्च बोल असंख्याता ) ते परूवेला राज्चिमांदे नेखीए ॥पा सिव धनां अध्यवसाय स्थानक असंख्याता छे ते एवी रोते.के मोहनीय- कर्मनो जघन्य लितिवेध संन्यखना छोमनी अवेक्षाये अंत्हर्तनो ठे, अने उ- ` स्कृष्चे सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनो ठे, ते जघन्यमां एकैक समय वधारतां जेटलछा समये उक्ष स्थिति पुरी थाय तेटलां मोदनीयकर्मनां स्थिति स्थानक होय अने ते पफेक स्थितिस्थानकनां कपायनी तीव्रमदतादि कतभेदे रोकाकाश्च भरप्ाण असंख्यातां अध्यवसाय स्थानक होय ते पांच, रसनां स्थानक असंल्याता लोकाकाक्न परमाण ठे, तेना वैध देतु असंल्याता अध्यवसाय स्थानके. ते पण भेगीएते सातय मन, वचन अने कायां बन करणवीरय, तेनो रेदपलिमाग णटछे केवगीनी प्रह्नारुप शद्धे करो खेदतां जे वीशन भाग देवाय, ते वीर्यौ विभागद्ुं जघन्य स्थानक निगोदीभा अपयाता जीवने उत्पत्तिने प्रथम समये होय, वीजे सभये वीज स्थानक दोय एम असंख्याता वीर्यश विरोष भणी असंल्याता बीं विभाग स्थानक दोय ते सात.

आपा उत्स्पिणी, अवससपिणी पे मीने चीत्त कोडाकोडी सागरोपभ्त्ं एक कारचक्र तेना अख्याता समय थाय, एक जीर्णं अने घणु श्रीणं दख फा- इतां तेनो एक तांतणो तटे तैटछोवारमां असंख्याता समय व्यतिक्रमे एव्रा एक कालचक्रना जेटछा समय थायम्ते आण्य स्थानक तेमां मेढी

नवय स्थानक भरयेक जीवना शरीरनो संख्या ते.-एक साधारण षनस्पति- ` काय वज्जने रोष पृथवीकाय, अपक्ाय, तेखकाय, वाउकाय अने परस्येक वनस्प- तिङ तथा रष काय सदृ जीवय नव स्थानक तेपणतेमां मेगोष्‌,

१९३ दकष स्थानक सर्म अने वद्र निगोदद पुर साधारण श्री तेवा नि- गे्रीभा जीवना अ्तल्यातां प्ररीर खे ते ने असल्याते ठे वे अपद्यात्ु चेव पए दुशषु स्यानर रेयु, रीते दश स्थान्कनो राशी, जघ असख्याता अस्त स्यातानो जे तरिवर्म करेल छे, तेमां मेजोए पुण तंमि तिवगिञ्ए्‌, परितं लहु तस्स रासोण खपनासे लद जुत्ता, अणंत अश्नव जख माकं ॥६॥ धुणतमि-ग्र ते राशोने | तस्स-तेनो (म्पास| जुचाभगत-युक्तानु = कान छु-रुषु, जघ जिग्रपाण-~-जीवनरु मान अर्थ"-वढी ते रारिने चणत्रार वर्भिये तेवारे जघन्य भरत्येकानैत दोय, वढी तेनो रा्चि अच्यास्त करीएु तेवारे चयो जघन्यं युक्तानतो दोय, तेटला जघन्य युक्तानते यन्नव्य जीवत मान दोप, तेटला खन्नव्य जीव दोय, ते मध्ये एकरूप उं करीपे तेवारे उच्छृ भ्रप्येकार्त चीज याय ॥०६॥ तवगगे पुण जायर्‌, एंताएत लद तंच तिषुत्तो चग्गसु तदत्र तं हो, इणंत खेवे छिवसु इमे ॥५७॥

तव्वग्गे-तेमे बरी तच-तेने णत-अनता पुण-वी तिख्लुचो-जणवेला सेवेखिवपु-मेरवतां भायर्-याय वगाु-वगंये छषुमे-गाछ णताणततख्हु-जयन्य | सदवि-तोपण

मतानतु नतक्षे्~न दोष

र्थं -ते चोथा अनतानो वर्भं करीर तेवारे वदी सातमो जघन्य अनतानेत्तो थाय, वट ते सातमानो घरण वेलाम करोये तोपण उक्ृ्ट नतन थाय, तेवारे तेमां अन्तां चेकोष एषा

२४१ सि निम्गोञ् जीवा, वणस्सं काल पुग्गला चेव सव मलोग नहं पुण, ति वग्गिं केवल गमि ॥८ए॥

सिद्धा-धिद्वना जीवं | काट-त्रणे काठ पणवी

निगोजजीवा-निगोदना | पुगदला-सर्वं पुद्गक | तिवग्गिओ-जिवरगीये जीव सन्ध-सर्व दव्दु्गमि-केवष्द्विकः

वणस्सह-वनश्पतिकाय गखोग्नदं टोकाटोक्राकाक्च| ना पर्याय

अर्थः-८१) (सेद्धना जीव अ्न॑ता ठे. ते, (&) सूक्ष्म अने द्र भिमेदनः जीव, ८३) भरस्येक साधारण वनस्पति कायनःजीच, (४) सतित यने अनागृद कालना सतं समय, (५) सथद्छा पुदूगल् स्कथना परमा वे पण अर्गता ठे. (६) सवे लाका- कारा चने अलोकाकारना परदे, व्रेकनी संख्या अनैत अर्नत ठ. ते सवनो रान्ति करीने तेनो रष वेलावर्भं करीये, तेमां केवलङ्ञान वथा केवल दक्षनना जे चर्च तापयीय ठे ते मेटीये॥एणा॥ खित्ते एंताएंतं, हवे जिहतु ववद्रड सज्ज द्र्य सुद्मभ्य विख्ये, लिदि्पर देवट्‌ सुरां ॥6णा

खित्ते- कषेपवेथके ववदरई~व्यवदार वियासे-विचार णंताणंतं-अनेतानंत्‌ मज्ज्रम-मध्यम अ्न॑तो | डिरिओ-टस्यो दवेइ-दसेय इय-~षए दरविंदमूरीरहि-शीदेर्दरषूरिपे भि्त-उच्छट सुदमथ्य-सृष्मायथ

पथेः-ते देपवे मेकवे ) करे नवसु उकत्कानंतु थाय, परु उक्छृष्ट अनते कोड वस्तु लोकालोकमां नथी ) लो- कालोकमां जेटला पदार्थं जे तेनो व्यवद्ार आठमो मध्यम अनुंतार्चतोज भर्ते उ. रीते सूष्म अथं विचार, तपगछाधि- राज श्री देवंड सूरये लख्यो एषणा

द्तिषमदीतिका नामक चतुर्थं कर्मभ्॑थःसमाक्तः